योगेश कुमार गोयल। World AIDS Day : एचआईवी संक्रमण के प्रसार को रोकने तथा एड्स महामारी के प्रति जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से वर्ष 1988 के बाद से प्रतिवर्ष 1 दिसंबर को ‘विश्व एड्स दिवस’ मनाया जाता है। हालांकि शुरूआती दौर में इस दिवस को केवल बच्चों तथा युवाओं से ही जोड़कर देखा जाता था किन्तु बाद में एड्स पर हुए कई शोधों से पता चला कि एचआईवी संक्रमण किसी भी उम्र के व्यक्ति को प्रभावित कर सकता है। इस साल हम 35वां एड्स दिवस मना रहे हैं और यह दिवस इस बात का मूल्यांकन करने का अवसर है कि एड्स मुक्त दुनिया के वादे को पूरा करने में हम फिलहाल किस ट्रैक पर हैं। वैसे संयुक्त राष्ट्र सतत विकास लक्ष्य को पारित करते हुए भारत सहित दुनिया के 194 देशों ने वर्ष 2030 तक ‘एड्स मुक्त दुनिया’ का वादा किया है और भारत की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 में भी यह वादा दोहराया गया है।
हालांकि बीते कुछ वर्षों में एचआईवी से संक्रमित होने वालों की संख्या में लगातार कमी आ रही है लेकिन फिर भी स्थिति बहुत ज्यादा बेहतर नहीं कही जा सकती। दिल्ली नेटवर्क ऑफ पॉजिटिव पीपल के सह-संस्थापक रहे लून गांगटे का यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण है कि जब वैज्ञानिक उपलब्धियों के कारण और सामुदायिक अनुभव से यह सर्वविदित है कि एचआईवी के साथ जीवित व्यक्ति सामान्य जि़ंदगी जी सकता है तो 2020 में 6.8 लाख लोग एड्स संबंधित रोगों से कैसे मारे गए? वैज्ञानिक शोधों के कारण आज हमारे पास एचआईवी संक्रमण से बचाव के तरीक़े हैं, फिर भी 2020 में 15 लाख नए लोग कैसे एचआईवी से संक्रमित हो गए? उनका कहना है कि यदि हम एचआईवी नियंत्रण और प्रबंधन में कार्यसाधकता नहीं बढ़ाएंगे तो 2030 तक कैसे दुनिया को एड्स मुक्त करेंगे?
जहां तक एड्स के इतिहास की बात है तो माना (World AIDS Day) जाता है कि सबसे पहले 19वीं सदी में अफ्रीका के खास प्रजाति के बंदरों में एड्स का वायरस मिला था और बंदरों से यह रोग इंसानों में फैला। दरअसल उस समय अफ्रीका में लोग बंदरों को खाया करते थे। इसीलिए माना गया कि कि बंदर खाने से यह वायरस किसी मनुष्य के शरीर में प्रविष्ट हुआ होगा। 1920 में यह बीमारी सबसे पहले अफ्रीका के कांगो की राजधानी किंसास में फैली थी। वैसे सबसे पहले एचआईवी वायरस 1959 में कांगो के एक बीमार व्यक्ति के रक्त के नमूने में मिला था, जिसे पहला एचआईवी संक्रमित व्यक्ति माना गया था।
यह भी माना जाता है कि उस जमाने में कांगो की राजधानी किंसास सैक्स ट्रेड का गढ़ थी, जहां से शारीरिक संबंधों के जरिये यह बीमारी अन्य देशों में पहुंची और 1960 में अफ्रीका के हैती तथा कैरीबियाई द्वीप में फैली। 1970 के दौरान यह वायरस कैरीबिया से न्यूयार्क शहर में फैला और फिर अमेरिका से दुनिया के अन्य हिस्सों में पहुंचा।
