Agricultural Law Back : किसान आंदोलन, आगे की राह...

Agricultural Law Back : किसान आंदोलन, आगे की राह…

Agricultural Law Back Farmers' movement, the way forward...

Agricultural Law Back

डॉ. श्रीनाथ सहाय। Agricultural Law Back : यह हर्ष का विषय है कि केंद्र सरकार ने तीनों विवादास्पद कृषि कानून वापस लेने का फैसला किया है। यह गुरु पर्व पर देश के किसानों को मोदी सरकार का तोहफा है। किसान पिछले काफी लंबे समय से इन कानूनों को वापस लेने की मांग को लेकर आंदोलनरत थे। केंद्र सरकार का दावा था कि वह किसानों को बाजार के रूप में कई विकल्प उपलब्ध करवाने की मंशा से इन कानूनों को लेकर आई है, किंतु किसानों के दिलों को वह जीत नहीं पाई।

किसानों को आशंका थी कि फसलों की सरकारी खरीद जल्द ही बंद हो जाएगी। इसलिए वे न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी दर्जा देने की मांग कर रहे थे। तीनों कृषि कानूनों की वापसी के लिए प्रधानमंत्री मोदी का ऐलान ऐतिहासिक कदम है। प्रधानमंत्री द्वारा कृषि कानूनों को वापस लिये जाने की प्रक्रिया को किसान नेताओं ने उनकी उदारता को कमजोरी समझ लिया है। अब उनकी मांगें बढ़ती जा रही हैं और वे अपने आंदोलन को वापस लेने के मूड में नहीं लग रहे।

हालांकि विपक्ष और किसान नेताओं ने सरकार को उनके ऊपर बल प्रयोग करने के लिए पूरी तरह से उकसाया लेकिन सरकार ने संयम का परिचय दिया। सरकार पर निरंकुश और अडिय़ल शासक का तमगा लगाने वाले अब चुप क्यों हैं। 26 नवंबर को किसान आंदोलन एक वर्ष का हो गया। आंदोलन अब भी जारी है।

कृषि कानूनों की वापसी के बाद भी जारी किसान आंदोलन से एक बात तो तय हो जाती है कि ये प्रदर्शन आगे भी जारी रहने वाला है। क्योंकि, संयुक्त किसान मोर्चा ने स्पष्ट कर दिया है कि वे एमएसपी को लेकर गारंटी कानून समेत 6 अन्य मांगों के साथ किसान आंदोलन करते रहेंगे। आंदोलन के शुरुआती समय में किसान आंदोलन को मोदी सरकार के विरोध में विपक्षी राजनीतिक दलों का भरपूर सहयोग मिला था। जैसे ही किसान आंदोलन के मंचों पर नजर आने वाले सियासी चेहरों की वजह से लोगों के बीच ये संदेश जाने लगा कि ये प्रदर्शन सियासी है।

संयुक्त किसान मोर्चा ने नेताओं के साथ मंच साझा करने से मना कर दिया। लेकिन, पश्चिम बंगाल से लेकर हर चुनावी राज्य में किसानों के बीच पंचायत करने का सिलसिला जारी रहा। वहीं, हर अराजकता पार करने वाली घटना के साथ संयुक्त किसान मोर्चा से जुड़े किसान संगठनों ने अर्बन नक्सल से लेकर खालिस्तान समर्थकों की उपस्थिति को भी बहुत ही चतुराई के साथ मैनेज कर लिया।

ऐसे में सवाल यह है कि क्या किसानों की न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को गारंटी कानून बनाए जाने की मांग मान ली जाएगी? क्या इस तरह भारत सरकार पर दबाव बनाया जा सकता है? केंद्रीय कैबिनेट ने तीनों कृषि कानूनों की वापसी का बिल तो मंजूर कर लिया है। संसद में पारित होकर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर किए जाने और अधिसूचना जारी होने की औपचारिकताएं शेष हैं। सवाल यह भी है कि अगर एमएसपी की मांग मान ली जाती है तो क्या आंदोलन खत्म हो जाएगा।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि एमएसपी को लेकर विरोधाभासी विश्लेषण हैं। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित कमेटी के सदस्य रहे और शेतकारी संगठन के अध्यक्ष डॉ. अनिल घनवट का मानना है कि एमएसपी देना संभव ही नहीं है। कृषि को खुला बाजार दिया जाना चाहिए। विशेषज्ञों का ही एक अन्य तबका मानता है कि एमएसपी की गारंटी से बोझ बढ़ेगा। इन कानूनों को वापस लेने के बाद अब किसानों को आंदोलन खत्म कर एमएसपी के लिए सरकार से बातचीत का रास्ता अपनाना चाहिए।

वैसे तो कृषि कानूनों (Agricultural Law Back) के खत्म होने के साथ ही किसान आंदोलन खत्म हो जाना चाहिए था। लेकिन, ऐसा हुआ नहीं। इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह है इस संयुक्त किसान मोर्चा में जुड़े किसान संगठनों की अपनी-अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धताएं। यही कारण है कि अब किसान मोर्चा एमएसपी के गारंटी कानून पर अड़ गया है, जिसे आजादी के बाद से आजतक कोई सरकार लाने के बारे में सोच भी नहीं सकी है। किसानों के आगे एक बार झुक चुकी मोदी सरकार को एमएसपी गारंटी कानून के जरिये अब पूरी तरह से अपने सियासी जाल में फंसाने की कवायद शुरू कर दी गई है।

दरअसल, एमएसपी पर गारंटी कानून बनाने पर केंद्र सरकार को अपने कुल बजट का 80 फीसदी से ज्यादा हिस्सा एमएसपी पर खर्च करना होगा। और, ये पूरा पैसा पंजाब और हरियाणा के 6 फीसदी किसानों की ही जेब में जाएगा। क्योंकि, शांता कुमार कमिटी की रिपोर्ट के अनुसार, एमएसपी का लाभ देश के 94 फीसदी किसानों को कभी मिला ही नहीं है। इस स्थिति में एमएसपी कानून आना नहीं है और किसान आंदोलन खत्म होना नहीं है।

वहीं, किसान आंदोलन का समर्थक कथित बुद्धिजीवी वर्ग भी सोशल मीडिया से लेकर तमाम माध्यमों के जरिये लोगों के बीच भ्रम की स्थिति फैलाने में जुटे हुए हैं। अराजकता के सबसे बढिय़ा उदाहरण को ये बुद्धिजीवी वर्ग महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए सविनय अवज्ञा आंदोलन के तौर पर पेश कर रहा है। इनके द्वारा लोगों को भड़काने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी जा रही है। इनका कहना है कि किसानों के आंदोलन की वजह से कृषि कानून (Agricultural Law Back) रद्द हुए।

मुस्लिम और लिबरल्स के प्रदर्शनों की वजह से अब तक सीएए का नोटिफिकेशन जारी नहीं हुआ। इतना ही नहीं, ये बुद्धिजीवी वर्ग मोदी सरकार और भाजपा को ही असली एंटी-नेशनल साबित करने में जुट गए है। आसान शब्दों में कहा जाए, तो आने वाला समय मोदी सरकार के लिए बहुत मुश्किल भरा होने वाला है। क्योंकि, सरकार विरोधी कुछ हजार लोग सड़कों को घेर कर प्रदर्शन करेंगे, सालभर अराजकता फैलाते रहेंगे। अंत में दबाव में आकर सरकार को कानून वापस लेना ही पड़ेगा। अलग-अलग कानूनों और चीजों के खिलाफ ये सब पीएम नरेंद्र मोदी के इस्तीफे तक चलता ही रहेगा।

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