राजीव खंडेलवाल। Umesh Pal Murder : अतीक गैंग के कारण जिस किसी ने अपना कोई खोकर जो दर्द वे सब अभी तक झेल रहे हैं, उससे कहीं ज्यादा दर्द को अब अतीक का बचा शेष परिवार झेलेगा। ‘न्यायÓ तो हुआ हां! यदि मीडिया में प्रचारित अतीक के 40 साल के राजनैतिक सत्ता के साथ युक्त आपराधिक जीवन का अध्याय सच है तो? उत्तर प्रदेश शासन-प्रशासन व पुलिस की उक्त सफलता पर बधाई। परंतु यह सिक्के का मात्र एक पहलू है। सिक्के के हमेशा दो पहलू होते है। इसका दूसरा पहलू निश्चित रूप से चिंताजनक है। क्योंकि उक्त ‘न्यायÓ ‘अन्यायÓ के द्वारा किया गया प्रतीत होता है। यह समझने के लिए एनकाउंटर का कानूनी अर्थ समझ लिया जाए। एनकाउंटर का शाब्दिक हिन्दी अर्थ मुठभेड़ (भिड़ंत) है।
इसका सामान्य अर्थ हिसांत्मक संघर्ष है। सामान्यतया अपराधी पर काबू पाने के लिए जवाबी कार्रवाई के दौरान किए गया बल प्रयोग ”एनकाउंटरÓÓ कहलाता है। किंतु इसमें कही भी मृत्यु को सुनिश्चित करना अंतर्निर्मित (इनबिल्ट) नहीं है, जैसा कि आजकल ‘एनकाउंटरÓ शब्द में मृत्यु (हत्या) शामिल है, चलन में ऐसा स्वयमेव मान लिया जाता है। जैसा कि शहीद पुलिस परिवार ने स्वयं अतीक अहमद परिवार के ”एनकाउंटरÓÓ की मांग मतलब मौत की की है। इससे यह समझा जा सकता है कि एनकाउंटर शब्द के अर्थ को कितना अनर्थ बना दिया है। एनकाउंटर यानी मुठभेड़ में आरोपी पकड़ा जा सकता है, घायल हो सकता है, भाग भी जाता है, और अपरिहार्य परिस्थितियों में अंतिम स्थिति में मारा भी जा सकता है। परन्तु ”सिर्फ और सिर्फ मारा ही नहीं जायेगाÓÓ?
भारतीय कानून व संविधान में एनकाउंटर कही भी उल्लेखित या परिभाषित नहीं है। परन्तु उच्चतम न्यायालय ने पी.यू.सी.एल विरूद्ध महाराष्ट्र राज्य (2014) में दिए गए निर्णय में एनकाउंटर के संबंध में 16 सूत्रीय दिशा-निर्देश निर्धारित किये है जिसमें धारा 176 के अंतर्गत अनिवार्य स्वतंत्र मजिस्ट्रेट जांच व मानवाधिकार आयोग को सूचना देना शामिल है। पुलिसकर्मियों के खिलाफ तुरंत प्रभाव से आपराधिक एफआईआर दर्ज कर धारा 157 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट को सूचना देना भी आवश्यक है। वर्तमान परिस्थितियों में बढ़ते हुए एनकाउंटर व तदनुसार विवादों पर रोक लगाने के लिए दिये उच्चतम न्यायालय को उक्त 16 सूत्री निर्देश के अतिरिक्त पुलिस जांच दल के साथ एक वीडियोग्राफर के रहने के भी निर्देश भविष्य में देना चाहिए, ताकि पूरी घटना की रिकॉर्डिंग हो सके। यानी कि ”ऊंट की चोरी झुके झुके नहीं हो सकतीÓÓ।
इससे पुलिस जांच दल की कार्रवाई पर कोई उंगली उठ ही नहीं पायेगी। साथ ही राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी एनकाउंटर के संबंध में वर्ष 1997 में दिशा निर्देश जारी किए हैं। अत: मजिस्ट्रेट जांच के बाद ही इस एनकाउंटर की सत्यता सिद्ध हो पायेगी। एनकाउंटर होना न तो कोई नई बात है और न ही अवैधानिक। किंतु याद रहे कि ”विधान इंसान के लिये है, इंसान विधान के लिये नहींÓÓ। पुलिसिया अनुसंधान प्रक्रिया में आरोपी को गिरफ्तार करने से लेकर गिरफ्त में आए व्यक्ति के छूटकर भाग जाने की कोशिश में एनकाउंटर एक अंतिम कड़ी के रूप में वैधानिक है, जिसका उपयोग (दुरुपयोग नहीं?) परिस्थितियों की मांग अनुसार होना चाहिए।
