कोरोना काल (Corona era) के इस त्रासदी (Tragedy) भरे दौर में महानगरों और शहरों (Metros and cities) से अपने घरों (Own homes) की ओर लौटे प्रवासी मजदूरों (Returned migrant laborers) की मुसीबत कम होने का नाम ही नहीं ले रही है। लॉकडाउन के शुरूआती दिनों में जब इन मजदूरों के हाथों से रोजी छीन गयी और उनके सामने भविष्य का अंधियारा छाने लगा तब उनके सामने घर वापसी के विवशता के अलावा कोई और रास्ता शेष नहीं था।
अफरा-तफरी के इस दौर में सरकार के तमाम दावों के बावजूद इनके दिक्कतों को दूर करने के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं हुए फलस्वरूप हजारों मजदूरों ने सैकड़ों – हजारों मील का सफर पैदल चलने के लिए ठान लिया, हालांकि यह पैदल सफर दर्जनों मजदूरों के लिए जानलेवा भी साबित हुआ । राष्ट्रीय राजमार्गों और अन्य सड़कों पर बुजुर्गों, महिलाओं, बच्चों के पैदल मार्च की तस्वीरों ने देश और दुनिया के मीडिया में हलचल मचा दिया।
इस हलचल के बाद देश का सियासत गर्म हो गया और सरकार ने इन मजदूरों के घर वापसी के लिए विशेष रेलगाड़ी चलाने का फैसला किया। बहरहाल ये मजदूर जैसे – तैसे अपने गांव और घर पहुंच गए और उन्हें कोरोना संक्रमण के रोकथाम के मद्देनजर 14 दिनों के लिए सरकारी स्कूलों और अन्य ईमारतों में क्वारंटाइन किया गया। इस बीच मीडिया में देश भर के कोरंटाइन सेंटर की बदहाली की तस्वीर सामने आने लगी जो बेहद अमानवीय और चिंताजनक है।
भीषण गर्मी और मच्छरों के बीच जिन भवनों में इन मजदूरों को ठहराया गया है वहाँ बुनियादी सुविधाओं जैसे साफ पेयजल, शौचालय, बिजली – पानी, नाश्ता – भोजन, साफ-सफाई, बिस्तर, चिकित्सा व्यवस्था व जांच व सुरक्षा का नितांत आभाव है। देश के अनेक हिस्सों से मिल रहे खबरों की मानें तो इन कोरंटाइन सेंटर में एक एक कमरों में दर्जनों मजदूरों को रखा गया है जहां न तो सोशल या फिजीकल डिस्टेंसिंग एवं अन्य संक्रमण रोधी व्यवस्थाओं का पालन हो रहा है और न ही वहाँ सैनैटायजिंग की व्यवस्था है फलस्वरूप इन केंद्रों में मजदूरों के बीच कोरोना संक्रमण का खतरा लगातार बढ़ रहा है।
कोरंटाइन सेंटर में उचित चिकित्सा व्यवस्था उपलब्ध होने के कारण मजदूरों के अनेक बीमारियों से पीडि़त होने या मौत कीी खबरें भी है ।देश के कई राज्यों से मीडिया ने यह अत्यंत अमानवीय खबरें दिखाया है कि अनेक सेंटर में मजदूरों को पानी पीने और शौचालय उपयोग के लिए एक ही मग्गे या गिलास दिया गया है। हालांकि कोरंटाइन सेंटर और मजदूरों के आड़ में देश में राजनीति काफी तेज है इसलिए सभी खबरों को सच नहीं माना जा सकता अनेक खबरें और आरोप राजनीति प्रेरित भी हो सकती हैं। विचारणीय है कि कोरोना काल में प्रवासी मजदूरों के नाम पर जारी राजनीति के बीच मजदूूर इस सियासी चूल्हे की जलाऊ अंगीठी ही साबित हो रहेे हैं मजदूरों के दशा और दिशा में आशातीत सुधार परिलक्षित नहीं हो रहाा है।
बहरहाल देश और प्रदेश में कोरोना संक्रमण के बढ़ते मामलों में प्रवासी मजदूरों के चिंताजनक आंकड़ों ने सरकार के पेशानी पर बल ला दिया है। प्रवासी मजदूरों के भारी संख्या में कोरोना संक्रमित होने के बाद उनके खुद के समाज, ग्रामवासियों और परिजनों द्वारा इन प्रवासी मजदूरों को कोरोना संक्रमण का संवाहक माना जाने लगा है।ग्रामीण इन प्रवासी मजदूरों को गांवों में घुसने नहीं दे रहे हैं। आलम यह है कि इन मजदूरों के साथ अस्पृश्यतापूर्ण और तिरस्कारपूर्ण व्यवहार किया जा रहा है। उपरोक्त परिस्थितियों में यह कहा जा सकता है कि कोरोना दुनिया भर के जनजीवन और आर्थिक व्यवस्था में जबरदस्त प्रतिकूल प्रभाव डालने के साथ ही सामाजिक असमानता की खाई को भी बढ़ाया है।
