शिक्षक दिवस पर विशेष.. एक भगोड़े अध्यापक की आत्म-प्रवंचना : कनक तिवारी
कनक तिवारी
मैं आठ वर्ष से अधिक तक चार महाविद्यालयों में पढ़ा चुका हूं। कम्बख्त तनख्वाह ने ऐसा मारा कि भाग खड़ा हुआ। फिर अध्यापक आत्मा में सुबकता रहा। देह पर कमाई की चर्बी चढ़ती रही। वक्त के बियाबान में सेवानिवृत्ति की उम्र पार हो गई। अध्यापक लगभग दफ्न हो गया। हर साल पांच सितंबर को शिक्षक देह के फोटो फ्रेम से निकल आता है। धुल पुंछकर उसे फिर बामशक्कत एक वर्ष की उपेक्षा की कैद हो जाती है।
वह फिर कहीं जाने को कुलबुला रहा है। बोलना चाहता है। गले के इर्द गिर्द पुष्पहार चाहता है। राष्ट्रपति का पदक तो नहीं मिला। कुछ न हो सके तो सड़क से गुजरता हवलदार ‘नमस्ते सर’ कहकर ही निकल जाये। इतनी पहचान के लिए साल दर साल गुमनामी की खंदकों में दफ्न होता रहता है। डॉ. राधाकृष्णन की याद में शिक्षक दिवस मनाने का सिलसिला शुरू हुआ। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर भारत के राष्ट्रपति और दुनिया के शीर्ष दर्षनशास्त्री तक प्रोन्नत हुए। उनकी दृष्टि अंतर्राष्ट्रीय थी। तमाम मुल्कों की यात्राएं कीं।
वे हिन्दुस्तान के औसत शिक्षक के प्रतिनिधि कैसे हुए? शिक्षक वह होता है जिसकी बीवी दवा के अभाव में मर जाती हो। अदना अधिकारी दुतकारते हों। बेटा यथाशीघ्र और यथासंभव आवारा हो जाने को अभिशप्त हो। गैर शादीशुदा बेटी के सामने दो विकल्प हों-एक यह कि वह अविवाहित रहे और दूसरा यह कि वह किसी के साथ भाग जाये। शिक्षक वह होता है जिसके लिए पुस्तकों, पुस्तकालय अथवा शैक्षणिक ट्रेनिंग का कोई पुख्ता इंतजाम नहीं होता। जिसे चुनाव, जनगणना या मंत्री की अगवानी के लिए मुस्तैद कर दिया जाये।
अलबत्ता यह भेड़ों की भी योनि है जिसमें कुछ भेडि़ए भी दाखिल हो जाते हैं। ऐसे शिक्षकनुमा लोग आधी और तिहाई उम्र की बच्चियों का शील भंग करते हैं। कत्ल और लूट की कार्यवाहियों को अंजाम देते हैं। पाठशाला में जाए बिना वेतन डकारते रहते हैं। वे अशुद्ध विचार, भाषा और उच्चारण के महारथी होते हैं। उनकी नियुक्ति के पीछे मंत्रियों और अफसरों के गुर्गों का वरदहस्त होता है। वे जबरिया खींसे निपोरते हैं। गंभीर कम दिखाई पड़ते हैं। ऐसी मछलियां शिक्षा के तालाब को धड़ल्ले से गंदा करती चली जाती हैं।
भारत को भ्रम रहा है कि गुरु गोविन्द से बड़े होते हैं। गुरुपत्नी के साथ व्यभिचार करने की कथाएं इसी देश में लिखी गई हैं। महाभारत में गुरु द्रोणाचार्य ने अपने बेटे को दूध के बदले खडिय़ा घोलकर पिलाया था। दूध और मलाई मंत्रियों और अफसरों की तरह कौरव पांडव मिलकर छकते रहे। राजनीतिज्ञ अर्थनीति के मामले में सदैव एक हो जाते हैं जैसे कांग्रेस और भाजपा। गुरुकुल और आश्रम में नागर सभ्यता से दूर एकनिष्ठ विचारकों ने शिष्य पैदा किए। वे त्रेता और द्वापर के नायक बने। वे असंभव संभावनाओं को समेटे हर आखिरी आदमी के अस्तित्व के नियामक बन गए। राम और कृष्ण तक को कहां पता था कि कलियुग में उनकी एक नहीं चलेगी।