1981 में लॉस एंजिल्स के डा. माइकल गॉटलीब ने पांच मरीजों में एक अलग किस्म के निमोनिया की पहचान की। सभी पांचों मरीज समलैंगिक थे, जिनमें रोग से लडऩे वाला तंत्र एकाएक कमजोर पड़ गया था, इसीलिए उस समय डॉक्टरों को लगा कि यह केवल समलैंगिकों में ही होने वाली कोई बीमारी है लेकिन जब बाद में जब दूसरे लोगों में भी यह वायरस मिला तो उन्हें अहसास हुआ कि उनकी धारणा गलत है। उसके बाद इस बीमारी से पीडि़त मरीजों का अध्ययन करने के पश्चात् अमेरिका के सेंटस फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन ने पहली बार 1982 में इस बीमारी के लिए ‘एड्स’ (एक्वायर्ड इम्यूनो डेफिसिएंशी सिंड्रोम) शब्द का इस्तेमाल किया और फ्रांस के पाश्चर इंस्टीच्यूट के दो वैज्ञानिकों ल्यूक मॉन्टेगनियर तथा फ्रैंकोइस बर्रे सिनूसी ने 1983 में एड्स से पीडि़त रोगी की सूजी हुई लिम्फ ग्रंथि से एक वायरस की खोज की, जिसे उन्होंने ‘एलएवी’ वायरस नाम दिया।
अगले साल 1984 में अमेरिका के राष्ट्रीय कैंसर संस्थान के रॉबर्ट गैलो ने एचटीएलवी-3 वायरस की खोज की। 1984 में शोधकर्ताओं ने पहली बार एड्स के वायरस ‘एचआईवी’ (ह्यूमन इम्यूनो डेफिसिएंशी वायरस) की पहचान की। शोधकर्ताओं को गहन अध्ययन के बाद 1985 में यह पता चला कि एलएवी तथा एचटीएलवी-3 दोनों एक ही वायरस हैं, जो एड्स फैलाते हैं, जिसके बाद पहली बार 1986 में एचटीएलवी-3 तथा एलएवी वायरस का नाम बदलकर ‘एचआईवीÓ रख दिया गया। भारत में एड्स का पहला मामला वर्ष 1986 में सामने आया था।
जहां तक ‘विश्व एड्स दिवस’ मनाए जाने की बात है तो इस दिवस की शुरूआत के पीछे विश्व स्वास्थ्य संगठन में एड्स संबंधित कार्यक्रम के पब्लिक इन्फॉर्मेशन ऑफिसर रहे जेम्स डब्ल्यू बन तथा थॉमस नेटर का आइडिया था, जिनके दिमाग में अगस्त 1987 में यह दिवस मनाने का आइडिया आया था। दोनों ने अपने आइडिया से एड्स संबंधित प्रोग्राम के ग्लोबल डायरेक्टर डा. जोनाथन मान को अवगत कराया। डा. जोनाथन को उनका आइडिया काफी पसंद आया और उन्होंने हर साल 1 दिसम्बर को ‘विश्व एड्स दिवस’ मनाने की स्वीकृति प्रदान कर दी।
पहली बार 1 दिसम्बर 1988 को विश्व एड्स दिवस मनाया गया, जिसे मनाने का उद्देश्य एचआईवी या एड्स से ग्रसित लोगों की मदद करना और एड्स से जुड़े मिथ को दूर करते हुए लोगों को शिक्षित करना था। अभियान के पहले दो वर्षों में परिवारों पर एड्स के प्रभाव को उजागर करने के लिए बच्चों और युवाओं के विषय पर केन्द्रित दिवस था। 1996 में यूएन एड्स ने विश्व एड्स दिवस के संचालन को अपने हाथ में ले लिया और पहल के दायरे को एक वर्ष के रोकथाम और शिक्षा अभियान तक बढ़ा दिया।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 2020 के अंत में दुनियाभर में करीब 37.7 मिलियन लोग एचआईवी से ग्रस्त थे, जिनमें से दो तिहाई यानी करीब 25.4 मिलियन अफ्रीकी क्षेत्र में हैं। 2020 में 6.8 मिलियन लोग एचआईवी से संबंधित कारणों से मारे गए और डेढ़ मिलियन नए लोगों को एचआईवी हुआ। एचआईवी वास्तव में एक ऐसा वायरस है, जो शरीर में उन कोशिकाओं पर हमला करता है, जो शरीर को इंफेक्शन से लडऩे में मदद करती हैं। इससे व्यक्ति अन्य संक्रमणों और बीमारियों के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाता है और धीरे-धीरे एक ऐसी स्थिति आ जाती है, जब इम्यून सिस्टम पूरी तरह से काम करना बंद कर देता है।
यह वायरस मानव रक्त, यौन तरल पदार्थ तथा (World AIDS Day) स्तनों के दूध में रहता है और जब इसका उपचार नहीं किया जाता तो यह एड्स बीमारी का कारण बनता है। एचआईवी संक्रमण प्राय: असुरक्षित यौन संबंध, एचआईवी संक्रमित व्यक्ति के सम्पर्क में आए इंजेक्शन या उपकरणों को साझा करने से हो सकता है। दुनियाभर में फिलहाल एचआईवी का कोई प्रभावी इलाज मौजूद नहीं है, इसलिए एचआईवी से बचने के लिए जागरूकता बेहद जरूरी है।