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World Puppet Day : मनोरंजन करती कठपुतलिया

World Puppet Day: Entertaining Puppet

World Puppet Day

रमेश सर्राफ। World Puppet Day : हम हर साल 21 मार्च को विश्व कठपुतली दिवस मनाते हैं। इस दिन का उद्देश्य कठपुतली को वैश्विक कला के रूप में मान्यता देना है। यह दुनिया भर के कठपुतली कलाकारों को का सम्मान करने का एक प्रयास है। एक समय था जब कठपुतली को सिर्फ मनोरंजन का माध्यम समझा जाता था। लेकिन आज कठपुतली कला मनोरंजन के साथ ही लोगों को जागरुक भी कर रही है। प्राचीनकाल से ही जादू टोनों एवं कुदरती प्रकोपों से बचने के लिए मानव जीवन में पुतलों का प्रयोग होता रहा है। भारत में ही नहीं बल्कि अन्यत्र भी काष्ठ, मिट्टी व पाषाण से निर्मित ये पुतले जातीय एवं पारिवारिक देवताओं के रूप में प्रतिष्ठित होते रहे हैं।

कठपुतलियों का इतिहास बहुत पुराना है। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में पाणिनी की अष्टाध्यायी के नटसूत्र में पुतला नाटक का उल्लेख मिलता है। कुछ लोग कठपुतली के जन्म को लेकर पौराणिक आख्यान का जिक्र करते हैं कि शिवजी ने काठ की मूर्ति में प्रवेश कर पार्वती का मन बहलाकर इस कला की शुरुआत की थी। सतवद्र्धन काल में भारत से पूर्वी एशिया के देशो इंडोनेशिया, थाईलैंड, म्यांमार, जावा, श्रीलंका आदि में इसका विस्तार हुआ। आज यह कला चीन, रूस, रूमानिया, इंग्लैंड, चेकोस्लोवाकिया, अमेरिका व जापान आदि अनेक देशों में पहुंच चुकी है। इन देशों में इस विधा का सम-सामयिक प्रयोग कर इसे बहुआयामी रूप प्रदान किया गया है। वहां कठपुतली को मनोरंजन के अलावा शिक्षा, विज्ञापन आदि अनेक क्षेत्रों में इस्तेमाल किया जा रहा है।

भारतीय कठपुतलियों की प्राचीनता के सम्बन्ध में पौराणिक ग्रन्थों में उल्लेख मिलता हैं। महाभारत में अर्जुन द्वारा ब्रहन्नला को कठपुतलियों का खेल सिखाने का उल्लेख है। महाभारत में रूपजीवन शब्द का भी काफी प्रयोग हुआ है और वह भी पुतलियों के खेल-तमाशों के संदर्भ में। पंचतंत्र नामक ग्रन्थ में ऐसी कठपुतलियों का जिक्र है। जो लकड़ी की खूटियों के सहारे नाना प्रकार के मानवी करतब दिखलाती थी। विक्रमादित्य के समय सिंहासन बतीसी नामक एक ऐसा सिंहासन था जो दिन में सम्राट के बैठने के काम आता था और रात को उसकी बतीस कठपुतलियां विभिन्न प्रकार से रागरंग कार्यक्रम कर सम्राट को रिझाती थी। राजस्थान की स्ट्रिंग कठपुतलियां दुनिया भर में मशहूर हैं। इसके अलावा उड़ीसा, कर्नाटक और तमिलनाडु में भी कठपुतलियों की यही कला प्रचलित है।

राजस्थानी कठपुतलियों का ओवल चेहरा, बड़ी आंखें, धनुषाकार भौंहें और बड़े होंठ इन्हें अलग पहचान देते हैं। 5-8 स्ट्रिंग्स से बंधी ये कठपुतलियां राजस्थानी संगीत के साथ नाटक पेश करती हैं। राजस्थान में कठपुतलियों का प्रचलन काफी समय से हो रहा है। यहां कठपुतलियां नटों तथा भाटों द्वारा प्रयुक्त होती है। ये नट नाटक भी करते थे, नाचते भी थे एवं विभिन्न प्रकार के शारीरिक करतब भी दिखलाते थे। यह रस्सियों पर भी चलते थे ओर कठपुतलियां भी नचाते थे। नट जाति में प्रचलित एक किवदंती के आधार पर ब्रह्मा के वरदान से एक आदि नट की उत्पत्ति हुई थी। इन नटों के पूर्वज ही विक्रमादित्य के समय में ÓÓसिंहासन बतीसीÓÓ नामक कठपुतली नाटक के सर्जक थे। भारत की पुरातन संस्कृति का केन्द्रस्थल उत्तर भारत का राजस्थान एवं सिंध क्षेत्र रह चुका है।

