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Commonwealth Games : बलिदानियों का अपमान है राष्ट्रमंडल की गुलामी

Commonwealth Games: Slavery is an insult to Commonwealth Games

Commonwealth Games

विष्णुगुप्त। Commonwealth Games : राष्टमंडल की गुलामी से मुक्ति का प्रश्न एक बार फिर महत्वपूर्ण हो चुका है और राष्ट्रमंडल की गुलामी को एक कंलक व स्वतंत्रता आंदोलन के बलिदानियों के अपमान के तौर पर देखा जा रहा है। फिलहाल राष्ट्रमंडल खेलों की धूम है। खासकर भारत के मीडिया में कुछ ज्यादा ही चर्चा है। चर्चा इसलिए है कि भारत के खिलाड़ी पदक जीत रहे हैं।

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जब देश का कोई खिलाड़ी पदक जीतता है तो यह देशवासियों के लिए गर्व का विषय होता है। इसलिए राष्ट्रमंडल खेलों में पदक मिलने के बाद गर्व की अनुभूति होनी ही चाहिए। राष्ट्रमंडल खेंल जिसे अंग्रेजी में कॉमनवेल्थ गेम्स कहा जाता है। यह एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर की खेल प्रतियोगिता है और सदस्य देशों को खेल के माध्यम से अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने का अवसर भी देती है।

कॉमनवेल्थ गेम्स (Commonwealth Games) का आयोजन कोई नया नही है बल्कि यह आयोजन गुलामी के कार्यकाल से चला आ रहा है। जब भारत सहित पूरी दुनिया की आधी से अधिक धरती और आबादी ब्रिटेन के गुलाम हुआ करती थी ,उस काल से कॉमनवेल्थ गेम्स का आयोजन होता आ रहा है। ऐसे पहला आयोजन 1930 में हुआ था। पहला आयोजन कनाडा के आटेरियों में हुआ, जिसमें ग्यारह देशों के 400 से धिकर खिलाडिय़ों ने भाग लिया था। एशली कूपर इस आयोजन और प्रतियोगिता के जनक माने जाते हैं। एशली कूपर वह शख्त थे जिन्होंने खेलों के माध्यम से ब्रिटिश साम्राज्य की नींव गुलामी आबादी के बीच मजबूत करने के लिए यह प्रस्ताव दिया था।

एशली कूपर का कहना था कि ब्रिटिश कालोनी की आबादी के बीच सांस्कृतिक एकता और सामाजिक उत्थान के साथ ही साथ मानवीकरण के लिए ऐसे प्रस्ताव को लागू करना अति आवश्यक है। ब्रिटिश साम्राज्य ने एशली कूपर के इस प्रस्ताव को स्वीकृति देकर कॉमनवेल्थ गेम्स की परमपरा कायम की थी। हर चार साल के बाद इसका आयोजन होता है। कॉमनवेल्थ गेम्स को ओलम्पिक गेम्स के बराबर खड़ा करने की कोशिश हुई है, हालांकि यह कोशिश सफल नहीं हो सकी, ओलम्पिक गेम्स की सर्वश्रेष्ठता बनी रही है। राष्ट्रमंडल सिर्फ खेलों के आयोजन के लिए भी नहीं जाना जाता है बल्कि लोकतंत्र और मानवाधिकार के नाम पर राजनीतिक वर्चस्व के लिए भी जाना जाता है। राष्ट्रमंडल का प्रमुख ब्रिटेन की महारानी होती है।

हिटलर के आक्रमण के बाद ब्रिटेन की पराजय नहीं हुई पर ब्र्र्रिटेन के साम्रज्य पर चोट जरूर पहुंची थी और ब्रिटेन की सैनिक और आर्थिक शक्ति जरूर चैपट हो गयी थी। ब्रिटेन के पास इतनी सैनिक और आर्थिक शक्ति नहीं बची थी कि वह अपनी गुलाम कालोनियों को नियंत्रित रख सके और अपने साम्रज्य की गुलामी नीतियों को आगे बढ़ा सके। सबसे बड़ी बात अमेरिका का दबाव भी था और अमेरिका की अपरापय वाली शक्ति स्थापित हुई थी। अमेरकिा ने जापान के हिरोशिमा-नागाशाकी पर परमाणु बम की वर्षा कर न केवल जापान का विध्पंस का किया था बल्कि हिटलर के गिरोह को भी तहस-नहस कर दिया था।

