आलोक मेहता। Republic day : गणतंत्र दिवस पर तोपों की सलामी के साथ वायु सेना के विमानों से तिरंगों की शान आकाश से जमीन तक गौरव बढ़ाने जा रही है । सात दशकों में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में क्षेत्रीय दलों का प्रभुत्व अधिक दिखने लगा है । आज़ादी और संविधान निर्माण के दौरान स्वतंत्रता तथा स्वात्तता की अवधारणा के विकराल स्वरुप दिखने लगे हैं।
अगले महीने होने जा रहे पांच विधान सभाओं के चुनावों में क्षेत्रीय हितों के साथ विभिन्न जातियों और वर्गों के नाम पर कड़ी हो गई पार्टियों, उनकी मांगों , भ्रामक या उत्तेजक वायदों की सूचियां भी बढ़ती जा रही हैं। राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को भी उन कच्ची बैसाखियों का सहारा लेना पढ़ रहा है । गोवा , मणिपुर , उत्तराखंड जैसे छोटे राज्य ही नहीं उत्तर प्रदेश, पंजाब और बंगाल में भी क्षेत्रीय दल अपनी शर्तों पर सौदे कर रहे हैं।
भारतीय सन्दर्भ में गणतंत्र का उल्लेख रामराज्य के रूप में होता है । आदर्श गणतंत्र जहाँ सबको आगे बढऩे और स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अधिकार हो । ऐसा गणतंत्र जिसमें पंच परमेश्वर माने जाते हों । गणतंत्र , जिसमें निर्धनतम व्यक्ति को भी न्याय मिलने का विश्वास हो । गणतंत्र जिसमें जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि शासन व्यवस्था चलकर सामाजिक – आर्थिक हितों की रक्षा करें । भारत के ग्राम पंचायतों की सक्रियता और सफलता की तुलना दुनिया के किसी अन्य लोकतान्त्रिक देश से नहीं हो सकती ।पिछले ।2 वर्षों के दौरान भारतीय गणतंत्र फला फूला है । बड़े बड़े राजनीतिक तूफान झेलने के बावजूद इसकी जड़ें कमजोर नहीं हुई है ।
लोकतंत्र में (Republic day) राजनीतिक शक्ति की धुरी है – राजनीतिक पार्टियां । संगठन को शक्तिशाली बनाने के लिए राष्ट्रीय पार्टी भाजपा या कांग्रेस के लिए शांत स्वाभाव वाले कुशाभाऊ ठाकरे या शंकर दयाल शर्मा जैसे नेताओं का अनुगमन भी लाभदायक हो सकता है । गणतंत्र में चुनाव का महत्व है , लेकिन चुनाव जीतना ही लक्ष्य नहीं हो सकता । 1998 में भाजपा के अध्यक्ष बनने के बाद एक इंटरव्यू के दौरान कुशाभाऊ ठाकरे ने मुझसे कहा था कि राजनीति एक मिशन है । राजनीतिक दल केवल चुनाव जीतने या पद पाने के लिए नहीं होनी चाहिए । संगठन को समाज और राष्ट्र के हितों के लिए मजबूत करना हमारा लक्ष्य रहना चाहिए ।
सत्ता में आने पर राजनीतिक दलों कई के नेता कार्यकर्ता कुछ अहंकार और कुछ पदों और लाभ की जोड़ तोड़ में लग जाते हैं । जनता के अलावा उनकी अपेक्षाएं भी बढ़ जाती हैं । इसी वजह से धीरे धीरे राज्यों में कांग्रेस या भाजपा की शक्ति कमजोर हुई है । गणतंत्र में मीठे फल सब खाना चाहते है , लेकिन फल फूल देने वाले पेड़ों की चिंता कम लोगों को रहती है । लोकतंत्र पर गौरव करने वाले कुछ पार्टियों के नेता अपने संगठन के स्वरुप को ही अलोकतांत्रिक बनाते जा रहे हैं ।
संविधान , नियम कानून , चुनाव आयोग के मानदंडों के रहते हुए राजनीतिक दलों को ही खोखला किया जा रहा है । हाल के वर्षों में तो यह देखने को मिल रहा है कि कुछ नेता अपनी ही पार्टी के समकक्ष नेताओ को नीचे दिखाने , हरवाने , उनके बारे में अफवाहें फ़ैलाने का काम करने लगते हैं । अपने परिजनों या प्रिय जनों को सत्ता में महत्वपूर्ण कुर्सी नहीं मिलने पर बगावत कर देते हैं । विचारधारा का नाम लिया जाता है , लेकिन बिल्कुल विपरीत विचार वाले दल के साथ समझौता कर लेते हैं । कार्यकर्ता और जनता की भावना से कोई मतलब नहीं रहता ।
