China-Taiwan : ताइवान पर चीनी आक्रमण अब और करीब!

China-Taiwan : ताइवान पर चीनी आक्रमण अब और करीब!

China-Taiwan: Chinese invasion of Taiwan is now closer!

China-Taiwan

China-Taiwan : यह वास्तविक सत्य है कि इतिहास खुद को ज़रूर दोहराता है। पूरी दुनियां को त्रासदी में धकेलने के बाद अब कोरोनावायरस वापस उसी जगह पहुंच गया है जहां से उसकी शुरुआत हुई थी। हालांकि जिस भयानकता से यह पूरे चीन में फ़ैल रहा है, उससे यह संभावना फिर से प्रबल हो रही है कि अपनी साख बचाने के लिए राष्ट्रपति शी जिनपिंग कहीं ताइवान पर हमले का आदेश न दे दें।

यह पहली बार नहीं है कि राष्ट्रपति शी किसी मुद्दे से असहज हुए हैं, और हर मुद्दे का तोड़ उनकी नजर में ताइवान न हो। लेकिन अगर हम कूटनीतिक कडिय़ों को बारीकी से समझें, तो निष्कर्ष यही है कि प्रत्येक चीनी संप्रभुता वाले मुद्दे की आड़ में ताइवान पर आक्रमण का अंदेशा कदम दर कदम नजदीक होता जा रहा है। भारतीय लद्दाख में घुसपैठ हो या उइगुर मुस्लिमों पर अत्याचार, दुनियां में चिप सप्लाई में रुकावट हो या फ़ूजियान प्रांत में भारी मिलिट्री ड्रिल, क्वाड की रूपरेखा हो या दक्षिणी चीन सागर की लड़ाई; इन सबका केंद्र ताइवान ही है, जिसे चीनी सरकार किसी भी कीमत पर कब्जाना चाहती है।

बेशक यह मुद्दा माओत्से तुंग के समय से नासूर बना हुआ है लेकिन उनके बाद के सभी राष्ट्रपतियों में शी जिनपिंग ने ही इसपर सबसे ज़्यादा आक्रमकता दिखाई है, और इसका प्रमुख कारण जीवनकाल तक राष्ट्रपति रहने के वादे से है जिसपर वो किसी भी किस्म की दाग या कोई मुद्दा शेष नहीं रहने देना चाहते।

हाल ही में चीन (China-Taiwan) की सरकार ने अमेरिकी रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन का फोन ही उठाना बंद कर दिया, और विदेश मंत्रालय आधिकारिक व्यक्तव्य जारी करके उन्हे बदतमीज और सरफिरा कह रहा है। दरअसल अमेरिकी रक्षा मंत्री चालाकी भरे अंदाज़ में अपने चीनी समकक्ष की जगह चाइनीज मिलिट्री कमीशन के वाइस चेयरमेन ज़ू कुईलियांग को फोन लगा रहे थे। वह यह टेस्ट करने की कोशिश कर रहे थे कि चीनी सरकार ज़ू से उनकी बात कराती है या नहीं। क्योंकि अमेरिका की नजर में वहां की सरकार एक तोता है, जबकि असली ताकत चाइनीज कम्युनिस्ट पार्टी के हांथो में है, और ज़ू ही वो व्यक्ति हैं जिनके हाथों में ताइवान का मामला है।

दरअसल कुछ महीनों से रुक-रुककर चीनी मीडिया लगाकर ताइवान पर आक्रमण की खबरें चला रही है इसलिए ऑस्टिन ज़ू से बात करके ताइवान के मुद्दे पर ठोस आश्वासन लेना चाहते थे, लेकिन फोन न उठाकर चीन ने उस आशंका की संभावना को मुहर ही लगाई है। इसलिए मुझे लगता है कि दोस्ताना रिश्तों की चाह वाले अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन भी अब चीनी नीति पर भौहें सिकुड़कर अपने पूर्ववर्ती को याद करते होंगे।

क्योंकि डोनाल्ड ट्रंप एक राष्ट्रपति के रूप में भले ही बेवकूफ रहे होंगे लेकिन उनमें एक कमाल की काबिलियत थी, कि लोगों को चिढ़ाते कैसे हैं। इसीलिए अमेरिका ने शीत युद्ध में सोवियत संघ के ख़िलाफ़ अपनाई हुई नीति को शीत युद्ध 2.0 में चीन के ख़िलाफ़ लागू कर चीनी राष्ट्रपति को प्रेसीडेंट की जगह सेक्रेटरी जनरल संबोधित करना प्रारंभ कर दिया है।

