कोरोना वैश्विक महामारी (Corona global epidemic) के चलते दुनिया (world) भर की अर्थव्यवस्था धराशायी (Economy Dashed) होने के कगार पर है इससे भारत(india) भी अछूता नहीं है। वर्तमान अनिश्चितता भरे वातावरण में देश और दुनिया भर के सरकारों के लिए अर्थव्यवस्था को पटरी में लाना अहम चुनौती है। जब देश में औद्योगिक गतिविधियां ठप्प पड़ गयी है तब छत्तीसगढ़ गांवों के बरास्ते आर्थिक विकास के नये दरवाजे खोल रही है।
आपदा को अवसर में बदलने के लिए प्रदेश के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने हाल ही में “गोधन न्याय योजना” का क्रांतिकारी आगाज किया है। यह देश की पहली ऐसी योजना है जिसके अंतर्गत सरकार पशुपालकों से दो रुपये प्रति किलो की दर से गोबर खरीदेगी जिससे वर्मी कंपोस्ट खाद बनाने के बाद आठ रुपये किलो में किसानों को बेचा जाएगा। इस योजना से ग्रामीणों को रोजगार और आय के साधन के साथ जैविक खेती, गौपालन को प्रोत्साहन मिलेगा वहीं गोबर प्रबंधन व पर्यावरण संरक्षण में सहायता मिलेगा।
गौरतलब है कि भूपेश बघेल के नेतृत्व वाली सरकार ने गांवों और किसानों को विकास के मुख्यधारा में लाने का जतन सत्ता के शुरुआती दिनों से ही कर दिया था। “नरवा, गरवा, घुरवा, बारी”, “राजीव गांधी किसान योजना”, 2500 रूपये क्विंटल धान खरीदी और बोनस गांवों और किसानों के तकदीर बदलने में मील का पत्थर साबित हुआ है। निःसंदेह पूरे देश का ध्यान छत्तीसगढ़ के किसान कल्याणकारी योजनाओं ने खींचा है।
यदि ये योजनाएं कारगर होती हैं तो यह खेती यानि नुकसान का सौदा मिथक को तोड़ने में कारगर होगी तथा नयी पीढ़ी खेती की ओर वापस लौटेगी।इन परिस्थितियों में जरूरत इन योजनाओं के प्रतिबद्ध क्रियान्वयन की है। विचारणीय है कि देश – विदेश के अनेक अर्थशास्त्रियों का मानना है कि कोरोना वैश्विक महामारी के कारण अनिश्चित लाॅकडाउन और आर्थिक मंदी के चलते भारत में गरीबी बढेगी जिसका सबसे ज्यादा विपरीत असर ग्रामीण आबादी पर पड़ेगा।
हालांकि अनेक कृषि वैज्ञानिक और शोधकर्ता इस तथ्य पर इत्तेफाक नहीं रखते हैं उनका मानना है कि कृषि प्रधान भारत में कृषि से संबंधित रोजगार और बंफर खाद्यान्न उत्पादन देश के आर्थिक हालात को बहुत हद तक संभाल सकता है। इनका मानना है कि भविष्य में खाद्यान्न संकट नहीं रहेगा क्योंकि अभी भी देश अपनी जरूरत से लगभग सात करोड़ टन ज्यादा खाद्यान्न उत्पादन कर रहा है।
लाॅकडाउन के कारण महानगरों और शहरों से प्रवासी मजदूरों के वापसी से उनका भी श्रम संसाधन गांवों को मिलेगा जिससे खाद्यान्न उत्पादन में बढ़ोत्तरी होगी। दूसरी ओर जो प्रवासी मजदूर गांव वापस हो रहे हैं वे अनेक क्षेत्रों में कुशल – अर्धकुशल और तकनीकी दक्ष हैं और उन्हें थोड़ा – बहुत बाजार का भी अनुभव है ऐसी स्थिति में इन मजदूरों व कर्मचारियों के अनुभव और कौशल का भी लाभ गांवों को मिलेगा।
उपरोक्त के परिप्रेक्ष्य यह भी साबित हो रहा है कि छत्तीसगढ़ में ग्रामीण अर्थव्यवस्था की मजबूती देने का प्रयास महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज और ग्रामीण विकास की अवधारणा पर ही निर्भर है।दरअसल गांधी ने देश की आजादी के बाद से ही ग्रामीण संस्कृति पर आधारित भारतीय समाज बनाने पर जोर दिया था। गांधी का मानना था कि भारत की आत्मा शहरों में नहीं बल्कि सात लाख गांवों में वास करती है वे भारत को गांवों का गणराज्य मानते थे। उनका मानना था कि गांवों की आत्मनिर्भरता से ही देश की आत्मनिर्भरता संभव है।
दरअसल गांधी का अर्थशास्त्र स्वदेशी, ग्रामीण आत्मनिर्भरता, बड़े उद्योगों के बजाय कुटीर और छोटे उद्योगों को बढावा, उद्योगों में मशीनों की बजाय श्रम का इस्तेमाल था। उनका मानना था कि उद्योगों का जाल केवल महानगरों और बड़े शहरों में ही नहीं बिछे बल्कि इनकी पहुंच छोटे शहरों, कस्बाई इलाकों और गांवों तक होनी चाहिए ताकि गांवों के मजदूर इन कारखानों में मजदूरी के बाद अपने गांव वापस लौट सकें।
