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Why is our system helpless?: बाढ़ के समक्ष बौनी और असहाय क्यों है हमारी व्यवस्था?

Why is our system helpless


– योगेश कुमार गोयल


विशेष आलेख। इस साल भी प्रतिवर्ष की भांति बिहार सहित देश के कई राज्य बाढ़ के कहर से त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। इन राज्यों के हालातों को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है, जैसे मानूसन के दौरान बाढ़(Why is our system helpless) के कहर को झेलना अब लोगों की नियति बन गया है।

जिसे लेकर इन राज्यों के नीति नियंताओं की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता। पर्वतीय क्षेत्रों में बीते कुछ दिनों से हो रही लगातार बारिश से विभिन्न नदियों के जलस्तर में वृद्धि हो रही है, जिससे उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश के कई तटीय इलाके भी बाढ़ की आंशका से सहमे हैं और कुछ इलाके तो जलमग्न भी हो चुके हैं।

यह बेहद चिंताजनक स्थिति है कि देशभर में अनेक राज्यों में हर साल कुछ घंटों की लगातार बारिश से ही नदियां और बरसाती नालों में उफान आ जाता है, यहां तक कि देश की राजधानी दिल्ली में भी चंद घंटों की बारिश से ही बाढ़ जैसे हालात बन जाते हैं।


जम्मू कश्मीर, हिमाचल, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, महाराष्ट्र, झारखण्ड इत्यादि कई राज्य इन दिनों जल-प्रलय (Why is our system helpless) से जूझ रहे हैं। अनेक इलाकों में तो बाढ़ के कारण सड़कों पर आवागमन पूरी तरह ठप्प है। हालात ऐसे हैं कि बिहार के कई इलाकों में तो बाढ़ के कारण सड़कों पर ही नाव चल रही हैं।

ग्रामीण आबादी तो बाढ़ के कहर से जूझ ही रही है, शहरी इलाकों की बड़ी आबादी भी इससे परेशान है। बिहार में तो नदियां पूरे उफान पर हैं और भारी बारिश तथा नेपाल से आने वाली नदियों में उफान से उत्तर बिहार के अलावा कोसी, सीमांचल तथा पूर्वी बिहार में स्थिति निरन्तर गंभीर हो रही है लेकिन बिहार प्रशासन दावा करता रहा है कि स्थिति नियंत्रण में है।

बाढ़ की बेकाबू होती स्थिति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि राज्य के हजारों गांव बाढ़ के पानी से लबालब हैं। बाढ़ ने बिहार के 10 जिलों के करीब 60 प्रखण्डों में जमकर कहर बरपाया है और आने वाले दिनों में भारी बारिश के कारण हालात और बदतर हो सकते हैं।

आपदा प्रबंधन विभाग के मुताबिक बाढ़ के कारण अब तक कई दर्जन लोगों की मौत हो चुकी है और 80 लाख से ज्यादा लोग प्रभावित हुए हैं, सैंकड़ों जानवर बाढ़ के पानी में बह चुके हैं।

कोविड काल में वैक्सीनेशन के लिए बिहार सरकार द्वारा ‘टीका वाली नाव’ तो चलाई गई हैं लेकिन हर साल इसी प्रकार बाढ़ का कहर झेलने को अभिशप्त बिहार की जनता के लिए इस साल भी सरकार द्वारा ऐसे कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए, जिससे मानसून की शुरूआत होते ही ऐसी परिस्थितियां निर्मित ही नहीं होती।


2019 में तो बिहार में दरभंगा और मधुबनी में कमला बलान बांध दर्जनों जगहों से टूट जाने के चलते हालात बद से बदतर हो गए थे। जगह-जगह तटबंधों में बड़ी-बड़ी दरारें आने से बाढ़ की चपेट में आए दरभंगा, मधुबनी, सीतामढ़ी, पूर्वी चम्पारण, सुपौल, शिवहर इत्यादि कई इलाकों में भारी तबाही हुई थी।

पिछले साल भी कमोवेश ऐसे ही हालात थे और तमाम सरकारी दावों की कलई तभी खुल गई थी, जब बिहार के गोपालगंज में 264 करोड़ रुपये की लागत से बने पुल का एक हिस्सा सरकारी निकम्मेपन के कारण ढ़ह गया था।

गोपालगंज जिले में बैकुंठपुर के फैजुल्लाहपुर में छपरा-सत्तरघाट मुख्य पथ को जोड़ने वाले उस पुल का निर्माण 2012 में शुरू हुआ था और 16 जून 2020 को ही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने ऑनलाइन उसका उद्घाटन किया था यानी केवल 29 दिनों में ही 264 करोड़ रुपये पानी में बह गए थे।

