Anti-Conversion Law : मतांतरण रोधी कानून पर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से मांगा जवाब

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सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को राजस्थान प्रोहिबिशन ऑफ अनलॉफुल कन्वर्ज़न ऑफ रिलिजन एक्ट, 2025 (Anti-Conversion Law) की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर राजस्थान सरकार से औपचारिक प्रतिक्रिया मांगी है। जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की पीठ ने पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (PUCL) और अन्य याचिकाकर्ताओं द्वारा दायर आवेदन पर यह नोटिस जारी किया। पीठ ने इसे समान मुद्दों पर लंबित मामलों (Supreme Court Conversion Cases) के साथ जोड़ने का निर्देश भी दिया।

याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता संजय पारिख पेश हुए। उन्होंने दलील दी कि कानून की कई धाराएँ “मनमानी, असंगत, अवैध और असंवैधानिक” हैं तथा यह अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 21 का स्पष्ट उल्लंघन करती हैं। याचिका में अदालत से आग्रह किया गया है कि उक्त कानून की विवादित धाराओं को खत्म किया जाए, क्योंकि वे नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और धार्मिक आस्था में राज्य के अत्यधिक हस्तक्षेप को बढ़ावा देती हैं।

इस दौरान सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता (SG Tushar Mehta) ने पीठ को अवगत कराया कि इस विषय पर पहले से ही कई याचिकाएँ सर्वोच्च न्यायालय में लंबित हैं, इसलिए इस याचिका को भी उन्हीं मामलों के साथ सुना जाए (Tagged Petition)। कोर्ट ने इस अनुरोध को स्वीकार कर याचिका को संयुक्त सुनवाई के लिए टैग कर दिया।

पहले भी मांगा गया था जवाब

सुप्रीम कोर्ट ने 17 नवंबर को भी इसी कानून को चुनौती देने वाली एक अलग याचिका पर राजस्थान सरकार और संबंधित पक्षों से जवाब मांगा था। 3 नवंबर को अदालत ने दो और याचिकाओं पर सुनवाई के लिए सहमति दी थी, जिनमें राजस्थान में लागू अवैध धार्मिक परिवर्तन विरोधी प्रावधानों पर सवाल उठाए गए थे।

अन्य राज्यों के कानून भी रडार पर

सितंबर में अदालत की एक अन्य पीठ ने यूपी, एमपी, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात, हरियाणा, झारखंड और कर्नाटक के मतांतरण रोधी कानूनों पर भी राज्यों से स्थिति रिपोर्ट मांगी थी। तब न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि कानूनों पर रोक लगाने की प्रार्थना पर तभी विचार होगा जब सभी राज्य अपने-अपने जवाब दाखिल करेंगे।

संयुक्त सुनवाई महत्वपूर्ण होगी

सभी राज्यों के जवाब दाखिल होने के बाद सुप्रीम कोर्ट मतांतरण रोधी कानूनों की संवैधानिकता पर एक व्यापक और ऐतिहासिक सुनवाई करेगा। कानूनी विशेषज्ञों के अनुसार यह मामला व्यक्तिगत स्वतंत्रता, धार्मिक स्वतंत्रता और राज्य की शक्ति की सीमा तय करने के लिहाज़ से अत्यंत महत्वपूर्ण है।