28th Foundation Day : चुनिंदा और एकतरफा मानवाधिकार के खतरे... |

28th Foundation Day : चुनिंदा और एकतरफा मानवाधिकार के खतरे…

28th Foundation Day: Selective and unilateral human rights threats...

28th Foundation Day

डॉ. ओ.पी. त्रिपाठी। 28th Foundation Day : बीती 12 अक्तूबर को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का 28वां स्थापना दिवस था। इस अवसर पर अपने सम्बोधन में प्रधानमंत्री मोदी ने मानवाधिकार पर दोगले आचरण को लोकतंत्र के लिए नुकसानदायक क्या माना कि कांग्रेस ने अतीत के मानवाधिकार उल्लंघनों का पिटारा ही खोल दिया और यहां तक टिप्पणी की कि प्रधानमंत्री को खुद के दोगलेपन पर शर्म आनी चाहिए। कितनी बौखलाहट और खीझ है कांग्रेस के भीतर?

बुनियादी मुद्दा मानवाधिकार का है, जो संविधान देश के आम नागरिक को भी प्रदान करता है, लेकिन यह ताकत और मौलिक अधिकार सिर्फ किताबी है। आम आदमी जिंदगी के लिए जद्दोजहद करेगा या मानवाधिकार की लड़ाई के लिए अदालतों में धक्के खाता रहेगा? अहम सवाल यह भी है। ऐसा भी नहीं है कि ये सवाल कोई नया है। देश की आजादी के समय से ही देश में चुनी हुई चुप्पियां और चुना हुआ विरोध व्यवस्था का हिस्सा रहा है। प्रधानमंत्री ने तो बस विपक्ष और चुनिंदा विरोध करने वाली जमात को आईना भर दिखाने का काम किया है।

वर्तमान समय में देश में जिस तरह का माहौल आए दिन देखने को मिलता है ऐसे में मानवाधिकार और इससे जुड़े आयामों पर चर्चा महत्त्वपूर्ण हो जाती है। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने उद्बोधन में कहा, मानवाधिकारों का बहुत ज्यादा हनन तब होता है जब उसे राजनीतिक रंग दिया जाता है, राजनीतिक चश्मे से देखा जाता है, राजनीतिक नफा-नुकसान के तराजू से तौला जाता है।

इस तरह का चुनिंदा व्यवहार, लोकतंत्र के लिए भी उतना ही नुकसानदायक होता है। उन्होंने कहा कि एक ही प्रकार की किसी घटना में कुछ लोगों को मानवाधिकार का हनन दिखता है और वैसी ही किसी दूसरी घटना में उन्हीं लोगों को मानवाधिकार (28th Foundation Day) का हनन नहीं दिखता। देखा जाए तो आजादी के बाद अब तक ऐसे असंख्य मामले गिनाये जा सकते हैं जिसमें एकतरफा और चुनिंदा मानवाधिकार का शोर-शराबा इस देश में मचाया गया।

मौजूदा संदर्भ उप्र के लखीमपुर खीरी का है। वहां चार कथित किसानों को वाहनों से कुचल कर मार दिया गया, लेकिन भाजपा के चार कार्यकर्ताओं की भी पीट-पीट कर हत्या कर दी गई। पत्रकार रमन कश्यप भी उस हिंसा का शिकार हुए और जिंदगी खो बैठे। इस कांड को लेकर कांग्रेस और सपा सबसे अधिक आक्रामक और आंदोलित हैं, लेकिन भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्या को ‘क्रिया की प्रतिक्रिया’ करार दिया जा रहा है।

ऐसा क्यों है? क्या सभी नागरिकों के मानवाधिकार एक समान नहीं हैं? भाजपा कार्यकर्ताओं के इंसाफ की लड़ाई क्यों नहीं लड़ी जा रही है? वे कांग्रेस और सपा-बसपा के कार्यकर्ता भी हो सकते थे! साफ लग रहा है कि पूरी राजनीति ‘अछूत भाजपा’ और सिख किसानों के मद्देनजर की जा रही है। प्रधानमंत्री ने इसी ‘चुनिंदा सियासत’ पर अफसोस जताया था और सभी के मानवाधिकार पर चिंता व्यक्त की थी।

