कांग्रेस की इक्कीसवीं सदी (2): कनक तिवारी
बहुत कम लोगों को पता होगा कि परिवार के खर्च का मुख्य स्त्रोत जवाहरलाल नेहरू की किताबों से मिली रायल्टी ही रहा है। मौलाना आज़ाद उर्दू, फह्यह्यह्य०ह्यारसी और अरबी के प्रवर्तक विद्वानों में से एक रहे हैं। डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद का अंग्रेजी भाषा पर इतना एकाधिकार था कि कांग्रेस वर्किंग कमेटी के वाद विवाद का निचोड़ प्रस्ताव की शक्ल में जब भी वे लिखते थे, उसमें एक शब्द का हेरफेर भी देखने और करने की जरूरत नहीं पड़ती थी। अन्य समकालीनों में डॉ0 पट्टाभि सीतारामैया, श्रीनिवास शास्त्री, चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य, सुभाषचन्द्र बोस, आचार्य जे.बी. कृपलानी, पुरुषोत्तमदास टण्डन, मदनमोहन मालवीय, लाला लाजपत राय और न जाने कितने असंख्य कांग्रेस नेता रहे हैं जो एक से एक प्रखर बुद्धिजीवी थे। संविधान सभा में जब बहस शुरू हुई तो उसके देशभक्त का जमावड़ा ही नहीं था, वे अपने समय के सबसे प्रखर चिन्तक भी थे। यही हाल पट्टाभिसीतारामैया, राजगोपालाचारी और सरोजिनी नायडू आदि की बौद्धिकता का रहा है।
आजादी के आन्दोलन की कांग्रेस अपनी कौम के सर्वश्रेष्ठ चिन्तकों का आश्रय स्थल रही है। ये चिन्तक हाथी दांत की मीनारों में बैठने वाले नहीं बल्कि जन समस्याओं से जुड़कर अपना खून पसीना एक करने को तत्पर अव्वल दर्जे के चरित्रवान देशभक्त थे। आज़ादी के बाद भी जवाहरलाल नेहरू ने बुद्धिजीविता की रोशनाई से पूरे माहौल को आलोकमय बनाये रखा। तिलक से जवाहरलाल तक भारत के बुद्धिजीवियों का सफर चिन्तन और कर्म का संदेश था। जवाहरलाल नेहरू के बाद वैचारिक सोच का पौधा धीरे-धीरे कुम्हलाता गया। कांग्रेस अधिवेशनों में अध्यक्षों के भाषण अपनी कवितामय ताजगी और भविष्य दृष्टि के लिये प्रेरणा देते रहे हैं। धीरे-धीरे अध्यक्षीय भाषणों और कार्य समिति के प्रस्तावों में सर्वकालिकता, ऐतिहासिकता और भविष्य दृष्टि धुंधलाने लगी। स्वतंत्रता संग्राम सैनिकों और संविधान शिल्पियों के उपचेतन में यह बात जरूर कौंधती थी कि उनकी विचारधारा को अभी भारत का निर्माण करना है, चाहे इस काम में एक सदी ही क्यों न लग जाए। इसलिए उन्होंने कभी भी इतिहास और समकालीनता के पछुआ विचारों से भी परहेज नहीं किया। इन सूरमाओं ने अंग्रेज संस्कृति को उसके घर में घुसकर ललकारा क्योंकि ये सारे उपकरण भी उन्होंने ब्रिटेन की धरती से ही उसके विश्वविद्यालयों में प्राप्त किए थे। अंग्रेज जाति की संस्कृति, सभ्यता और साम्राज्यवाद की एक-एक इबारत को महात्मा गांधी जैसे नितान्त भारतीय विचारक अच्छी तरह पहचानते थे। इन योद्धाओं में किसी तरह की मनोवैज्ञानिक हीनता की भावना नहीं थी क्योंकि हीन ग्रन्थियों का होना वे अपशकुनसूचक मानते थे। इन्हें कभी भी गोरी चमड़ी का मोह नहीं रहा क्योंकि भारत की धरती की नैसर्गिक सुन्दरता के एक-एक अवयव से वे परिचित थे। कुल मिलाकर ये पूर्वज विश्व मानवता से लैस होकर भी लगातार भारतीय बनने की कोशिश करते रहे और यही उनके जीवन का सबसे बड़ा अभीष्ट था। उन्होंने भारत की विश्व सभा में पहचान बनाई और भारत के माध्यम से सम्भावनाओं के आसमान की तलाश की। पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने गुटनिरपेक्ष आन्दोलन तथा नि:शस्त्रीकरण जैसे अवयवों का आविष्कार प्रधानमंत्री होने के नाते नहीं बल्कि विश्व स्तर के स्वप्नशील बुद्धिजीवी के रूप में किया था। ये तत्व आज भी विद्यमान हैं और एटम की विनाशकारी शक्ति के घावों पर मरहम की तरह काम कर सकते हैं। मानसिक चिन्ताओं का यही वह बिन्दु है जिस पर कांग्रेस को विचार करना होगा।
