Monsoon Session : हंगामे की भेंट चढ़ता मानसून सत्र…
Monsoon Session : सांसद का मानसून सत्र हंगामे की भेंट चढ़ता दिख रहा है। विपक्ष ने सत्र में बाधा पैदा करने के पक्के मंसूबे बांध रखे हैं। आज संसद के मॉनसून सत्र के दस दिन बीत चुके हैं, लेकिन विपक्ष का हंगामा और कार्यवाही को बाधित करने की सियासत लगातार जारी है। लोकतंत्र में सरकार का विरोध और उसकी कमियों को उजागर करने की जिम्मेदारी विपक्ष की होती है। लेकिन कुछ तो संसदीय दायित्व होंगे कि संसद की कार्यवाही चलती रहे।
महत्त्वपूर्ण मुद्दों और विषयों पर सार्थक बहस के बाद सरकार का जवाब देश के सामने स्पष्ट हो। संसद में विधेयक पारित किए जाएं अथवा संशोधन किए जाएं। यह संसद और सांसदों की बुनियादी भूमिका है। संसद हंगामों और आपत्तिजनक नारेबाजी का अड्डा नहीं है। संसद देश की सर्वोच्च पंचायत है और भारत की संप्रभुता की प्रतीक है। पिछले पूरे सप्ताह के दौरान सिर्फ मंगलवार को उच्च सदन में उस समय चार घंटे सामान्य ढंग से कामकाज हो पाया जब कोविड-19 के कारण देश में उपजे हालात को लेकर, सभी दलों के बीच आपस में बनी सहमति के आधार पर चर्चा की गयी। अगर यही कुछ चलता रहा तो आम आदमी के दुख-दर्दे और मुद्दों का कौन उठाएगा ?
हमने कथित संचार घोटाले के दौर में संसद (Monsoon Session) की कार्यवाही को लगातार 13 दिन तक स्थगित होते भी देखा है। तब संचार मंत्री सुखराम थे और पीवी नरसिंहराव प्रधानमंत्री थे। उस राजनीति को भी नजीर नहीं माना जा सकता। देश के आर्थिक संसाधनों और बेशकीमती समय की बर्बादी तब भी हुई थी। तब विपक्ष में भाजपा थी, लेकिन बदले की भावना के मद्देनजर आज कांग्रेस और विपक्ष वही राजनीति संसद में नहीं कर सकते। संसद ऐसी तमाम मानसिकताओं से ऊपर है। संसद की एक घंटा कार्यवाही पर करीब 1.5 करोड़ रुपए खर्च होते हैं।
विपक्ष खुद गणना कर ले कि 9 दिनों में देश का कितना पैसा बर्बाद कर दिया गया। यह पैसा आम आदमी का कर के रूप में दिया हुआ है। संसद भवन के रजिस्टर पर हस्ताक्षर करते ही सांसद का रोजाना का भत्ता तय हो जाता है। मोटी तनख्वाह और सुविधाएं अलग हैं। क्या सांसद की भूमिका यहीं तक सीमित है? संसद सदस्य देश में गरीबी, मंहगाई और कोरोना की मार से त्रस्त जनता के दर्द से बेखबर नहीं हैं फिर भी नेता हैं कि संसद चलाने को तैयार नहीं हैं। संसद में हर दिन हंगामे की भेंट चढऩे का दौर बदस्तूर जारी है।
संसद के भीतर सांसद पोस्टर, बैनर और तख्तियां लहराते हुए और अध्यक्ष के आसन के पास आकर हंगामा बरपा रहे हैं। मंत्री के हाथ से कागज छीन कर, उसे चिंदी-चिंदी कर, आसन की ओर उछाल रहे हैं। राज्यसभा के सभापति एम वेंकैया नायडू ने उच्च सदन में लगातार हो रहे हंगामे और व्यवधान पर क्षोभ प्रकट करते हुए, सूचना प्रौद्योगिकी और संचार मंत्री अश्विनी वैष्णव के हाथों से एक विपक्षी सदस्य द्वारा बयान की प्रति छीन उसके टुकड़े हवा में लहराने की घटना को ”संसदीय लोकतंत्र पर हमला” करार दिया। उन्होंने कहा कि कोविड महामारी की विभीषिका के बीच यह सत्र आयोजित हुआ है और जनता से जुड़े कई अहम मुद्दों पर चर्चा की जानी है।
उन्होंने सदस्यों के सामने कई सवाल भी उठाए ओर उनसे इर पर चिंतन करने को कहा। लोकसभा में भी कागज फाडऩे और उछालने की घटना घटी है। पोस्टर, बैनर तो संसद में निषिद्ध हैं। फिर कैसे सदन में पहुंच जाते हैं? क्या उनकी कोई चैकिंग नहीं है? ऐसे असभ्य, अभद्र आचरण से विपक्ष को कौन-सा न्याय मिल रहा है? राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े ने तो यहां तक धमकी दी है कि यदि जासूसी कांड की न्यायिक जांच के लिए सरकार तैयार नहीं हुई, तो पूरा मॉनसून सत्र ही धुल सकता है। नुकसान किसका होगा?
