डॉ. संजय शुक्ला। World Tribal Day : दुनिया भर में हर साल 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस या विश्व मूलनिवासी दिवस के रूप में मनाया जाता है।आदिवासी समाज वास्तव में एक ऐसा समुदाय है जो आधुनिक विकास की तेज बयार के बावजूद आज भी अपनी सदियों पुरानी सभ्यता, संस्कृति, रीति-रिवाज, लोककला, भाषा, धार्मिक परंपराओं से जुड़ा हुआ है।
जंगल आज भी आदिवासियों के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन के लिए महत्वपूर्ण हैं लेकिन आधुनिक विकास की भूख आदिवासियों के सदियों की थाती रही इसी जंगल को उजाडऩे के लिए बेताब है। आदिवासी जिन इलाकों में निवास करते हैं वहाँ देश की 90 फीसदी खनिज संपदा, 71 फीसदी जंगल और 70 फीसदी जलस्रोत हैं।
विडंबना है अमीर धरती के सदियों से रक्षक रहे आदिवासी गरीबी (World Tribal Day) और आभाव में गुजर-बसर करने के लिए विवश हैं। हालांकि देश की सरकारों ने आदिवासियों के जीवन स्तर में सुधार और उनके मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए आरक्षण सहित अनेक कल्याण योजनाएं और कानून लागू किए गए हैं जिसका परिणाम भी सामने आया है लेकिन अभी भी जनजातियों की बड़ी आबादी विकास के कैनवास पर हाशिए पर हैं।
दुर्गम इलाकों के आदिवासी अभी भी अशांति, गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण, आर्थिक शोषण, जबरिया भूमि अधिग्रहण, विस्थापन और मानवाधिकारों के उत्पीडऩ से जूझ रहा है। दरअसल आदिवासियों के आर्थिक व सामाजिक विकास में सबसे बड़े बाधक इन क्षेत्रों में जारी नक्सलवाद की समस्या, इस समस्या के प्रति दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी, अशिक्षा, अंधविश्वास, मद्यपान जैसी कुरूतियां,आदिवासी नेतृत्व की उदासीनता और भौगोलिक स्थितियां हैं।
बीते दशकों पर नजर डालें तो छत्तीसगढ़ सहित नक्सलवाद पीडि़त अनेक राज्यों के आदिवासी माओवादियों और सुरक्षा बलों के बीच दो पाटों में पिस रहे हैं। छल-प्रपंच से दूर उन्मुक्त और सरल जीवनशैली पसंद आदिवासियों को जहाँ माओवादी पुलिसिया मुखबिर बताकर कथित जनअदालतों में उनका कत्लेआम कर रही है तो दूसरी ओर पुलिस और सुरक्षाबल इन निरीह लोगों को संघम, जनमिलिशिया सदस्य या नक्सली करार देकर उनका मुठभेड़ कर रही है या जेलों में ठूंस रही है।
नक्सलियों और सुरक्षा बलों के दमन से मजबूर होकर लगभग 60 हजार आदिवासियों को पड़ोसी राज्यों में पलायन के लिए बेबस होना पड़ा है। आदिवासी अपने अस्तित्व रक्षा के लिए अनेक मोर्चों पर संघर्षरत हैं, आधुनिक विकास की भूख सदियों पुरानी उनकी थाती रही जंगलों को उजाडऩे के लिए बेताब है फलस्वरूप आदिवासी संस्कृति और कला भी क्षरण के दौर से गुजर रहा है। औद्योगिक विकास की सनक के चलते कार्पोरेट और ठेकेदारों का गठजोड़ जंगलों,पहाड़ों और नदियों को कौडिय़ों के मोल खरीदने के लिए आमादा हैं।
दरअसल आदिवासी प्रकृति से साथ हो रहे निर्ममता से उद्वेलित हैं फलस्वरूप सरकार और आदिवासियों के बीच टकराव बढ़ रहा है। विडंबना है कि विनाश के बलबूते विकास का सपना देखने वाली सरकारें आदिवासियों के मूक आक्रोश को समझने में नाकाम हैं। आदिवासी केवल अशांति और आभाव से ही नहीं जूझ रहे हैं बल्कि उनके शिल्प और कलाकृतियों को औने पौने दाम खरीद कर बिचौलिए और व्यापारी मोटी रकम वसूल रहे हैं।
अंदरुनी आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं लगभग कागजों में हैं तो नक्सली इन इलाकों के स्कूलों और पुल-पुलिया को बारूद से ध्वस्त कर रहे हैं। नक्सली आदिवासियों के लोकतांत्रिक अधिकारों में भी बाधक बने हुए हैं, चुनावों के बहिष्कार का फरमान और जनप्रतिनिधियों की निर्मम हत्या ने माओवादियों के आदिवासी हितैषी होने के दावे को बेनकाब कर दिया है। बहरहाल नक्सली फरमान और हिंसा के बावजूद आदिवासी अब चुनावी प्रक्रिया और मतदान में निर्भिक होकर हिस्सा ले रहे हैं यह लोकतंत्र के लिए सुखद संकेत है।
आदिवासी क्षेत्रों में कुपोषण जनस्वास्थ्य की सबसे बड़ी समस्या है तो साफ पेयजल के आभाव में जलजनित रोग अब भी आदिवासियों की जान ले रहा है।इन इलाकों में गरीबी, अज्ञानता,अशिक्षा अथवा प्रलोभन के कारण होने वाला धर्मांतरण भी चिंतनीय है। दशकों से जारी नक्सली हिंसा, महंगाई और नयी पीढ़ी की अरूचि के कारण अब वनांचलों में मांदर की थाप पर पारंपरिक नाच-गाने की बयार अब थमने लगी है।
समाजशास्त्रियों के मुताबिक जो जनजातियां (World Tribal Day) नाचती-गाती नहीं है उनकी संस्कृति मर जातीं है, बेशक यह विचारणीय मुद्दा है। बहरहाल अब आदिवासी अशांति और पिछड़ेपन के दंश से अजीज आ चुके हैं और नई सुबह की तलाश में हैं। इतिहास गवाह है किसी सामाजिक व्यवस्था में क्रांतिकारी बदलाव केवल युवा ही ला सकते हैं बशर्तें यह बदलाव रचनात्मक और जनतांत्रिक होना चाहिये। लिहाजा अब आदिवासियों की नयी पीढ़ी पर निर्भर है कि वह अपने समाज के सर्वांगीण विकास की दशा और दिशा कैसे तय करता है?