आशीष वशिष्ठ। Uniform Civil Code : राष्ट्रीय स्तर पर यूनिफॉर्म सिविल कोड की कई बार चर्चा तो की गई, लेकिन अभी तक इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठ पाया। अभी देश के केवल एक ही राज्य गोवा में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू है। इसे पुर्तगाली शासन के दौरान ही लागू किया गया था। वर्ष 1961 में गोवा सरकार यूनिफॉर्म सिविल कोड के साथ बनी थी। अब उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने यूनिफॉर्म सिविल कोड पर कमेटी बनाने की घोषणा की है। साथ ही उत्तर प्रदेश में भी इसे लागू करने की तैयारी चल रही है। वास्तव में समान नागरिक संहिता का मुद्दा भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख वायदों में से एक है। इसीलिए अब भाजपा शासित राज्यों में इसे लागू करने की प्रक्रिया शुरू हो रही है।
वास्तव में यहां प्रश्न हिंदू और मुसलमान का धार्मिक आजादी का नहीं है, बल्कि बुनियादी सरोकार यह है कि एक संप्रभु राष्ट्र में, एक ही समान कानून की व्यवस्था क्यों नहीं है? अलग-अलग धर्मों, जातियों, संप्रदायों से लेकर कबीलों तक अपने-अपने ‘पर्सनल लॉÓ हैं। क्या यही भारत की ‘अनेकता में एकता’ की संवैधानिक स्थिति है? अहम प्रश्न यह है कि यदि संविधान, संसद और संप्रभुता एक हैं, तो अलग-अलग कानून क्यों हैं? संविधान का राज होगा अथवा शरियत का कानून भी चलता रहेगा? यदि एक देश और एक ही राशन कार्ड और चुनाव के विमर्श चल सकते हैं और वह कानूनी व्यवस्था भी बन सकती है, तो सभी नागरिकों, धार्मिक-मजहबी समुदायों और नस्लों के लिए एक ही कानून लागू क्यों नहीं किया जा सकता? देश का संचालन संविधान से ही होगा।
वर्ष 1772 में भारत में ब्रिटिश हुकूमत के गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स ने न्यायिक सुधारों की शुरुआत की और शादी-निकाह, उत्तराधिकार और अन्य धार्मिक मामलों में आदेश जारी किया था कि मुसलमानों से संबद्ध कुरान के कानूनों और हिंदुओं के लिए शास्त्रों से जुड़े कायदे-कानूनों का पालन किया जाए। 1947 में भारत स्वतंत्र राष्ट्र बना, तो उसके प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और प्रथम कानून मंत्री डॉ. भीमराव अंबेडकर ने समान नागरिक संहिता लागू करने की कोशिशें कीं। उससे पहले संविधान सभा में इस मुद्दे पर बहसों के दौरान अंबेडकर को उग्र विरोध झेलना पड़ा था।
वर्ष 1954-55 में भारी विरोध के बावजूद तत्कालीन प्रधानमंत्री (Uniform Civil Code) जवाहर लाल नेहरू हिंदू कोड बिल लाए थे। इसके आधार पर हिंदू विवाह कानून और उत्तराधिकार कानून बने। यानी हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख समुदायों के लिए शादी, तलाक, उत्तराधिकार जैसे नियम तो संसद में तय कर दिए गए। लेकिन मुस्लिम, ईसाई और पारसी समुदायों को अपने-अपने धार्मिक कानून यानी पर्सनल लॉ के अनुसार चलने की छूट दे दी गई।
ये छूट नागा आदि कई आदिवासी समुदायों को भी प्राप्त हुई, जो अपनी परंपरा के हिसाब से कानूनों का पालन करते हैं। दूसरी ओर मुस्लिम पर्सनल लॉ भी पूरी तरह सभी मुसलमानों के लिए समान नहीं हैं। उदाहरण के तौर पर देखें तो कुछ बोहरा मुसलमान उत्तराधिकार के मामले में हिंदू कानूनों के सिद्धांतों का पालन करते हैं। वहीं संपत्ति और उत्तराधिकार के मामलों में अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग कानून हैं। पूर्वोत्तर भारत के ईसाई बहुल राज्यों जैसे कि नागालैंड और मिजोरम में अपने पर्सनल लॉ हैं और वहां पर अपनी प्रथाओं का पालन होता है न कि धर्म का।
तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू हिंदू कोड बिल तक ही सीमित रहे और उसे लागू कराया। उसकी परिधि में सिख, जैन, बौद्ध आदि को भी रखा गया। नतीजा यह हुआ कि देश में द्विपत्नी और बहुपत्नी सरीखी कुप्रथाओं को समाप्त किया जा सका। महिलाओं को भी तलाक और विरासत के अधिकार हासिल हुए। शादी के लिए धर्म, जाति और नस्ल को अप्रासंगिक बनाना शुरू हुआ। समय बीतता गया। 1985 के एक विशेष केस के जरिए सर्वोच्च न्यायालय ने संहिता का मामला उठाया। 2016 में राष्ट्रीय विधि आयोग ने भी एक मसविदा जारी किया।