यों यह बात नई नहीं है । बहुत से लोग वर्तमान स्थिति से निराश होकर चिंता व्यक्त करते हैं । उनके लिए मैं एक पत्र की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूँ। पत्र में लिखा था मैं शिद्धत से महसूस कर रहा हूँ कि कांग्रेस मंत्रिमंडल बहुत अक्षम तरीके से काम कर रहे हैं । हमने जनता के मन में जो जगह बनाई थी , वह आधार खिसक रहा है । राजनेताओं का चरित्र अवसरवादी हो रहा है । उनके दिमाग में पार्टी के झगड़ों का फितूर है ।वे इस व्यक्ति या उस गुट को कुचलने की सोच में लगे रहते हैं । यह पत्र आज के कांग्रेसी का नहीं है । यह पत्र महात्मा गाँधी ने 28 अप्रैल 1938 को लिखा और नेहरू को भेजा था , जब राज्यों में अंतरिम देशी सरकारें बनी थी ।
फिर नवम्बर 1938 में गांधीजी ने अपने अख़बार हरिजन में लिखा – यदि कांग्रेस में गलत तत्वों की सफाई नहीं होती तो इसकी शक्ति ख़त्म हो जाएगी मई 1939 में गाँधी सेवा संघ के कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए महात्माजी ने बहुत दुखी मन से कहा था मैं समूची कांग्रेस पार्टी का दाह संस्कार कर देना अच्छा समझूंगा , बजाय इसके कि इसमें व्याप्त भ्ष्र्टाचार को सहना पड़े ।
शायद उस समय के नेताओं पर गाँधीजी की बातों का असर हुआ होगा, लेकिन क्या आज वही या अन्य पार्टियां भी उस विचार आदर्श से काम कर रही हैं केवल फोटो लगाने या मूर्ति लगाकर पूजा करने से पार्टी , सरकार या देश का कल्याण हो सकता है ? लोकतंत्र में असहमतियों को सुनने – समझने और गल्तियों को सुधारते हुए पार्टी , सरकार और समाज के हितों की रक्षा हो सकती है । राजनीतिक व्यवस्था सँभालने वालों को आत्म निरीक्षण कर अपने दलगत ढांचे में लोकतान्त्रिक बदलाव का संकल्प गणतंत्र दिवस के पर्व पर करना चाहिए ।
लोकतंत्र की मजबूती के लिए उन्माद नहीं सही मुद्दों और समाज को जागरूक एवं शिक्षित करने की जरुरत होती है । इन दिनों तो विभिन्न राज्यों में प्रतिपक्ष के नेता गलत जानकारी और भय का वातावरण बनाकर जनता को भ्रमित करते दिख रहे हैं। संविधान निर्माता डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने स्पष्ट शब्दों में कहा था बिना चरित्र और बिना विनम्रता के शिक्षित राजनीतिक व्यक्ति जानवर से ज्यादा खतरनाक है। यह समाज के लिए अभिशाप होगा।
क्षेत्रीय हितों की रक्षा के लिए आवाज उठाना उचित है , लेकिन उसके नाम पर सत्ता में आने के बाद केंद्र की सरकार से निरंतर टकराव की नीति से प्रदेशों का सामाजिक आर्थिक विकास कैसे संभव होगा ? संविधान निर्माताओं ने कभी कल्पना नहीं की होगी कि स्वायत्तता के नाम पर प्रादेशिक सरकारें कानून व्यवस्था की केन्दीय एजेंसियों को अंगूठा दिखाने लगेंगी , शिक्षा के मामले में मनमाने पाठ्यक्रम लादने लगेंगीं , जाति और धर्म के नाम पर स्वयं उन्माद पैदा करने लगेगीं ।
जिम्मेदारी राष्ट्रीय पार्टियों की भी है कि वे स्वयं क्षेत्रीय आकांक्षाओं को ध्यान में रखकर क्षेत्रीय नेतृत्व को तैयार करे और उन्हें मजबूत भी करे। दु:ख तब होता है जब गलत व्यक्ति चुने जाने पर कुछ नेता जनता को दोषी ठहराने लगते हैं। वास्तव में उन्हें अपने काम , पार्टी को सही दिशा के साथ जनता के बीच सक्रिय रखना होगा। तभी उन्हें लोकतंत्र (Republic day) के पर्व को मनाने का लाभ मिलेगा।
( लेखक आईटीवी नेटवर्क – इंडिया न्यूज़ और दैनिक आज समाज के सम्पादकीय निदेशक हैं )