कांग्रेस ने भाषण कला को ही तिरोहित कर दिया। जिस पार्टी में सरोजिनी नायडू, श्रीनिवास शास्त्री और जगजीवन राम जैसे अद्भुत वक्ता रहे हैं उसे बुद्धि कौशल से इतनी जल्दी परहेज नहीं करना चाहिए था। वक्तृत्व कला नेता का आभूषण नहीं बल्कि जनता से संवाद का समीकरण है। वह एक माध्यम है जो पारस्परिक होने से सदैव महत्वपूर्ण होता है। कांग्रेस की नई फौज बल्कि कुछ बूढ़ों को भी यदि पार्टी का इतिहास, संविधान, कार्य समिति के प्रस्तावों, अध्यक्षीय भाषणों और समाज विज्ञान के सभी महत्वपूर्ण विषयों से ओत-प्रोत नहीं किया जाएगा, यह पार्टी बौद्धिक लक्षणों को आत्मसात कैसे कर पाएगी? सेवानिवृत्त लोग भी अनुभवों का जखीरा लादे कांग्रेस की पूंजी रहे हैं। स्कूल के जलसों में कांग्रेस के नेता घण्टों बैठे रहते और छात्रों को प्रोत्साहित करते थे। कांग्रेस के विभिन्न सांगठनिक कार्यालयों में जन समस्याओं को लेकर इतनी तर्कपूर्ण, प्रामाणिक और आंकड़ों सहित बहस होती थी कि प्रशासन खौफ खाता था। गुप्तचर संगठनों की रिपोर्टों तक में ऐसी प्रामाणिकता का उल्लेख होता था। कम्प्यूटर युग के पहले कांग्रेस के सूचना केन्द्र तथ्यवार गणनाओं के विश्वविद्यालय रहे हैं। कांग्रेस के बड़े नेताओं ने जो पत्र एक दूसरे को लिखे हैं वे व्यक्तिगत विचारों के आदान प्रदान का प्रतिबिम्ब मात्र नहीं हैं। उनमें समकालीन इतिहास बोलता था, बल्कि सर्वकालिक संदेश गूंजता था। एक जमाने में सोच की यह पार्टी नागरिकों के जेहन में यह बात तेजाब की तरह भरती थी कि अगले दस वर्षों में देश का जननेता किस तरह बनेगा। पहले कांग्रेस टिकिट चेक की तरह होती थी जिस पर लोकसभा या विधानसभा की सीट का नाम लिख देने से उसे जनता के बैंक में वोटों के करेन्सी नोटों में तब्दील किया जा सकता था।
कांग्रेस पार्टी और उसके मैदानी कार्यकर्ता चुनाव नहीं हारते हैं। पराजय की चोट उनके माथे लगती है जिन्होंने अपने तिकड़मों से ऐसे उम्मीदवारों को टिकिट दिलाई जिनमें चुनाव जीतने की कूबत ही नहीं थी अथवा जो राजनीतिक सूबेदारों के मुंहलगे सिपहसालार मात्र हैं।कांग्रेस की अंदरूनी ताकत उसकी आपसी असहमति रही है। तिलक और गोखले में कितनी पटी? गांधी और सुभाष कहां एक थे? नेहरू से सरदार पटेल के कितने मतभेद नहीं थे? नरम दल और गरम दल यहां तक कि बाप बेटे मोतीलाल नेहरू और जवाहरलाल नेहरू या पति पत्नी आचार्य कृपलानी और सुचेता कृपलानी में राजनीतिक दृष्टि से कहां पटी है? महात्मा गांधी ने तो पूरी कांग्रेस के खिलाफ अनशन करके कई बार जेहाद बोला लेकिन कांग्रेस के मूल आदर्श से उसका कोई महारथी आजादी की लड़ाई के दौरान नहीं हटा। उस समय तकरारें कांग्रेस की बेहतर सेवा करने के उद्देश्य से होती थीं।
असहमति किसी भी जीवंत राजनीतिक पार्टी का शानदार लक्षण है लेकिन असहमति केवल शैली होनी चाहिए, मकसद नहीं। जब गांधी कहते थे कि उनकी नेहरू से असहमति है तो वे झूठ नहीं कहते थे। कांग्रेस की एक और मुश्किल रक्त की शुद्धता को लेकर है। एक वक्त था कि लोग असहमत तो क्या अपमानित होने पर भी पार्टी का दामन इसलिए नहीं छोड़ते थे कि गैरकांग्रेसी होना अपने आप में कांग्रेस कार्यकर्ता के लिए जीवन भर कलंक ढोना था। विपक्षी राजनीतिक पार्टियों ने धीरे धीरे राजनीति के रेवड़ में अपना बाजार भाव भी सुस्थिर किया। कांग्रेस से भारतीय जनता पार्टी, जनता पार्टी और दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों में स्थापित नेताओं के आने जाने का क्रम दलबदल के इतिहास का नया परिच्छेद बन गया। इस खतरे को संयोगवश राजीव गांधी ने सबसे अधिक पहचाना, जब अपनी मां की मृत्यु के बाद वे तीन चौथाई बहुमत से लोकसभा के कब्जेदार बने। राजीव को उस समय दलबदल कानून की राजनीतिक ज़रूरत नहीं थी। फिर भी उन्होंने रक्त की शुद्धता के लिए सर्वसम्मत निर्णय लोकसभा में पारित करवाया। यह अलग बात है कि उस दलबदल कानून की यथा संभव धज्जियां भी उड़ाई गईं और कई महारथी कांग्रेस से बाहर जाने और बाद में अन्दर आने को भी अपनी राजनीतिक अस्मिता से जोड़ते रहे। (क्रमश:)