संपादकीय: एक देश एक चुनाव को लेकर रार

संपादकीय: एक देश एक चुनाव को लेकर रार

Ruckus over one country one election

Ruckus over one country one election: संसद के शीतकालीन सत्र में एक देश एक चुनाव विधेयक पेश किया गया था। जिसे संसदीय समिति को भेज दिया गया था। इस संसदीय समिति की पहली बैठक 8 जनवरी को होने जा रही है। जिसमें लोकसभा और देश के सभी राज्यों के विधानसभाओं में एक साथ चुनाव कराने के प्रस्ताव पर चर्चा की जाएगी।

किन्तु एक देश एक चुनाव के मुद्दे को लेकर सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच रार ठनी हुई है। कांग्रेस सहित आईएनडीआई में शामिल सभी राजनीतिक दलों के नेता एक देश एक चुनाव के विधेयक का विरोध कर रहे हैं। संसद के शीतकालीन सत्र में भी विपक्ष ने इसका जमकर विरोध किया था। ऐसी स्थिति में संसदीय समिति के लिए विपक्षी पार्टियों को इस विधेयक के लिए सहमत करना आसान नहीं होगा।

वैसे इस समिति में अब सदस्यों की संख्या 31 से बढ़ाकर 39 कर दी गई है। ताकि सभी राजनीतिक पार्टियों को इसमें प्रतिनिधित्व मिल सके। भाजपा सांसद पी.पी. चौधरी संसदीय समिति के अध्यक्ष बनाए गए है और उनके लिए इस विधेयक पर सर्वसमत्ति कायम करना। अग्नि परीक्षा से कम नहीं है। गौरतलब है कि एक देश एक चुनाव विधेयक को संसद से पारित कराने के लिए दो तिहाई बहुमत की आवश्यकता होगी। इसके अलावा देश के सभी राज्यों में से कम से कम 50 प्रतिशत राज्यों की सहमति भी इसके लिए जरूरी है।

ऐसी स्थिति में एक देश एक चुनाव की राह आसान नहीं है। कम से कम 2029 में होने वाले लोकसभा चुनाव के साथ सभी राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाने की संभावना नजर नहीं आ रही हैं। इसकी एक बड़ी वजह तो यह है कि अभी सरकार को पहले जनगणनना करानी है और उसके बाद लोकसभा सीटों का नए सीरे से परिशिमन कराना है।

साथ ही संसद के पिछले सत्र में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने का जो विधेयक पारित हुआ है उसे भी अमलीजामा पहनाना है। इन कामों में ही पांच साल का समय लग जाएगा। इसलिए एक देश एक चुनाव की परिकल्पना 2034 में ही लागू हो पाएगी। वह भी तब जबकि सभी राजनीतिक पार्टियां इसके लिए सहमत हो। किन्तु विपक्षी पार्टियों के रूख को देखते हुए यह काम कतई आसान नहीं है।

खास तौर पर क्षेत्रिय पार्टियों का समर्थन जूटा पाना ढेड़ीखीर साबित होगा। राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी, तृणमुल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी के अलावा तमाम क्षेत्रिय पार्टियां एक देश एक चुनाव का प्रबल विरोध कर रही हैं। उनका आरोप है कि एक देश एक चुनाव होने से क्षेत्रिय पार्टी का अस्तीत्व संकट में पड़ जाएगा। जबकि सच्चाई यह है कि इससे क्षेत्रिय पार्टियों के लिए कोई दिक्कत पेश नहीं आएगी।

पिछले लोकसभा चुनाव के साथ ही उड़ीसा और आंध्र प्रदेश के भी चुनाव हुए थे और वे पिछले कई दशकों से एक साथ होते रहे हैं। लेकिन इससे उड़ीसा की क्षेत्रिय पार्टी बीजू जनता दल और तमिलनाडू की सत्तारूढ़ पार्टी को कोई फर्क नहीं पड़ा है। इसलिए क्षेत्रिय पार्टियों की संख्या निर्मुल है। यह बात क्षेत्रिय पार्टियों को समझानी होगी और उन्हें विश्वास में लेना पड़ेगा। तभी यह बेल मुंढेर चढ़ पाएगी। रही बात प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस की तो उसे भी सहमत करने के लिए सत्तापक्ष को बहुत पापड़ बेलना पड़ेंगे। वैसे आजादी के बाद से 1967 तक एक देश एक चुनाव होते रहे हैं।

लोकसभा के साथ ही देश की सभी विधानसभाओं के लिए एक साथ मतदान होता रहा है। किन्तु बाद में कुछ राज्य सरकारों को समय से पूर्व भंग किए जाने के कारण एक देश एक चुनाव की परंपरा टूट गई थी। कहने का तात्पर्य यह है कि एक देश एक चुनाव संविधान सम्मत है। इसलिए इस प्रस्तावित कानून को संविधान की मूल भावना के विपरित बताना सिर्फ राजनीति प्रेरित आरोप है। एक देश एक चुनाव निश्चित रूप से देश के हित में है। क्योंकि इससे बार-बार चुनाव पर होने वाले भारी भरकम खर्च से बचा जा सकेगा और यह हजारों करोड़ रुपए देश के विकास में खर्च होंगे।

वर्तमान में बार-बार चुनाव होने से न सिर्फ खर्च बढ़ता है बल्कि चुनाव के कारण बार-बार आचार संहिता लागू होने की वजह से विकास कार्यों पर भी विराम लगता है। हर दो चार माह में कहीं न कहीं चुनाव होने से प्रशासनिक अव्यवस्था भी फैलती है। खास तौर पर छात्रों का भविष्य अंधकार मय होता है।

क्योंकि चुनावओं में सबसे ज्यादा शिक्षा विभाग के कर्मचारियों की ड्यूटी लगाई जाती है और स्कूलों को ही मतदान केन्द्र बनाया जाता है। जिससे विद्यार्थियों की पढ़ाई प्रभावित होती है। इन तमाम समस्याओं को देखते हुए एक देश एक चुनाव की परिकल्पना को जल्द-जल्द साकार करना देशहित में है। इसके लिए केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार संकल्पित है। बस उसके लिए इस पर आम सहमति बनाना ही चुनौतीपूर्ण कार्य है।

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