डॉ. श्रीनाथ सहाय
महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने तमाम ऐसे मुद्दे उठाये जिनसे उसका नुकसान होना तय है, लेकिन इसके बावजूद वो उसने ऐसे मुद्दे उठाने से रती भर भी संकोच नहीं किया। दोनों राज्यों में वोटिंग हो चुकी है, और अब फैसले का इंतजार है। वर्ष 2014 की तुलना में कम मतदाताओं का घर से निकलना चुनाव विश्लेषकों के लिए विचारणीय बन गया है। दोनों राज्यों में भाजपा सत्तारूढ़ है इसलिए उसके प्रवक्ताओं का कहना है कि चूंकि वहां सत्ता परिवर्तन की कोई भी गुंजाईश नहीं थी इसलिए विपक्ष समर्थक मतदाता उदासीन बना रहा।
चुनाव पूर्व सर्वेक्षण के बाद एग्जिट पोल के नतीजे भी स्पष्ट कर रहे हैं कि दोनों राज्य एक बार फिर की झोली में जा रहे हैं। बीते पांच साल तक सत्ता में रहने के बाद भी यदि भाजपा को मतदाता दोबारा अवसर देने के लिए तैयार नजर आते हैं तब ये उसके सुशासन का परिणाम है या विपक्ष का जन अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पाना, इस पर नए सिरे से बहस चल पड़ी है।
महाराष्ट्र में देवेन्द्र फडनवीस और हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर ने बतौर मुख्यमंत्री अच्छा काम किया ऐसा कहा जाता है। दोनों पर भ्रष्टाचार के आरोप भी नहीं लगे और अपने सामने आई चुनौतियों का सामना भी दोनों ने अच्छी तरह से करते हुए पांच साल तक सरकार चलाई। संयोगवश पार्टी हाईकमान ने भी उनमें विश्वास बनाये रखा जिससे किसी प्रकार की राजनीतिक अनिश्चितता नहीं रही। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि महाराष्ट्र और हरियाणा में रामराज्य आ गया हो जिसमें किसी को किसी भी प्रकार की तकलीफ नहीं रही।
हरियाणा तो भौगोलिक दृष्टि से छोटा सा राज्य है जिसे राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से सटा होने का जबरदस्त फायदा मिलता है लेकिन महाराष्ट्र आकार और आबादी में बहुत बड़ा है। इसलिए वहां का शासन चलाना आसान नहीं था। खास तौर पर जब फडनवीस के साथ सत्ता में भागीदारी कर रही शिवसेना ही उनकी टांग खींचने में कभी पीछे नहीं रही हो।
इसलिए यदि अनुमानों के मुताबिक ही दोनों राज्यों में वर्तमान मुख्यमंत्री दोबारा जनता का भरोसा जीतने में सफल होते हैं तब फिर विपक्ष की नाकामी पर भी ध्यान जाना स्वाभाविक है। चुनाव के दौरान अनेक मतदाता ये कहते सुने गए कि अनुच्छेद 370 हटाने का राज्यों के चुनाव से क्या वास्ता? राहुल गांधी ने भी अपनी सभाओं में यह सवाल उठाया कि प्रधानमन्त्री दोनों राज्यों के संबंध में अप्रासंगिक मुद्दों को उछालकर मतदाताओं का ध्यान अर्थव्यवस्था में आ रही गिरावट, बेरोजगारी और किसानों की समस्याओं से हटाकर राष्ट्रवाद जैसे भावनात्मक मुद्दों के इर्दगिर्द केन्द्रित रखने में लगे रहे।
बात गलत भी नहीं है किन्तु इसी के साथ ये भी स्वीकार करना होगा कि विपक्ष में बैठी कांग्रेस न तो राज्यों की समस्याओं को लेकर मतदाताओं के बीच सत्ता विरोधी रुझान उत्पन्न कर सकी और न ही केंद्र की नीतियों और निर्णयों को इस चुनाव में अप्रासंगिक साबित कर सकी। जैसा अनुमान है यदि नतीजा ठीक वैसा ही निकला तब ये सत्ता में बैठे दल की जीत से ज्यादा विपक्ष की पराजय भी कही जायेगी क्योंकि वह अपनी भूमिका का सही तरीके से निर्वहन नहीं कर सका।