वस्तुतः गांधी के गांवों के विकास पर जोर देने का अहम कारण देश की अधिकांश आबादी का गांवों में रहना और उनमें सत्य और अहिंसा का स्वभाविक आचरण नीहित होना था, हालांकि गांधी का यह मिथक अब बड़ी तेजी से टूटने लगा है। बहुत बड़ी ग्रामीण आबादी अब रोजगार के लिए महानगरों और बड़े शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं तथा शहरों की नशाखोरी जैसी अपसंस्कृति और अपराध ने ग्रामीण संस्कृति के तााने – बाने को छिन्न – भिन्न कर दिया है। गांव विकास की दौड़ में पिछड़ने लगे हैं बेशक इसके पृष्ठभूमि में राजनीतिक और सामाजिक बदलाव है।
गौरतलब है कि वर्तमान लाॅकडाउन के दौर में जब देश और दुनिया के लोग घरों में बंद हैं और भारी-भरकम कल – कारखानों में तालाबंदी चल रहा हो तब खेेती और गांव ही लोगों को राहत पहुंचा सकते हैं। वैदिक काल से ही हमारे देश में गांवों और खेती को महत्व मिलते रहाहै। भले ही देश की जीडीपी में कृषि का योगदान महज 17 फीसदी है लेकिन यह 60 फीसदी लोगों का रोजगार प्रदाता है। विडंबना है कि नब्बे के दशक से जारी आर्थिक उदारीकरण के बयार के चलते बेतरतीब शहरीकरण और अंधाधुंध औद्योगिकीकरण ने लाखों हेक्टेयर खेतों और सैकड़ों गांवों की बलि ले ली और गांव बेरौनक होते चलेे गए छत्तीसगढ़ भी इससे अछूता नहीं है।
वक्त ने करवट ली है कोरोना महामारी के इस दौर में में अब गांवों के रौनक होने की फिर से आस बंधी है। दरअसल खेती को नुकसान का सौदा जैसे मिथक को तोड़ने के लिए इसे साल भर रोजगार मुहैया कराने लायक व्यवस्था बनाना आज की अनिवार्यता है। कोरोना महामारी के कारण दुनिया भर के लोगों का रूझान अब शाकाहार और हर्बल उत्पादों की ओर बढ़ रहा है। इस लिहाज से खेती के साथ – साथ इससे जुड़े अन्य कार्य जैसे सब्जियों, फल व फूलों की खेती और जड़ी – बूटियों की खेती को प्रोत्साहित करना होगा।
इसके अलावा अब देश में 1965 में खाद्यान्न उत्पादन के लिए लागू “हरित क्रांति ” 1970 में दूध उत्पादन के लिए लागू “श्वेत क्रांति” और 1985 में मछली और झींगा पालन के लिए लागू “नीली क्रांति” को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी। आज के दौर में “औद्योगिक क्रांति” के मद्धिम होती मशाल की जगह यह क्राांति ले सकती है।
गांवों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए मछली पालन, कुक्कुट पालन, डेयरी, मधुमक्खी पालन, कोसा व बुनकर व्यवसाय सहित वर्तमान मांग और मजदूरों की उपलब्धता के अनुरूप अनेक कुटीर उद्योग जैसे सैनेटाइजर और माॅस्क निर्माण, आयुर्वेदिक औषधियों के निर्माण व पैकेजिंग, आटा, बेसन, खाद्य तेल, साबुन, हर्बल शैम्पू, शहद, अगरबत्ती, मोमबत्ती, जूट, रद्दी और पुटठे से झोला, लिफाफा और डिब्बा निर्माण, कागज और पत्तों से डिस्पोजेबल थाली – कटोरी निर्माण, मिट्टी, काष्ठ और लौह शिल्प गांवों के आर्थिक विकास और ग्रामीणों को नियमित रोजगार दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
इसके अलावा कुशल और अर्धकुशल प्रवासी मजदूरों के अनुभव और दक्षता के दृष्टिगत गावों और कस्बाई इलाकों में तार व कील कारखाने और सीमेंट पोल निर्माण की ईकाईयां भी स्थापित की जा सकती है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कृषिकार्य को मनरेगा से जोड़ने गांवों में रोजगार की स्थिति बेहतर हो सकती है। बहरहाल गांवों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए खेती में आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल के साथ – साथ बुनियादी सुविधाओं जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, शुद्ध पेयजल, कृषि और कुटीर उद्योगों के लिए बिजली और पानी की उपलब्धता सुनिश्चित करनी होगी। इसके अलावा किसानों और ग्रामीणों के उत्पादन के माकूल भंडारण और परिवहन सुनिश्चित करना होगा। इन उपायों से ही गांवों की दशा और दिशा सुधरेगी और विकास काा नया सूूरज निकलेेगा।
(लेखक शासकीय आयुर्वेद कालेज रायपुर में सहायक प्राध्यापक हैं।)