वैश्वीकरण, विश्व बैंक, डंकल, गैट, एशियन डेवलपमेन्ट बैंक, यूरोपियन कॉमन मार्केट, कॉमनवेल्थ गुरुकुल और आश्रमों को नेस्तनाबूद करने में सफल हो गए। उन्होंने गुरुजी के घटते क्रम में शिक्षक, मानसेवी शिक्षक, व्याख्याता, प्राध्यापक, रीडर, प्रोफेसर विजिटिंग प्रोफेसर, प्रोफेसर एमेरिटस, संविदा शिक्षक, शिक्षाकर्मी वर्ग एक दो तीन, सहायक शिक्षक, कनिष्ठ शिक्षक, ट्यूटर, शिक्षा गारंटी गुरुजी जैसे नाम धरे। वह अपनी आत्मा के आइने के सामने जाने से घबराने लगा। अपने चेहरे पर विद्रूप लीपे जनपथ पर चलता कम है।
राजपथ पर घिसटता ज्यादा है। लाखों कुपोषित, कुसंस्कारित बच्चों की सोहबत में उसे इंसान बनाने की फैक्टरी का प्रभार दिया जाता है। कारखाने की चाबी लेकिन जनभागीदारी समिति के अध्यक्ष के पास होती है। वह सत्तारूढ़ पार्टी का दोयम दर्जे का नेता होता है। उसे शिक्षा का चारागाह पेट भरने के लिए दिया जाता है। अमूमन प्रभारी मंत्री का चमचा होता है। प्रभारी मंत्री एक भूतपूर्व घटिया छात्र होने का यश अपने माथे पर लीपे ऐसे गिरोह का सरगना होता है।
इतिहास में नपुंसक विद्रोह भी सत्ता परिवर्तन का कारण होता है।
सर्दियों में पड़ी नर्म लकड़ी भी पत्थर में तब्दील हो जाती है। कोयला इसी तरह हीरा बनता है। यादें इसी तरह इतिहास बनती हैं। अंधेरी रात में तारों की रोशनी से राह ढूंढ़ी जा सकती है। इस देश का बेड़ा उन शिक्षकों ने भी गर्क किया है जो दिन रात यूरोप और अमेरिका के ज्ञान की शेखी बघारते हैं। उसकी एजेंसी चलाते हैं। इस देश की जनता के गाढ़े पसीने की कमाई के टैक्स से आई.आई.टी. संस्थान और बिजनेस मेनेजमेन्ट के कोर्स चलाए जाते हैं। समूची कौम के दिमाग का बेहतरीन अंश विदेशों को निर्यात कर दिया जाता है।
शिक्षा व्यवस्था से तेल निकालकर बेच दिया जाता है। देश को खली खिलाई जाती है। मंत्रियों के खाते विदेशी बैंकों में सुरक्षित किए जाते हैं। मिडिल फेल राजनेता उच्च शिक्षा मंत्री नियुक्त होते हैं। वे ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज और हारवर्ड में हो रहे शोध कार्यों का जायजा लेने भेजे जाते हैं। स्कूल से रस्टिकेट हुए अथवा नकल मारते पकड़े गए भूतपूर्व छात्र भावी मंत्री होकर अपने ही अध्यापकों से पुष्प मालाओं की चढ़ोतरी प्राप्त करते हैं और तबादलों के लिए घूस। राजनीति हम्माम है। वहां आयुर्वेद का स्नातक मुख्यमंत्री होता है।
एम.बी.बी.एस. डिग्रीधारी मंत्री, एम.एस. उपाधिकारी विभाग का सचिव, पद्मश्री प्राप्त कुशल डॉक्टर मेडिकल कॉलेज का डीन। ऐसे इंतजाम में अध्यापक के जीवन और अस्तित्व को लेकर किसे चिंता है? वह देश जो गुरु का अवमूल्यन करता है, जीने का हकदार नहीं होता। शिक्षा राष्ट्रीय जीवन की शिरा है। उसमें शिक्षक की अस्मिता और चरित्र का खून सदैव बहता रहना चाहिए। शिक्षक सांस्कृतिक अहसास का वह फेफड़ा है।
वहां इतिहास का खून शुद्ध होता है। शिक्षक दिवस के अवसर पर अपना सम्मान कराने के लिए उसे यदि खुद अपनी चरित्रावली तैयार करने को कहा जायेगा। तो इतिहास के हिस्ट्रीशीटर राजनेताओं का मुंह काला होता है। इक्कीसवीं सदी की दहलीज़ पर तो यही हो रहा है।