संपादकीय: लोकतंत्र के स्तंभों का टकराव चिंतनीय

Conflict between the pillars of democracy is a matter of concern
Conflict between the pillars of democracy is a matter of concern: भारतीय लोकतंत्र में व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की भूमिका स्पष्ट है। ये एक-दूसरे के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण नहीं करती। किन्तु देखा जा रहा है कि पिछले कुछ समय से लोकतंत्र के इन आधार स्तंभों के बीच मतभेद गहराने लगे हैं। जो कभी आपसी टकराव के रूप में तब्दील हो जाते हैं। यह स्थिति निश्चित रूप से चिंतनीय है। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में तमिलनाडु के राज्यपाल को निदेर्शित किया था ेिक वे विधानसभा द्वारा पारित किसी भी विधेयक को लंबे समय तक लटकाकर नहीं रख सकते। उन्हें तीन महीने के भीतर इस पर निर्णय ले लेना चाहिए।
या तो वे विधानसभा से पारित विधेयक को निर्धारित समय सीमा के भीतर मंजूरी दें या फिर उसे खारिज कर दें। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले में संविधान के अनुच्छेद 201 का उल्लेख करते हुए कहा गया था कि राष्ट्रपति को भी ऐसे विधेयक को समय सीमा से ज्यादा वक्त तक लटकाए रखने का पॉकेट विटो नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद ही न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच असहज स्थिति निर्मित हो गई।
खासतौर पर उस समय टकराव की स्थिति भी बन गई,जब उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर यह कड़ी टिप्पणी कर दी कि सुपर संसद की तरह काम कर रहे हैं न्यायाधीश किसी को भी राष्ट्रपति को आदेश देने का अधिकार नहीं है। क्योंकि भारतीय संविधान के मुताबिक राष्ट्रपति का स्थान सबसे ऊंचा है। जगदीप धनखड़ के इस बयान के बाद विपक्ष के नेताओं ने उपराष्ट्रपति पर और केन्द्र सरकार पर निशाना साधना शुरू कर दिया है।
कांग्रेस के राष्ट्रपति प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर उपराष्ट्रपति द्वारा की गई टिप्पणी दुर्भाग्यजनक है। वहीं समाजवादी पार्टी से राज्यसभा सदस्य बने प्रसिद्ध वकील कपिल सिब्बल ने भी उपराष्ट्रपति के बयान पर आपत्ति जताई है और सुप्रीम कोर्ट को सुप्रीम पावर करार दिया है। इसके साथ ही कौन बड़ा होता है, इसे लेकर बहस छिड़ गई है। कोई संविधान को सर्वोपरि बताता है तो कोई संसद को सबसे बड़ा कह रहा है तो कोई न्यायपालिका को सबसे ऊपर करार दे रहा है। हकीकत तो यह है कि किसी भी लोकतांत्रिक देश में लोक अर्थात् सर्वशक्तिमान होती है।
जो अपने मताधिकार से सरकार बनाती है और अपने वोट के पावर से ही समय आने पर उस सरकार को सत्ता से बाहर दिखाने की भी ताकत रखती है। देश की जनता द्वारा चुनी गई संसद कानून बनाती है और उसे लागू करवाना न्यायपालिका का काम होता है लेकिन जब इनके बीच किसी मामले को लेकर मतभेद उभरते हैं तो अप्रिय स्थिति निर्मित हो जाती है। लोकतंत्र के तीनों पायों के बीच संतुलन बना रहना चाहिए तभी भारतीय लोकतंत्र मजबूत होगा। यदि इनमे ं से एक भी पाया कमजोर पड़ा या उन पायों के बीच टकराव हुआ तो लोकतंत्र खतरे में पड़ सकता है।
इसलिए बेहतर यह होगा कि लोकतंत्र के हित में कार्य पालिका और न्यायपालिका के बीच सामंजस्य बनाने के प्रयास किये जाए। ताकि भारतीय लोकतंत्र सुदृढ़ बना रह पाए। उम्मीद की जानी चाहिए कि उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के बयान के बाद हो रहे बवाल को खत्म करने के लिए विपक्षी पार्टियों के नेता संयम का परिचय दें और इय बयान को लेकर अनर्गल टीका-टिप्पणी करने से परहेज करें।
उपराष्ट्रपति का पद भी देश में राष्ट्रपति के बाद दूसरा सबसे बड़ा पद कहलाता है। इस पद की गरिमा का विपक्षी नेताओं को ध्यान रखना चाहिए और उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने जो कहा है, उसमें छिपी उनकी चिंता को समझना चाहिए। तभी आपसी टकराव की नौबत नहीं आएगी। अन्यथा इससे भारतीय लोकतंत्र दुनिया में मजाक का विषय बन जाएगा।