दूसरी तरफ लोकसभा (Monsoon Session) में स्पीकर ओम बिरला हंगामा करने वाले सांसदों पर बरसे हैं और फटकार भी लगाई है। स्पीकर ने साफ कहा है कि सदन में हंगामा करने और कार्यवाही को बाधित करने के लिए जनता ने सांसदों को नहीं चुना है। वे लोगों की समस्याओं को उठाएं और मुद्दों पर बहस करें। चिकनी मानसिकता है, लिहाजा कोई रास्ता दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने सांसदों को निर्देश दिए हैं कि वे हंगामाखेज विपक्ष को बेनकाब करें और विकास के कार्यों को लोगों तक पहुंचाएं।
दूसरी तरफ विपक्ष ने एक साथ ‘कामरोको प्रस्ताव’ के नोटिस देकर सरकार को बाध्य करने की रणनीति तय की है। दोनों पक्षों का निष्कर्ष होगा कि संसद का यह सत्र हंगामों और स्थगन की बलि चढ़ जाएगा। जवाबदेही से सत्ता और विपक्ष दोनों ही कन्नी काट रहे हैं। अभी तक 3-4 विधेयक ही ध्वनिमत से पारित किए जा सके हैं। उन पर संसद में कोई बहस नहीं हो सकी। क्या संसद का मंच सिर्फ अखाड़ेबाजी के लिए बनाया गया है? जासूसी कांड के अलावा, किसान आंदोलन, वैश्विक महामारी कोरोना, तालाबंदी के कारण अर्थव्यवस्था का कचूमर, नतीजतन बेरोजगारी और महंगाई, देश के कई हिस्सों में जल-प्रलय, अंतरराष्ट्रीय विवाद और संकट आदि ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर संसद विमर्श नहीं करेगी, तो फिर संसद का औचित्य ही क्या है?
यह भ्रामक धारणा है कि संसद की कार्यवाही चलाना सरकार का ही दायित्व है। सरकार विधेयक तैयार कराती है, प्रश्नों के जवाब भी देती है, बहसतलब विषयों के चयन करती है, लेकिन कार्यवाही तभी संभव है, जब सरकार और विपक्ष में समन्वय हो। चूंकि सभी सांसद, अंतत:, देश की जनता के प्रति जवाबदेह हैं, लिहाजा सर्वोच्च पंचायत भी साझा तौर पर चलाई जानी चाहिए, लेकिन मौजूदा हालात ऐसे नहीं लगते कि दोनों पक्षों के बीच समझौता होगा और देशहित में संसद चलाई जा सकेगी।
दरअसल, कांग्रेस ने तय कर लिया है कि संसद (Monsoon Session) को किसी न किसी तरह बाधित किए रखना है, ऐसे में वह हर छोटी बड़ी घटना को तूल दे रही है और सदन के काम काज को रोक रही है। इसमें उसे दूसरे विपक्षी दलों का भी साथ मिल रहा है। कांग्रेस को यह समझना चाहिए कि संसद में शोरगुल करने से देश की जनता के बीच उसके खिलाफ नकारात्मक संदेश जा रहा है। इस तरह वह अपनी जगहंसाई तो करा ही रही है देश के विकास के रास्ते में भी रोड़ा अटका रही है। लोकतंत्र के लिए यह शुभ संकेत नहीं कि एक दल अपनी हठधर्मिता के कारण संसद को असहाय कर दे।
अब जब संसद का मानसून सत्र खत्म होने में ज्यादा दिन नहीं बचे हैंैं तब कांग्रेस सहित विपक्ष को गंभीरता से देश की जनता के बारे में सोचना चाहिए। उस जनता के बारे में सोचना चाहिए, जो पिछले लगभग डेढ साल से कोरोना का दंश झेल रही है। कोरोना को लेकर संसद में कोई आवाज सुनाई नहीं दे रही है। वहीं जनहित में लंबित पड़े जरूरी विधेयक जल्द से जल्द पारित हो सकें व देशहित में जरूरी फैसले लिए जा सकें, इस बारे में विपक्ष को जरूर सोचना चाहिए।