मतदान के एक दिन पहले भारतीय सेना द्वारा सीमा पार पाकिस्तान के संरक्षण में चल रहे आतंकवादी अड्डों पर की गई सैन्य कार्रवाई को चुनाव से जोडना भी यही साबित करता है कि कांग्रेस ने नहीं सुधरने की कसम खा ली है। सावरकर की कर्मभूमि में उनकी देशभक्ति पर सवाल और फौजियों के प्रदेश के रूप में प्रसिद्ध हरियाणा में सेना के पराक्रम पर राजनीतिक टिप्पणियों के कारण कांग्रेस को जबर्दस्त नुकसान उठाना पड़ा। लेकिन इस बारे में उल्लेखनीय बात ये है कि ऐसी ही गलतियां बीते हुए अनेक चुनावों के दौरान करने के बावजूद कांग्रेस ने उन्हें दोहराने से परहेज नहीं किया।
विपक्ष के लगातार कमजोर होते जाने से सत्ता में बैठे लोगों में तानाशाही मानसिकता उत्पन्न हो जाने के प्रति चिन्तित वर्ग भी कांग्रेस के बेहद गैर दिशाहीन रवैये से परेशान है। क्षेत्रीय पार्टियों का इस सम्बन्ध में उल्लेख गैर जरूरी लगता है क्योंकि उनकी पहुंच सीमित ही है। चूंकि हमारे देश में चुनाव निरंतर चलने वाला कर्मकांड बन चुका है इसलिए विपक्ष को भी उसके लिए हर समय तैयार रहना चाहिए। यदि वह ऐसा नहीं करता तब दूसरों पर दोष मढने से उसे कुछ भी हासिल नहीं होगा।
मराठाओं के दबदबे वाले राज्य महाराष्ट्र में ब्राह्मण और जाटों के राजनीतिक प्रभुत्व के बीच हरियाणा में गैर जाट पंजाबी मुख्यमंत्री की सत्ता में वापसी जाति आधारित सियासत को भी प्रभावहीन कर रही है जिसे शुभ संकेत ही कहा जाएगा। पिछले पांच साल में कांग्रेस ने गलतियों पर गलतियां की हैं। हैरानी की बात है पुरानी गलतियों को सुधारने की बजाए हर बार वो एक नयी गलती के साथ मैदान में नजर आई। 2017 में यूपी विधानसभा चुनाव में जनादेश के बाद उसे स्वीकारने के बजाया मायावती ने ईवीएम पर ही सवाल कर दिए। उनके सुर में कांग्रेस ने भी सुर लगा दिया है।
वक्त रहते अपनी गलतियों से सीखने के बजाय जनादेश को खारिज करने में ऊर्जा लगा रहे। भूल जाते हैं कि जब हम किसी जनादेश का अपमान करते हैं तो वह उस नेता या दल का नहीं बल्कि आम जनता और लोकतंत्र का अपमान होता है। संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष की मजबूती केवल संख्याबल के आधार पर ही नहीं बल्कि सैद्धांतिक तौर पर भी होना चाहिए। इसके अलावा उसे जनभावनाओं की भी गहरी समझ होना जरूरी है।
दुर्भाग्य से भाजपा के राष्ट्रीय विकल्प के रूप में जिस कांग्रेस को देखा जा सकता है वह अपनी ही गलतियों से कमजोर होती जा रही है। उसके नेता नरेंद्र मोदी और रास्वसंघ को चाहे जितना कोसते फिरें लेकिन तमाम विफलताओं और समस्याओं के अम्बार के बावजूद भी यदि जनता श्री मोदी और उनकी विचारधारा को समर्थन देती जा रही है तब ये मान लेना गलत नहीं होगा कि विपक्ष जनमानस को समझने में विफल रहा है।
कांग्रेस को ऐसे मुद्दों से परहेज करना चाहिए जिससे मतदाता उससे दूरी बना लेते हैं। लोकसभा चुनाव में करारी शिकस्त के बाद भी कांग्रेस का आत्मचिंतन की बजाए देशहित के मुद्दों पर सरकार का विरोध करना किसी भी मायने में उचित नहीं ठहराया जा सकता। विधानसभा व उपचुनाव में कांग्रेस की हताशा और मुद्दों को लेकर भटकाव साफ तौर पर देखने को मिला। विधानसभा चुनाव के नतीजे और आने वाला वक्त ही बताएगा कि कांग्रेस को अपनी रीति-नीति में कितना बदलाव लाना चाहिए, या वो ला पाती है।