राजस्थान के नट जो पहले राजा-महाराजाओं के दरबारों की शोभा बढ़ाते थे। धीरे-धीरे सामाजिक एवं आर्थिक कारण से पिछड़ते चले गये और छोटी-छोटी जातियों के याचक बन गये। जिन राजाओं तथा विशिष्टजनों ने उन्हें प्रोत्साहन एवं संरक्षण प्रदान किया उन्हीं की जीवन-गाथायें इनकी पुतलियों का विषय बन गयी। जैसे विक्रमादित्य के काल की ÓÓसिंहासन बतीसीÓÓ, पृथ्वीराज चैहान के समय की Óपृथ्वीराज संयोगिता व अमरसिंह राठौड़Ó का खेल प्रमुख थी। घोर परम्परा एवं जातीय बन्धनों में बंधे हुये ये भाट आज भी अपनी पुतलियों में संशोधन आदि का सुझाव नहीं मानते हैं। राजस्थान में आज इस जाति के लगभग सोलह हजार भाट मौजूद हैं। जिनमें से लगभग आठ हजार किसी न किसी ढंग से कठपुतलियां नचाने का काम करते हैं। कुछ खेती बाड़ी के धन्धे में भी लगे हुये हैं तो कुछ ने नाच गाने को अपना पेशा बना लिया है। कुछ अपने यजमानों के घर व शादी विवाह के अवसर पर ढोल बजाकर याचक का काम करते हैं।

राजस्थान में कठपुलियों का खेल दिखाने का मंच बहुत ही सादा होता है। गांव में कठपुतली का खेल दिखाने हेतु दो खाट खड़ी कर उसको ऊपर-नीचे से बांसों से जकडकर मंच की शक्ल दे दी जाती है। आगे की तरफ बारादरीनुमा ÓÓताजमहलÓÓ नामक पर्दा लगा दिया जाता है। पृष्ठ भूमि में एक रंगीन काली चादर लगा दी जाती है जिसके पीछे से ये कठपुतलियों का संचालन करते हैं। इनकी कठपुतलियों का आकार लगभग डेढ़ फुट का होता है। इन कठपुतलियों की वेशभूषा पारम्परिक राजस्थानी होती है। तीन सौ वर्षों से निरन्तर प्रचलन में होने से राजस्थानी कठपुतलियों का मूल नाटक बिल्कुल ही विकृत हो गया है। अब तो दर्शक संचालन शैली तथा नाट्य-विधि के कारण ही कठपुतली का खेल देखते हैं। आज भी राजस्थानी कठपुतलियों में दर्शकों को बांधने की ताकत देखने का मिलती है जो कदाचित अन्य किसी में नहीं है। कठपुतली संचालक द्वारा अपने मुंह से ही सीटीनुमा आवाज निकालकर भाव व्यक्त किया जाता है।

आमतौर पर आजकल कठपुतली निर्माण कार्य कठपुतली संचालक स्वयं ही करता है क्योंकि पारम्परिक कठपुतली निर्माता बढ़ई बहुत कम संख्या में रह गये हैं। इन कठपुतलियों को भाट बड़े आदर-भाव से देखते हैं। आज भी इनकी पारम्परिक कठपुतलियों के लंहगों की अनेक परतें इनकी पुरातन प्रियता की द्योतक है। कठपुतलियों के मुंह निर्मित होते हैं तथा अन्य सब अंग रूई व कपड़ों से बनाये जाते हैं। प्रयोग में नहीं आने वाली कठपुतलियों को ये लोग फेंकते नहीं बल्कि आदर पूर्वक जल में प्रवाहित करते हैं।

राजस्थानी कठपुतलियों में चेहरे का आकार शरीर से बड़ा, आंखें काफी बड़ी, वक्षस्थल अत्यन्त लघु एवं उभरा हुआ तथा पांवों का न होना इनकी अपनी विशेषता है। इससे कठपुतलियों का संचालन अत्यन्त सजीव बन जाता है। कठपुतलियों के खेल दिखाने वाले दल में दो या तीन व्यक्ति होते हैं। औरतें ढालक बजाती हैं व मर्द कठपुतलियां चलाते हैं। इनके दोनों हाथ मशीन की तरह चलते हैं। सीटी द्वारा उत्पन्न विविध ध्वनियां, वाचन के साथ पैर से पैदा की गयी आवाजें तथा ढोलक की विचित्र थापें समस्त नाटक को प्राणवान बना देती हैं।

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