खासकर ब्रिटेन और फ्रांस को अमेरिका ने न केवल लडाकू हथियारों की आपूर्ति की थी बल्कि आर्थिक सहायता भी दी थी। अमेरिका अगर हिटलर की राह में रोड़ा नहीं बनता तो ब्रिटेन, फ्रांस और रूस जैसे बड़े देशों का नामोनिशान मिट जाता और दुनिया के पटल पर हिटलर अपराजय वाली शक्ति के रूप में स्थापित हो जाता। अमेरिका ने खासकर ब्रिटेन को इस शर्त पर मदद दी थी कि दूसरा विश्व युद्ध समाप्त होने के बाद गुलाम कालोनियों को आजाद करना होगा और गुलामी के प्रतीकों को मिटाना होगा।

क्योंकि हिटरल गिरोह की हिंसा और युद्ध ब्रिटेन जैसे उपनिवेशिक देशों की करतूतों के खिलाफ ही प्रारंभ हुई थी। दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद भी ब्रिटेन अपनी गुलाम कालोनियों को आजाद करने का इच्छुक कदापि नहीं था। पर आर्थिक और सैनिक जर्जर स्थिति के साथ ही साथ अमेरिका के दबाव के सामने उसे झुकना पड़ा था। फलस्वरूप भारत सहित अनेक देशों को गुलामी से मुक्ति मिली थी।

ब्रिटेन की गुलामी से मुक्ति तो दुनिया के कई देशों को जरूर मिली थी पर ब्रिटेन की गुलामी मानसिकता से पूर्व गुलाम देश पूरी तरह से मुक्त नहीं हो सके। ब्रिटेन की एक गुलामी मानसिकता के जाल में गुलामी से मुक्त देश फंस गये। ब्रिटेन ने राष्ट्रमंडल का पाशा फेंका था। ब्रिटेन ने चाल चली थी कि उसके कालोनियों से आजाद हुए देश राष्ट्रमंडल की छ़त्रछाया में एक रहेंगे और राष्ट्रमंडल को गुलामी का हथकंडा बना कर रखेंगे।

इसके लिए सुरक्षा, सहयोग और सांस्कृतिक एकता को ढाल बनाया गया। ब्रिटेन ने 1947 में राष्ट्रमंडल को लेंकर कहा था कि वह आजाद हुए देशों में लोकतंत्र को बढ़ावा देने और आर्थिक सहयोग करने के साथ ही साथ सास्कृतिक पहचान कायम करने के लिए पारस्पिरक सहयोग पर काम करेंगे। आर्थिक सहयोग का भी लालच दिया था। इसी लालच में भारत भी फंसा था और अन्य आजाद देश भी फसे थे।

ब्रिटेन की यह इच्छा भी थी कि दूसरे विश्व युद्ध के कारण क्षीन हुई उसकी अंतर्राष्ट्रीय शक्ति फिर से जीवित हो। संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना के बाद ब्रिटेन दुनिया का बेताज बादशाह नहीं रहा था। दुनिया के पटल पर अमेरिका एक मसीहा देश के रूप में उपस्थित हो चुका था। राष्ट्रमंडल की अवधारणा (Commonwealth Games) कोई खास पहचान नहीं बना सकी। उसके घोषित प्रस्तावना सिर्फ खानापूर्ति के विषय बन गये, मनोरंजन के विषय बन गये, पर्यटन के विषय बन गये। राष्ट्रमंडल न तो संयुक्त राष्ट्रसंघ जैसी भूमिका निभा सका और न ही लोकतंत्र के विकास और मानवाधिकार के संरक्षण में कोई बड़ी भूमिका निभा सका।

पाकिस्तान, अफगानिस्तान सहित अनेक देशों में लोकतंत्र का हनन कर दिया गया, तानाशाही लाद दी गयी, मानवाधिकार का घोर उल्लंघन हुआ, तानाशाही कायम करने के लिए अमानवीय हिंसा हुई, गरीबी और कुपोषण बढ़ा, फलस्वरूप मानवीय जीवन कठिन हुआ फिर भी राष्ट्रमंडल अपनी भूमिका निभाने में विफल हुआ।

खासकर मुस्लिम आतंकवाद और इस्लाम की हिंसक विस्तारवादी नीति के खिलाफ बड़ी कार्रवाई करने और दीर्धकालिक नीति बनाने की जरूरत थी। आज राष्ट्रमंडल के पटल पर ही नहीं बल्कि दुनिया के पटल पर मुस्लिम हिंसा और इस्लाम की विस्तारवादी नीति किस प्रकार से मानवता का नाश कर रही है और हिंसा का विस्तार दे रही है, यह भी स्पष्ट है।

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