तब राज्य के तत्कालीन पथ निर्माण मंत्री ने बेहद गैरजिम्मेदाराना बयान देते हुए कहा था कि यह प्राकृतिक आपदा है, जिसमें सड़कें बह जाती हैं और पुल टूट जाते हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तो हमेशा बिहार में भयानक बाढ़ को प्राकृतिक आपदा बताकर पल्ला झाड़ते रहे हैं।


महत्वपूर्ण सवाल यह है कि आखिर प्रतिवर्ष बिहार सहित विभिन्न राज्यों में मानूसन के दौरान ऐसी ही स्थितियां सामने आने के बावजूद समय रहते ऐसे कदम क्यों नहीं उठाए जाते ताकि बाढ़ से जान-माल के खतरे को न्यूनतम किया जा सके?

क्यों मानसून बीतते ही सब कुछ भगवान भरोसे छोड़कर समस्त प्रशासनिक अमला अगले मानसून तक चैन की नींद सो जाता है?

बाढ़ के कारण हर साल जनजीवन चौपट हो जाता है, लाखों लोग बेघर हो जाते हैं, सैंकड़ों लोग और हजारों पशु मौत की नींद सो जाते हैं लेकिन ऐसे संभावित हालातों से निपटने के लिए सालभर कहीं कोई फिक्र दिखाई नहीं देती।

बाढ़ के कारण हर साल हजारों किलोमीटर सड़कें और अनेक पुल क्षतिग्रस्त होते हैं, जिससे देश की अर्थव्यवस्था को अरबों रुपये का नुकसान होता है लेकिन किसी को इसकी परवाह नहीं।

बिहार हो अथवा देश के अन्य इलाके, प्रायः देखा यही जाता रहा है कि सरकारी तंत्र द्वारा हर साल मानसून के दौरान बाढ़ जैसे हालात पैदा होने के बाद बांधों या तटबंधों की कामचलाऊ मरम्मत कर उन्हें भगवान भरोसे छोड़ दिया जाता है और बाढ़ का तांडव सामने आने पर उसे प्राकृतिक आपदा की संज्ञा देने की कोशिशें शुरू हो जाती हैं।


बांधों के टूटने और उनमें आने वाली दरारों के कारण प्रतिवर्ष बाढ़ का जो विकराल रूप सामने आता है, उसे देखते हुए यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण है कि बाढ़ को प्राकृतिक आपदा का नाम देकर पल्ला झाड़ने के बजाय ऐसे बांधों का मानसून से पहले ही ईमानदारी से ऑडिट कराकर उनकी मजबूती और मरम्मत के लिए समुचित कदम क्यों नहीं उठाये जाते?

प्रशासन क्यों नहीं मानसून से पहले ही भारी वर्षा से उत्पन्न होने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए मुस्तैद होता? क्यों हमारी सम्पूर्ण व्यवस्था हर साल मानसून के दौरान आपदाओं और चुनौतियों के समक्ष बहुत बौनी और असहाय नजर आती है?

हालात इतने खराब हो चुके हैं कि जब भी थोड़ी सी ज्यादा बारिश हो जाती है तो बाढ़ आ जाती है और थोड़ी सी कम वर्षा (Why is our system helpless) होते ही सूखे का संकट मंडराने लगता है। दरअसल हम अभी तक वर्षा जल का संचय करने के लिए कोई कारगर योजना या उपाय नहीं कर सके हैं।


हर साल जब भी बाढ़ जैसी आपदा एक साथ लाखों लोगों के जनजीवन को प्रभावित करती है तो केन्द्र और राज्य सरकारों के मंत्री बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों के हवाई दौरे करते हैं और सरकारों द्वारा बाढ़ पीडि़तों के लिए राहत राशि देने की घोषणाएं की जाती हैं किन्तु जैसे ही बाढ़ का पानी उतरता है, सरकारी तंत्र बाढ़ के कहर को बड़ी आसानी से भूल जाता है।

देखा जाए तो करोड़ों लोगों की जीवनरेखा को प्रभावित करती बाढ़ जैसी भयानक आपदाएं सरकारी तंत्र के लिए ‘सरकारी खजाने की लूट के उत्सव’ के समान बनकर रह गई हैं।

योगेश कुमार गोयल


(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा पर्यावरण मामलों के जानकार हैं और पर्यावरण संरक्षण पर ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ पुस्तक लिख चुके हैं।)

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