Weekly Column By Sukant Rajput : दैनिक नवप्रदेश में सुकांत राजपूत द्वारा इस साप्ताहिक स्तंभ बातों…बातों में देश से लेकर प्रदेश तक के सियासी और नौकरशाही से ताल्लुक रखती वो बातें हैं जिसे अलहदा अंदाज़ में सिर्फ मुस्कुराने के लिए पेश किया जा रहा है।
लखमा, चकमा और किस्मत…
कांग्रेस में उम्मीदवारों के चेहरे बदल जाते हैं और कई दफे किस्मत भी बदल जाने के अनेक उदाहरण हैं। बस्तर लोकसभा से कांग्रेस प्रत्याशी कवासी लखमा भी ऐसे ही अनूठे पार्टी प्रत्याशी हैं जिनके नाम पर लखमा, चकमा और उनके सितारे हमेशा से बुलंदियों पर रहे हैं। पहले किस्मत की बात करें तो झीरम कांड में उन्हें खुशकिस्मती से चाबी लगी बाइक मिल गई थी। बम और फिर अंधाधुंध गोलियों की बौछार के बीच वे सलामती से बच निकले थे। हालांकि बाद में उन्हें तबियत बिगड़ने की वजह से रायपुर के एक निजी अस्पताल में बिस्तर पर किसी ख़ौफ़ज़दा मासूम बच्चे की तरह बैठे देखा गया था। वहीं घटना से आहत डॉ. चरणदास महंत ने लखमा के सकुशल होने पर ख़ुशी का अपने ही अंदाज़ में इज़हार भी किया था। वैसे ही बहू लेने गए थे और किस्मत से इस उम्र में भी उन्हें पार्टी ने दुल्हन थमा दी, यह भी तारीफे काबिल है। किस्मत के धनी लखमा अगर जीत गए तो उनकी विधानसभा सीट भी बेटे को बतौर दुल्हन मिलना तय है।
कांग्रेस को समर्पित सिंहदेव…
कांग्रेस में किस्मत के साथ समर्पण का प्रदर्शन भी जरुरी है। ये बात उनके लिए भी लागू होती है जो पूर्व में भले ही अपनी समर्पित पार्टी प्रत्याशी के खिलाफ लड़ चुके हों। चुनावी माहौल में बातों-बातों में प्रदेश कांग्रेस के सबसे समर्पित नेताओं के नामों पर चर्चा हो रही थी। इसमें सरगुजा महाराज टीएस सिंहदेव का नाम लिया जाना लाजमी था। भूपेश सरकार के बीते 5 साल के कार्यकाल में उनकी अनदेखी, उनके बयानों और नीतिगत नाराजगी के बाद हल्ला मच गया था कि महाराज साहब कांग्रेस से बीजेपी जा सकते हैं। कथित तौर पर उनके एमपी के रिश्तेदार के मार्फ़त दिल्ली की मुलाकात का भी हल्ला मचा था। फिर कभी जोगी कांग्रेस में जाने की अटकलें लगाई गईं, लेकिन महाराज नहीं गए। उन्होंने समर्पण दिखाते हुए बयान दिया था कि राजनीति छोड़ सकता हूं पर बीजेपी नहीं जाऊंगा। एक राजा, एक क्षत्रिय फ़िलहाल कांग्रेस में ही हैं। तभी बातों ही बातों में उनके एक करीबी ने राजफाश किया कि अगर ‘बाबा’ इतने ही समर्पित थे तो दो पत्ती छाप में निकाय चुनाव कांग्रेस प्रत्याशी के खिलाफ क्यों लड़े थे..?