1972 के बाद 2020 में पहली बार अमेरिका ने ताइवान (China-Taiwan) में अपने उच्चस्तर के दूत भी भेजे। इन सब के अलावा क्वाड को मजबूत करने, दक्षिणी चीन सागर में सबसे घातक एयरक्राफ़्ट कैरियर यूएसएस निमिट्ज को भेजने और 90 दिनों के भीतर कोरोनावायरस के उद्गम का पता लगाने संबंधी आदेश देकर भी अमेरिका जब चीन पर मनोवैज्ञानिक बढ़त हासिल नहीं कर पाया तब बाइडेन प्रशासन ने 60 सालों से सबसे क्लासीफाइड दस्तावेज को पूर्व सैन्य विश्लेषक एल्सबर्ग से लीक करवा दिया, जिसके अनुसार ताइवान को बचाने और उसपर कब्जा रोकने के लिए अमेरिका 1958 में ही चीन के ऊपर परमाणु बम गिराने वाला था, लेकिन सोवियत संघ से रिश्ते खराब होने और अनचाहे युद्ध की आशंका से उसने इस योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया।

दरअसल अमेरिका इस लीक के जरिए चीन को यह संदेश पहुंचाना चाह रहा था, कि वो आज भी ऐसा करने की ताकत रखता है, और ताइवान को अकेला ना समझा जाए। लेकिन बाद के वर्षों में जब चीनी राष्ट्रपति माओत्से तुंग से इस बारे में पूछा गया था तब उन्होंने सख्त लहज़े में कहा था कि बम गिराकर भी अमेरिका सबको नहीं मिटा सकता, यानी माओ कहना चाहते थे कि बाद में अगर कोई इस देश मे बच गया तो भी वह एक दिन ताइवान को कब्जा कर ही लेगा। इसके बाद तीव्रगति से चीन ने परमाणु कार्यक्रम प्रारंभ कर दिया और 16 अक्टूबर 1964 को प्रोजेक्ट-596 के तहत शिनजिआंग प्रान्त के लोप नूर में खुद बम परीक्षण करके पांचवां परमाणु संपन्न राज्य बन गया।

लेकिन डर इस बात का है कि यदि यह जांच सही पाया गया तो राष्ट्रपति शी, चीनी (China-Taiwan) जनता के बीच अपनी इमेज बचाने के लिए निश्चित ही ताइवान पर हमला कर देंगे, क्योंकि कुछ महीनों पहले दक्षिणी प्रांत फ़ूजियान में उच्चस्तर की मिलिट्री ड्रिल इसीलिए प्रायोजित की गई थी कि तीन तरफ पहाड़ों से घिरे ताइवान पर आखिर किस तरह से आक्रमण करके कब्ज़ा किया जाएगा।

उसी दौरान चीन ने एलएसी में एस-400 मिसाइल सिस्टम और 20000 सैनिकों को तैनात कर दिया था, जिसके जवाब में भारत ने भी अपने 50000 सैनिकों की तानाती बढ़ा दी। लेकिन मैं समझता हूं कि यह सब सिर्फ एक छलावा है। चीन यहां पर इसलिए तैयारियां कर रहा है ताकि जब वो ताइवान को कब्जाने मे व्यस्त हो, तो भारत कहीं अपना नॉर्थ फ्रंट ना खोल दे, क्योंकि क्वाड सदस्य होने के नाते भारत पर इन सबका कूटनीतिक दबाव आना स्वाभाविक है।

बहरहाल निष्कर्ष यह है कि यूएस पेंटागन रिपोर्ट हो या जापानीज़ डिफेंस रिपोर्ट या फिर कोई स्वतंत्र संस्था, सब इस एक बात पर सहमत हैं कि 6 सालों के भीतर चीनी सेना ताइवान पर निश्चित रूप से आक्रमण कर देगी, लेकिन मुझे पता है कि चीन अंतत: हार जायेगा। ऐसे समय में दुनियाभर के देश ताइवान को सहयोग सिर्फ इसलिए दे रहे होंगे, क्योंकि चीन की सर्वोच्चता में उन सभी देशों का अपना पतन प्रारंभ हो जाएगा, विशेषकर भविष्य की तकनीक पर।

और इस कोरोनावायरस (China-Taiwan) ने तो उन तकनीकों को वैसे भी कई गुना फास्ट फॉरवर्ड कर दिया है, क्योंकि अब आम जनता कार, एसी, स्मार्टफोन्स, हथियार, डिवाइसेस इत्यादि का पहले से ज़्यादा व्यक्तिगत इस्तेमाल करेंगे, जिसका बैकबोन सेमीकंडक्टर चिप ही होंगे मतलब ताइवान।

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