हर गांव में मनाते हैं माटी तिहार
नीरज उइके
कोण्डागांव। बस्तर का रहवाशी अपने जंगल जमीन से आत्मीयता से जुड़ा रहता है,वही आदिकाल से परम्पराओ के रूप में अनेक आयोजनों के माध्यम से जंगल और जमीन के करीब आने के लिए कई त्योहार मनाए जाते है ताकि जंगल जमीन से जुड़ाव जीवन भर बना रहे।
इन्ही विविधताओं में एक त्योहार है माटी तिहार याने मिट्टी की पूजा, चैत्र माह मे बस्तर संभाग के कांकेर क्षेत्र के कुछेक गांवों को छोड़ लगभग सभी गांव में माटी तिहार मनाया जाता है। माटी तिहार में मिट्टी की पूजा कर अच्छी फसल के लिए इष्टदेव को धन्यवाद ज्ञापित किया जाता है। यह पर्व चैत्र माह में मनाया जाने वाला एक दिवसीय पर्व है, जिसमें अलग-अलग गांवों में अपने मर्जी से अलग-अलग दिन में मनाया जाता है जिसे गांव के गाँयता, पुजारी एवं समुदाय के सभी लोग मिल कर तय करते हैं।
मूलत: आदिवासियों का त्योहार होने के बावजूद सभी स्थानीय जातियाँ इस रिवाज से जुड़े हैं। इस पर्व मे गाँव के लोग इस दिन माटी से संबंधित किसी प्रकार का कोई भी कार्य नही करते है, जैसे मिट्टी खोदना, खेतों मे हल चलाना, इस त्योहार में समुदाय ढोल तोडी बजा कर गांव के प्रत्येक घरों से चँदा लिया जाता है,वही राहगीरों से भी स्वेक्षा से चंदा लेने की परम्परा है,किसी पर किसी प्रकार का कोई दबाव नहीं होता कुछ पूजा स्थल में ही चँदा लेकर आते हैं। लोग रुपये पैसे के अलावा चाँवल, दाल, सब्जी, फल, काँदा, पशु, पक्षी की भेंट देते हैं। यह पूजा देव कोट(लाऊड) पर जमा किया जाता है।
बस्तर में यह मनोहारी नज़ारा लगभग हर गाँव मे दिखाई दे रहा है जहाँ ढोल तोडी बजा कर गांव के गाँयता, पुजारी, पटेल, कोटवार त्योहार की तैयारी कर रहे हैं । वहीं ग्रामीण त्योहार मनाने देवकोट (लाऊड) में आस्था के अनुसार दाल, चावल व पूजा सामग्री, सल्फी, लंदा दाडगो (अल्कोहल पेय) साथ लिए पहुंचते है।जहाँ गाँवो में सुबह से ही मोहरी नगाड़ा व तुड़बुड़ी की आवाज दूर तक आसानी से सुनी जा सकती है जो बरबस ही किसी का भी मन मोह ले अपनी ओर आकर्षित कर ले।
ग्रामीण एक-दूसरे को लगाते हैं मिट्टी का तिलक
ढ़ोल तुड़तुड़ी के मोहक आवाज के बीच ग्रामीण एक-एक कर देवकोट (लाऊड) में आते हैं। एक-दूसरे को मिट्टी का लेप लगाते है, जिसके बाद गायता पुजारी द्वारा अपने माटी देवकोट ( लाऊड )मे बुढ़ादेव को फूल, नारियल सुपारी चढ़ा कर माटी की विधि विधान से पूजा करता है ताकि पूरे गांव में साल भर सुख शांति बना रहे, व किसी प्रकार की कोई विपत्ति मुसीबत का सामना करना न पड़े।पूजा के बाद शाम को सभी साथ भोजन कर ढ़ोल, माँदर रेला गाकर खुशी मनाते है। ग्रामीण माटी पुजारी फूलसिंह, घासीराम, मंगुराम, रत्तुराम ने इस त्योहार पर मीडिया कर्मी को बताया कि माटी देव या बुढ़ादेव को ग्राम का प्रमुख देवता माना जाता है । तथा इसके पुजारी को भी प्रमुख पुजारी की मान्यता मिली हुई है। आदिवासी प्रकृति के उपासक हैं। उनका कफन-दफन भी मिट्टी में होता है। माटी त्योहार से साल भर के त्योहार की शुरूआत होती है और मेला-मड़ई के साथ समाप्ति होती है। माटी देव की पूजा के साथ हीं अँचल में खेती किसानी का काम शुरू हो जाता है। मिट्टी आदिवासियों को प्राणों से भी प्रिय है । यही कारण है कि आदिवासियों के लिए सबसे बड़ी कसम माटीकिरिया (मिट्टी की कसम) होती है। इस पर उनकी आस्था ही है जो लोगों के सच या झूठ की पहचान होती है और मान्यता है कि मिट्टी की कसम (माटी किरीया) खाकर आदिवासी झूठ नहीं बोलते हैं।