उन्होंने मानवाधिकार हनन की ऐतिहासिक घटनाओं को नहीं गिनाया था। 2020 में दिल्ली में हुए दंगे के दौरान भजनपुरा इलाके में भीड़ ने आईबी कर्मी अंकित शर्मा को घेरकर उनकी हत्या कर दी थी। महाराष्ट्र के पालघर में पुलिस की मौजूदगी में साधुओं की हत्या देश भूला नहीं है। मुंबई में अभिनेत्री के साथ महाराष्ट्र सरकार के व्यवहार का मामला भी कोई पुराना नहीं है। अभिनेता सुंशात सिंह राजपूत की मौत के मामले भी बॉलीवुड की चुनिंदा चुप्पी किसी से छिपी नहीं है।

ताजा मामला शाहरूख खान के बेटे का ड्रग्स मामले में गिरफ्तारी का है। शाहरूख खान के बेटे की हिमायत में बॉलीवुड से लेकर राजनेता तक अपने-अपने तर्क देकर उसे मासूम और निर्दोष होने का प्रमाण पत्र देते दिखाई दे रहे हैं। ये वही बॉलीवुड है जिसने न तो सुशांत सिंह की मौत के बारे में मुंह खोला और न ही कंगना के साथ हुई दुव्र्यवहार के समय उसका मौन टूटा। मानवाधिकार (28th Foundation Day) का प्रश्न तो सबके लिये समान होना चाहिए, लेकिन हमारे देश में सियासत के हिसाब से मानवाधिकार का रोना गाना गाया जाता है।

जो पक्ष अंकित शर्मा, पालघर के साधुओं, सुशांत सिंह और कंगना के मामलों में मुंह बंध करके बैठ जाता है। वो पहलू खां से लेकर लखीमपुर खीरी तक की घटनाओं पर जोर-जोर से छाती पीटता दिखाई देता है। प्रधानमंत्री ने इसी दोहरे रवैये को अपने उद्बोधन में प्रकट किया था। बीते अगसत में देश की राजधानी नई दिल्ली के नांगल गांव में नाबालिग बच्ची की कथित रेप के बाद हत्या के मामले में पीडि़त परिवार न्याय की मांग कर रहा था। जिस जगह पर पीडि़त परिवार विरोध कर रहा है, वहां कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी भी पहुंचे।

भाजपा के नेता संबित पात्रा ने राहुल गांधी पर मामले में राजनीति करने का आरोप लगाते हुए कहा था कि, ‘रेप के मामलों में अगर राजनीति करने की कोशिश की जाए तो यह राजनीति का सबसे न्यूनतम स्तर होता है, विषय को आगे बढ़ाए इसपर कोई आपत्ति नहीं, मगर सिलेक्टिव होकर किसी राज्य में हुए रेप पर विषय पर चिंता प्रकट करना और किसी राज्य में नहीं करना, यह देखते हुए कि किस राज्य में किसकी सरकार है, यह भी अपने आप में जघन्य अपराध है, रेप होता है, चाहे दिल्ली में हो चाहे राजस्थान में चाहे छत्तीसगढ़ में या फिर चाहे महाराष्ट्र में, अगर इसमें किसी प्रकार का मतभेद किया जाए कि कांग्रेस शासित राज्य के बलात्कार के विषय में और वहां जो राजस्थान छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में दलित बच्चियों हैं वहां की चिंता नहीं करेंगे लेकिन दिल्ली की चिंता करेंगे तो मन में सवाल तकलीफ होती है और कुछ सवाल भी जगता है।’

इसमें कोई दो राय न हीं है कि राजस्थान, छत्तीसगढ़, पंजाब में कांग्रेस की सरकारें और और महाराष्ट्र जहां कांग्रेस सत्ता में शामिल हैं, से मानवाधिकार (28th Foundation Day) उल्लंघन के सैकड़ों मामले प्रकाश में आते रहते हैं। लेकिन कांग्रेस नेताओं और उनके सहयोगियों के मुंह से इन घटनाओं के बारे में एक बात नहीं निकलती। वहां जान और पीडि़तों का दुख बांटना तो बहुत दूर की बात है।

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