मिल्खा सिंह पूरी दुनिया को ये सीख दे गए जब जीतने के लिए दौड़ो तो पीछे मुड़ कर मत देखो
मिल्खा सिंह आज तक भारत के सबसे प्रसिद्ध और महान धावक रहे. कामनवेल्थ खेलों में भारत को स्वर्ण पदक दिलाने वाले वे पहले भारतीय थे. खेलो में उनके अतुल्य योगदान के लिये भारत सरकार ने उन्हें 1959 में भारत के चौथे सर्वोच्च सम्मान पद्मश्री से भी सम्मानित किया है. पंडित जवाहरलाल नेहरू भी मिल्खा सिंह के खेल को देख कर उनकी तारीफ करते थे. और उन्हें मिल्खा सिंह पर गर्व था.
बचपन से संघर्षमय रहा जीवन
मिल्खा सिंह का जन्म अविभाजित भारत के पंजाब में एक सिख परिवार में 20 नवम्बर 1929 को हुआ था। भारत के विभाजन के बाद हुए दंगों में मिल्खा सिंह ने अपने मां-बाप और भाई-बहन खो दिया। अंततः वे शरणार्थी बन के ट्रेन द्वारा पाकिस्तान से दिल्ली आए. दिल्ली में वह अपनी शादी-शुदा बहन के घर पर कुछ दिन रहे। कुछ समय शरणार्थी शिविरों में रहने के बाद वह दिल्ली के शाहदरा इलाके में एक पुनर्स्थापित बस्ती में भी रहे.
विभाजन की त्रासदी झेली, मां- बाप को खोया
भारत के विभाजन और अपने मां- बाप को खोने के बाद की अफ़रा तफ़री वे शरणार्थी बन कर ट्रेन से पाकिस्तान से भारत आए. ऐसे भयानक बचपन के बाद उन्होंने अपने जीवन में कुछ कर गुज़रने की ठानी. एक होनहार धावक के तौर पर ख्याति प्राप्त करने के बाद उन्होंने 200 मीटर और 400 मीटर की दौड़ में उन्होनें भारत का परचम लहराया. कुछ समय के लिए वे 400 मीटर के विश्व कीर्तिमान धारक भी रहे। अपनी सक्रियता के कारण वे जब तक जीये पूरे भारत में बड़े सम्मानित और लोकप्रिय रहे.
कामनवेल्थ में स्वर्ण पदक जीता
कार्डिफ़, वेल्स, संयुक्त साम्राज्य में 1958 के कॉमनवेल्थ खेलों में स्वर्ण जीतने के बाद सिख होने की वजह से लंबे बालों के साथ पदक स्वीकारने पर पूरा खेल विश्व उन्हें जानने लगा.
लोकप्रियता इतनी कि बुर्कानशीनों ने बुर्का उतार कर दौड़ते देखा
मिल्खा सिंह एक बार पाकिस्तान में दौड़ने का न्यौता मिला, लेकिन बचपन की घटनाओं की वजह से वे वहां जाने से हिचक रहे थे. लेकिन न जाने पर राजनैतिक उथल पुथल के डर से उन्हें जाने को कहा गया. उन्होंने दौड़ने का न्यौता स्वीकार किया. दौड़ में मिल्खा सिंह ने सरलता से अपने प्रतिद्वन्द्वियों को ध्वस्त कर दिया और आसानी से जीत हासिल की. अधिकांशतः मुस्लिम दर्शक इतने प्रभावित हुए कि पूरी तरह बुर्कानशीन औरतों ने भी इस महान धावक को गुज़रते देखने के लिए अपने नक़ाब उतार लिए थे, तभी से उन्हें फ़्लाइंग सिख की उपाधि मिली.
फौज में नौकरी की
मिल्खा सिंह ने सेना में कड़ी मेहनत की और 200 मी और 400 मी में अपने आप को स्थापित किया और कई प्रतियोगिताओं में सफलता हासिल की. वे राष्ट्रमंडल खेलों के व्यक्तिगत स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीतने वाले स्वतंत्र भारत के पहले खिलाडी बनें.
पाकिस्तानी धावक खालिक को हराया तो उड़न सिक्ख कहलाए
सन 1960 में उन्होंने पाकिस्तान प्रसिद्ध धावक अब्दुल खालिक को पाकिस्तान में हराया, जिसके बाद वहां के राष्ट्रपति जनरल अयूब खान ने उन्हें ‘उड़न सिख’ कह कर पुकारा. 1 जुलाई 2012 को उन्हें भारत का सबसे सफल धावक माना गया जिन्होंने ओलंपिक्स खेलों में लगभग 20 पदक अपने नाम किए है. यह अपने आप में ही एक रिकॉर्ड है.