सोशल और फिजीकल डिस्टेंसिंग की व्यवस्था ने छुआछूत जैसी कुप्रथा का फिर से याद दिला दिया है हालांकि इस व्यवस्था के मूल में कोरोना संक्रमण का प्रभावी रोकथाम है लेकिन समाज में इसका विकृत स्वरूप सामने आ रहा है। लॉकडाउन के बाद जब शहरों की चकाचौंध इन मजदूरों के आंखों के सामने अंधियारे में बदल गयी तब ये मजदूर जिंदगी की तलाश और अपने परिजनों के संबल की तलाश में गांव की ओर लौटे लेकिन दुर्भाग्य ने यहाँ भी उनका साथ नहीं छोड़ा। अपने ही घर में बेगाने और तिरस्कृत मजदूर अब मानसिक रूप से बुरी तरह से टूट रहे हैं।
इससे बड़ी विडंबना है क्या होगी कि मीडिया ने देश के भीतर ही अपने ही घर और गांव लौटने वाले मजदूरों के आगे “प्रवासी” का तमगा लगा दिया। गौरतलब है कि आपनों का साथ छूटने और अंधकारमय भविष्य के चलते ये प्रवासी मजदूर खासकर महिलाएं अवसाद, निराशा, चिंता जैसे अनेक मानसिक रोगों का शिकार हो रहे हैं। मानसिक तनाव के कारण जहाँ अनेक मजदूरों के द्वारा खुदकुशी करने की खबरें आ रही है वहीं अनेक गर्भवती महिलाओं को असमय प्रसव और गर्भपात सहित अन्य स्वास्थ्यगत दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है।
दुरूह और भूखे – प्यासे थकान भरे घर वापसी के बाद इन मजदूरों ने अपने प्रदेश की जमीन पर माथा टेक कर यह प्रतिज्ञा की थी कि भले ही अपने घर में आधी पैसा कमाऐंगे आधे पेट खाएंगे लेकिन अब परदेस पलायन नहीं करेंगे, लेकिन प्रवासी मजदूरों का यह भ्रम और प्रतिज्ञा बड़ी तेजी से टूटने लगा है और फिर से पलायन की राह पकड़ रहें हैं। देश में रेलसेवा फिर शुरू होने के बाद रेलवे टिकट काउंटर में पलायन करने वाले मजदूरों की कतार देखी जा सकती है। खबरों के अनुसार मुंबई सहित देश के अनेक औद्योगिक व व्यवसायिक शहरों में पचास हजार से ज्यादा श्रमिकों की वापसी हुयी है।
दरअसल गांवों में इन मजदूर परिवारों के पास खेती की कम भूमि, बड़े परिवार, आय के सीमित साधन, आर्थिक जरूरत, गांवों में दीर्घकालिक रोजगार का आभाव लोगों को गांवों से शहरों की ओर पलायन के लिए मजबूर कर रहा है और यह परंपरा भी बन चुकी है। देश की अर्थव्यवस्था के लिए मजदूरों की वापसी आवश्यक भी है क्योंकि भले ही महानगरों और शहरों के उद्योग – धंधे खुल जाऐं लेकिन यदि इनमें अनुभवी और कुशल मजदूरों का आभाव रहेगा तो इनका संचालन ही मुश्किल है।
बहरहाल प्रवासी मजदूरों के प्रति सरकार और समाज को संवेदनशील होना होगा क्योंकि मजदूर देश के अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के मजबूती में इनका अभूतपूर्व योगदान है। दरअसल किसी भी प्रकार के आपदा से निबटना सरकार के बलबूते तब तक संभव नहीं है जब तक समाज का उसे सहयोग नहीं मिलेगा। आज के त्रासदीदायक दौर में घर लौटे प्रवासी मजदूरों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए जरूरी है कि स्थानीय प्रशासन और ग्रामीण इन मजदूरों के समस्याओं को दूर करने व उन्हें मानसिक संबल प्रदान करने के लिए लिए एकजुट हों।
कोरंटाइन सेंटर में सभी बुनियादी सुविधाओं की व्यवस्था सुनिश्चित कर मजदूरों को सेहतमंद रखने के लिए मनोवैज्ञानिक परामर्श, योग प्रशिक्षक, टेलीविजन व पत्र – पत्रिकाओं, ग्रामीण पारंपरिक खेल और नियमित चिकित्सा परामर्श, आयुर्वेदिक काढ़ा का वितरण सुनिश्चित किया जाए। उपरोक्त व्यवस्थाएं जनभागीदारी और मेडिकल, डेंटल, आयुष, नर्सिंग, मनोविज्ञान व योग पाठ्यक्रम के छात्रों व विभागीय सहयोग से सुनिश्चित किया जा सकता है। मजदूरों के पुनर्वास और रोजगार के लिए रोजगार मार्गदर्शन व कौशल उन्नयन कार्यक्रम संचालित कर इन मजदूरों के मन में भविष्य के रोजगार के लिए व्याप्त चिंताओं और आशंकाओं को काफी हद तक कम किया जा सकता है और उनका भरोसा व्यवस्था के प्रति कायम किया जा सकता है।