जाति फर्जी तो कार्यकाल ही शून्य…
आजादी के बाद कांग्रेस ने 70 बरस राज किया है, तो जाहिर तौर पर लोकतंत्र की इज्जत करने वाले अनूठे किस्से भी उसी के होंगे न। राज्य निर्माण के बाद ही प्रथम मुख्यमंत्री बनने की होड़ यूं तो शुक्ल परिवार में भी थी और जन्नतनशीं जोगी में भी। वैसे बस्तर टाइगर भी दौड़ में थे, लेकिन उन्हें शांत कर दिया गया था। खैर, प्रथम आदिवासी मुख्यमंत्री, विधायक, सांसद रहा जोगी परिवार बागी होकर नई पार्टी बनाकर सुबाई सियासत में बने रहे थे। जैसे ही कांग्रेस आई और भूपेश बघेल सरकार जोगी की जाति पर ऐसा दांव खेल दिया कि सभी अपात्र कर दिए गए। वैसे तो जोगी परिवार की जाति को लेकर पूर्व में डॉ. रमन सरकार के दौरान भी सच्चाई से पर्दा उठाने की कोशिश की गई थी। आखिरकार भूपेश बघेल सरकार के दौरान पूरे परिवार को गैर आदिवासी करार दे ही दिया गया। जब चुनाव से ही जोगी परिवार को रोक दिया गया इसका सीधा मतलब है कि उनकी दर्शाई गई जाति वो नहीं जिसे बताकर वे मुख्यमंत्री, बने, विधायक रहे और तो सांसदी भी शून्य होनी चाहिए। बातों ही बातों में कांग्रेस से लेकर बीजेपी दफ्तर में लोकतंत्र के पुजारियों से कार्यकाल को शून्य करने पर सवाल किया गया तो सभी बगलें झाँकने लगे।
पं. विद्या भइया की पंडिताई…
स्व. पंडित विद्याचरण शुक्ल जिस पार्टी में थे वहां जात, पात और धर्म की राजनीति चाहकर भी करना सख्त मना था। अपनी सियासी पंडिताई और राजशाही शौक वाला उनका व्यक्तित्व आज भी चर्चा का विषय है। चुनावी माहौल में उनकी बेसाख्ता सी यादें आते ही एक चौंकाने वाली बात पता चली। वैसे तो उनकी यह टिप्पणी कांग्रेस विचारधारा से मेल नहीं खाती फिर भी एक पुराने कांग्रेसी ने बताया कि विद्या भइया ने एक दफा ब्राम्हणों से कथित तौर पर कहा था कि सभी ब्राम्हणों को अपने नाम के आगे पंडित लिखना चाहिए…! इसमें कितनी सच्चाई है इसका दावा हम नहीं करते.. लेकिन ज़ेहन में यह सवाल भी कौंध गया कि क्या पंडित लिखने मात्र से ही आचरण भी पांडित्यपूर्ण हो जाता है या…?
महाराजा या महाराज कौन भारी…
सियासी रंगत में होली के रंगों से ज्यादा रंग है। इतने रंग हैं कि गिरगिट भी शरमा जाये। रंगों और रंगत से सरगुजा लोकसभा की याद आना लाजमी है। बीजेपी से कांग्रेस फिर बीजेपी जाने वाले चिंतामणि महाराज पर पहले ही शशि की छाया है। अब क्षेत्र में महाराजा या महाराज कौन होगा भारी, पर चर्चा आम है। फ़िलहाल सरगुजा में धोती और चूड़ीदार पायजामे के बीच नूरा कुश्ती जारी है। भूपेश सरकार में देन-लेन के दाग तो वाशिंग मशीन में धुल गए हैं, लेकिन कानाफूसी तो जारी है। वैसे शशि के लिए भी बृहस्पत भरी हैं फिर अमरजीत भी खौराए हुए हैं। माफ़ी के बाद भी बृहस्पत की वापसी पर फैसला अटका हुआ है और पार्वतीपुर के रहवासी, लेकिन सीतापुर से चुनाव लड़ने वाले अमरजीत भगत भी ईडी-आईटी से परेशान हैं। उस पर लोकसभा टिकट के सपने पर भी पानी फिर गया है। ऐसे में कांग्रेस और भाजपा नहीं बल्कि चिंतामणि महाराज की चिंता एक बराबर है।
मोदी, बिलगेट्स और भोजराज नाग…
प्रधानमंत्री मोदी देश को अंतरिक्ष और विज्ञान के क्षेत्र में बहुत आगे ले जाने प्रयासरत हैं। इसलिए बिलगेट्स से मिलकर जिस दिन पीएम नरेंद्र मोदी एआई के भविष्य पर बात कर रहे थे, ठीक उसी दिन उनके ही एक सांसद प्रत्याशी भोजराज नाग अंधविश्वास की पैरवी करते दिख रहे थे। एक ही पार्टी, एक ही मोदी गारंटी और देश को तकनीक में नई ऊंचाइयों वाली विचारधारा को केंद्र में फिर से स्थापित करने वाले ऐसे भी प्रत्याशी की चर्चा आम हो रही है जो नीबू काटकर ही सारे मर्ज़ का इलाज करने का दम रखते हैं। उनका बसचले तो बिना तामझाम के सिर्फ एक नीबू काटकर ही केंद्र में बीजेपी सरकार बना सकते हैं। क्या भाजपा की केंद्रीय चुनाव समिति के वरिष्ठों को प्रत्याशी, भविष्य के भारत के लिए भोजराज नाग का बेहतरीन उपाय ही उपयुक्त होगा..?