एक छोटी सी भूल जिन्दगी भर का पछतावा
1960 में रोम ओलिंपिक खेल शुरू होने से कुछ वर्ष पूर्व से ही मिल्खा अपने खेल जीवन के सर्वश्रेष्ठ फॉर्म में थे और ऐसा माना जा रहा था की इन खेलों में मिल्खा पदक जरूर प्राप्त करेंगे. रोम खेलों से कुछ समय पूर्व मिल्खा ने फ्रांस में 45.8 सेकंड्स का कीर्तिमान भी बनाया था. 400 में दौड़ में मिल्खा सिंह ने पूर्व ओलिंपिक रिकॉर्ड तो जरूर तोड़ा पर चौथे स्थान के साथ पदक से वंचित रह गए. 250 मीटर की दूरी तक दौड़ में सबसे आगे रहने वाले मिल्खा ने एक ऐसी भूल कर दी थी जिसका पछतावा उन्हें जिन्दगी भर रहा. दरअसल दौड़ते समय उन्हें लगा की वो अपने आप को अंत तक उसी गति पर शायद नहीं रख पाएंगे और पीछे मुड़कर अपने प्रतिद्वंदियों को देखने लगे जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा और वह धावक जिससे स्वर्ण की आशा थी कांस्य भी नहीं जीत पाया। मिल्खा सिंह का दौड़ते समय पीछे मुड़ कर देखना ही उनकी सबसे बड़ी गल्ती रही. इस असफलता से सिंह इतने निराश हुए कि उन्होंने दौड़ से संन्यास लेने का मन बना लिया पर बहुत समझाने के बाद मैदान में फिर वापसी की.
भारत के विभाजन का खूनखराबा भी देखा
मिल्खा सिंह की 1947 में विभाजन के वक्त उनके परिवार के सदस्यों की उनकी आंखों के सामने ही हत्या कर दी गई। वह उस दौरान 16 वर्ष के थे. उन्होंने एक बातचीत में बताया था कि “हम अपना गांव (गोविंदपुरा, आज के पाकिस्तानी पंजाब में मुजफ्फरगढ़ शहर से कुछ दूर पर बसा गांव) नहीं छोड़ना चाहते थे. जब हमने विरोध किया तो इसका अंजाम विभाजन के कुरुप सत्य के रूप में हमें भुगतना पड़ा. चारो तरफ खूनखराबा था। उस वक्त मैं पहली बार रोया था.” उन्होंने कहा कि भारत के विभाजन के बाद जब वह दिल्ली पहुंचे, तो पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उन्होंने कई शव देखे. उनके पास खाने के लिए खाना और रहने के लिए छत नहीं थी. मिल्खा ने कहा कि 1960 के रोम ओलिंपिक में एक गलती के कारण वह चार सौ मीटर रेस में सेकेंड के सौवें हिस्से से पदक चूक गए. उस वक्त भी वह रो पड़े थे। मिल्खा ने कहा कि वह 1960 में पाकिस्तान में एक दौड़ में हिस्सा लेने जाना नहीं चाहते थे. लेकिन, प्रधानमंत्री नेहरू के समझाने पर वह इसके लिए राजी हो गए. उनका मुकाबला एशिया के सबसे तेज धावक माने जाने वाले अब्दुल खालिक से था. इसमें जीत हासिल करने के बाद उन्हें उस वक्त पाकिस्तान के राष्ट्रपति फील्ड मार्शल अय्यूब खान की ओर से ‘फ्लाइंग सिख’ का नाम मिला.