इतिहास के पन्ने पलटकर देखें तो एक दल जहां समान नागरिक संहिता को अपना एजेंडा बताता रहा है, वहीं दूसरी पार्टियां इसे अल्पसंख्यकों के खिलाफ सरकार की राजनीति बताती रही हैं। जाहिर है, एक दल को अगर वोटबैंक के खिसक जाने का डर है तो, दूसरे को वोटबैंक में सेंध लगाने की फिक्र है। दरअसल, सियासी दलों का यह डर पुराना है। जब 1948 में हिन्दू कोड बिल संविधान सभा में लाया गया, तब देश भर में इस बिल का जबरदस्त विरोध हुआ था। बिल को हिन्दू संस्कृति तथा धर्म पर हमला करार दिया गया था। सरकार इस कदर दबाव में आ गई कि तत्कालीन कानून मंत्री भीमराव अंबेडकर को पद से इस्तीफा देना पड़ा। यही कारण है कि कोई भी राजनीतिक दल समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर जोखिम नहीं लेना चाहता।
इस कानून को लागू करने में मुख्य समस्या यह है कि लोगों को समान नागरिक संहिता के बारे में सही जानकारी नहीं है या उन्हें गलत जानकारी देकर भरमाया जा रहा है। लोगों को लग रहा है कि समान नागरिक संहिता से शादी नहीं होगा, पूजा या नमाज बंद हो जाएगी, पाबंदियां लग जाएंगी जबकि ऐसा कुछ नहीं है। इस कानून का धर्म से कोई लेना देना नहीं है।
मुसलमानों को लगता है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड उनके धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप है। जबकि इसमें महिला और पुरुषों को समान अधिकार की बात है। इसका धर्म से कोई लेना देना नहीं है।
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और अन्य धार्मिक संगठनों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा इसलिए वे नहीं चाहते कि वे अप्रासंगिक हो जाएं। समान नियम के खिलाफ मुस्लिम संगठन तर्क देते हैं कि संविधान में सभी को अपने धर्म का पालन करने का अधिकार है और इसलिए वे इसका विरोध करेंगे। पर समझना यह है कि दुनिया के 125 देशों में एक समान नागरिक कानून लागू है। देश के विभिन्न न्यायालयों में अलग-अलग धर्मों से जुड़े मामलों के कारण न्यायालयों पर भारी बोझ पड़ता है और मामलों के निपटारे में भी अधिक समय लगता है। लेकिन यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू होने के बाद न्यायालयों में लंबित पड़े मामलों के फैसले शीघ्र होंगे और इस तरह न्यायपालिका के बोझ में कमी आएगी।
इसके लागू होने के बाद राष्ट्रीय एकता सुदृढ़ होगी और देश की राजनीति में भी सुधार आने की उम्मीद है। समान संहिता लागू होने पर विवाह, विरासत, उत्तराधिकार समेत विभिन्न मुद्दों से संबंधित जटिल कानून सरल बनेंगे और सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू होंगे। समाजशास्त्रियों का मत है कि, आधुनिक भारतीय समाज एकरूप होता जा रहा है। धर्म, जाति और समुदाय के पारंपरिक अवरोध समाप्त हो रहे हैं। समाज में तेजी से हो रहे बदलाव की वजह से अंतरधार्मिक और अंतरजातीय विवाह या तलाक में परेशानियां हो रही हैं। युवा पीढ़ी को इन दिक्कतों का सामना न करना पड़े, लिहाजा समान नागरिक संहिता का होना जरूरी है।
कानूनविदें की दृष्टि से देखें तो वर्तमान में मौजूद सभी व्यक्तिगत कानूनों में लैंगिक पक्षपात की समस्या है, जिसे समान नागरिक संहिता लागू करके दूर किया जा सकेगा। समान नागरिक संहिता महिलाओं, धार्मिक अल्पसंख्यकों व संवेदनशील वर्गों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करेगी। साथ ही इसकी एकरूपता से देश में राष्ट्रवादी भावना को बल मिलेगा। इसलिए समान नागरिक संहिता देश में लागू होना बहुत जरूरी है, जिसके बाद कई विवाद स्वत: ही सदा के लिए समाप्त हो जाएंगे।
भारत जैसे देश में संस्कृति की बहुलता (Uniform Civil Code) होने से न केवल निजी कानूनों में बल्कि रहन-सहन से लेकर खान-पान तक में विविधता देखी जाती है और यही इस देश की खूबसूरती भी है। ऐसे में जरूरी है कि देश को समान कानून में पिरोने की पहल अधिकतम सर्वसम्मति की राह अपना कर की जाए। ऐसी कोशिशों से बचने की जरूरत है जो समाज को धुव्रीकरण की राह पर ले जाएं और सामाजिक सौहाद्र्र के लिए चुनौती पैदा कर दें।