सुविधाओं के अभावों में सफलताएं पाई
मिल्खा सिंह ने खेलों में उस समय सफलता प्राप्त की जब खिलाड़ियों के लिए कोई सुविधाएं उपलब्ध नहीं थीं, न ही उनके लिए किसी ट्रेनिंग की व्यवस्था थी. आज इतने वर्षों बाद भी कोई एथलीट ओलंपिक में पदक पाने में कामयाब नहीं हो सका. रोम ओलंपिक में मिल्खा सिंह इतने लोकप्रिय हो गए थे कि जब वह स्टेडियम में घुसते थे,दर्शक उनका जोशपूर्वक स्वागत करते थे. यद्यपि वहाँ वह टॉप के खिलाड़ी नहीं थे, परन्तु सर्वश्रेष्ठ धावकों में उनका नाम अवश्य था. उनकी लोकप्रियता का दूसरा कारण उनकी बढ़ी हुई दाढ़ी व लंबे बाल थे. लोग उस वक्त सिख धर्म के बारे में अधिक नहीं जानते थे. अत: लोगों को लगता था कि कोई साधु इतनी अच्छी दौड़ लगा रहा है. उस वक्त ‘पटखा’ पहनने का चलन भी नहीं था, अत: सिक्ख सिर पर रूमाल बांध लेते थे. मिल्खा सिंह की लोकप्रियता का एक अन्य कारण यह था कि रोम पहुंचने के पूर्व वह यूरोप के टूर में अनेक बड़े खिलाडियों को हरा चुके थे और उनके रोम पहुंचने के पूर्व उनकी लोकप्रियता की चर्चा वहाँ पहुंच चुकी थी.
जीवन की दो महत्वपूर्ण घटनाएं
मिल्खा सिंह के जीवन में दो घटनाएं बहुत महत्वपूर्ण थी. पहली भारत-पाक विभाजन की घटना जिसमें उनके माता-पिता का कत्ल हो गया तथा अन्य रिश्तेदारों को भी खोना पड़ा. दूसरी रोम ओलंपिक की घटना, जिसमें वह पदक पाने से चूक गए.
दौड़ का इतिहास रचा
टोक्यो एशियाई खेलों में मिल्खा ने 200 और 400 मीटर की दौड़ जीतकर भारतीय एथलेटिक्स के लिए नये इतिहास की रचना की. मिल्खा ने एक स्थान पर लिखा था, ‘मैंने कि पहले दिन 400 मीटर दौड़ में भाग लिया. जीत का मुझे पहले से ही विश्वास था, क्योंकि एशियाई क्षेत्र में मेरा कीर्तिमान था. शुरू-शुरू में जो तनाव था वह स्टार्टर की पिस्तौल की आवाज के साथ रफूचक्कर हो गया. आशा के अनुसार मैंने सबसे पहले फीते को छुआ. मैंने नया रिकार्ड कायम किया था. जापान के सम्राट ने मेरे गले में स्वर्ण पदक पहनाया। उस क्षण का रोमांच मैं शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता. अगले दिन 200 मीटर की दौड़ थी. इसमें मेरा पाकिस्तान के अब्दुल खालिक के साथ कड़ा मुकाबला था. खालिक 100 मीटर का विजेता था. दौड़ शुरू हुई. हम दोनों के कदम एक साथ पड़ रहे थे.फिनिशिंग टेप से तीन मीटर पहले मेरी टांग की मांसपेशी खिंच गयी और मैं लड़खड़ाकर गिर पड़ा. मैं फिनिशिंग लाइन पर ही गिरा था. फोटो फिनिश में मैं विजेता घोषित हुआ और एशिया का सर्वश्रेष्ठ एथलीट भी. जापान के सम्राट ने उस समय मुझसे जो शब्द कहे थे वह मैं कभी नहीं भूल सकता. उन्होंने मुझसे कहा था कि “दौड़ना जारी रखोगे तो तुम्हें विश्व का सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त हो सकता है, दौड़ना जारी रखो.” मिल्खा सिंह ने बाद में खेल से सन्न्यास ले लिया था और भारत सरकार के साथ खेलकूद के प्रोत्साहन के लिए काम करना शुरू किया. वे चंडीगढ़ में रहते थे.
उपलब्धियां
मिल्खा सिंह ने 1958 के एशियाई खेलों में 200 मी व 400 मीटर में स्वर्ण पदक जीता. 1962 के एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक हासिल किया और 1958 के कॉमनवेल्थ खेल में स्वर्ण पदक जीता था.
91 साल में निधन हुआ
देश के लाखों लोगों के दिलों में बसने वाले मिल्खा सिंह का कल 18 जून 2021 को चंड़ीगढ में कोरोना संक्रमण से निधन हो गया। वे भारत के गौरव और महान धावक थे।
दुनियां को बड़ी सीख दे गए
मिल्खा सिंह पूरी दुनिया को ये सीख दे गए जब जीतने के लिए दौड़ो तो पीछे मुड़ कर मत देखो. अलविदा पद्मश्री फ्लाईंग सिक्ख मिल्खा सिंह। आलेख: तेजपाल सिंह हंसपाल