परंतु निश्चित रूप से अपराधियों से निपटने के लिए उनके खौफ को समाप्त करने लिए एनकाउंटर एक सामान्य कानूनी प्रक्रिया नहीं है। एक बात और एनकाउंटर का मतलब कदापि यह नहीं है कि हर आरोपी को मौत के घाट ही उतार दिया जाए। ”ककड़ी चोर के कान उमेठना ही काफी होता हैÓÓ। आरोपी द्वारा सुरक्षाबलों पर बल प्रयोग फिर चाहे गोली चलाई जाए या अन्य किसी तरीके से जान को गंभीर खतरा होने पर ही आत्मरक्षार्थ आरोपी पर गोली चलाई जानी चाहिए। इसका भी एक नियम यह है की गोली सामान्यत: कमर के नीचे मारी जाती है, सिर या छाती में नहीं, जब तक की यह आशंका प्रबल न हो कि यदि आरोपी को तुरंत गोली मारकर मार नहीं गिराया गया, तो उसकी गोली से सुरक्षा बल को हानि हो सकती है।
ये सब बातें कानून की किताबों में और न्यायालय के निर्णयों में लिखी और सुनाई जाकर मात्र ”शोभायमानÓÓ होकर व्यवहार में ”गूलर का फूलÓÓ हो गयी है। जैसे कि वर्तमान मामले में असद व शूटर गुलाम दोनों को सीने पर गोली लगने के बाद मोटरसाइकिल से गिरने के बावजूद उसके हाथ में पिस्टल थी, यह तथ्य भी संयोग ही कहा जा सकता है? पिछले कुछ समय से खासकर उत्तर प्रदेश जो देश का ”उत्तम प्रदेशÓÓ होने के लिए तड़प रहा है, में एनकाउंटर एक विजय रूपी घमंड का सूचक और चिन्ह सा बन गया है। यानी ”ख़ुद ही नाचे, और ख़ुद ही निछावर करेÓÓ। परिणाम स्वरूप योगी सरकार में वर्ष 2017 से अभी तक 183 एनकाउंटर हो चुके हैं। क्या भारतीय आपराधिक कानून में ऐसे दुर्दांत अपराधियों को न्यायालय द्वारा सजा नहीं दिलाई जा सकती है, जो एनकाउंटर करके दी जा रही है?
यदि कानून, कानून व्यवस्था, तंत्र इतनी लचर, कमजोर व निष्प्रभावी हो गई है, तो उसमें निश्चित रूप से आमूलचूल परिवर्तन करने की तुरंत आवश्यकता है। ”आंख के बदले आंखÓÓ ”कान के बदले कानÓÓ अथवा ”जान के बदले जानÓÓ दुर्दांत अपराधियों के संबंध में देश की जनता के एक वर्ग को शायद सुहा सकता है, क्योंकि जनता कभी-कभी भावुक हो जाती है। परंतु कानून का आवरण पहनाकर ऐसी सजा की स्वीकृति सभ्य समाज कदापि नहीं दे सकता है। यह लोकतांत्रिक देश भारत है, कट्टरवादी मुस्लिम राष्ट्र नहीं जहां ”शरिया कानूनÓÓ अनुसार सजा दी जाती है।
एक और तथ्य एनकाउंटर के संबंध में कानूनी रूप से सर्वमान्य है, वह यह की एनकाउंटर प्लांट (पूर्व निर्धारित) कभी नहीं होता है, बल्कि परिस्थितियों वश अचानक, अनचाहे हो जाता है। सिवाय आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ में जहां निश्चित रूप से पूर्ण योजनाबद्ध तरीके से उन्हें समाप्त करना होता है, जो देश की सुरक्षा के लिए आवश्यक है। परन्तु वह एनकाउंटर नहीं है।
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व सुधार न्यास अध्यक्ष है
इस लेख का उद्देश्य और भावना किसी भी दुर्दांत अपराधी के प्रति सहानुभूति बटोरना, पैदा करना कदापि नहीं है। किन्तु मात्र इस आरोप की आशंका से एनकाउंटर के कानूनी-मानवीय पक्ष की अनदेखी कर दी जाए, वह भी उचित नहीं होगा। क्योंकि हम एक सभ्य संस्कृति व संविधान तथा कानून का पालन करने वाले समाज के अभिन्न अंग हैं। पूर्व में हमारे देश के दो-दो प्रधानमंत्रियों की हत्या हो चुकी है। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश में जाति विशेष का बड़े पैमाने पर नरसंहार हो जाता है। तब भी ऐसे हत्यारों को भारतीय वकील (राम जेठमलानी जैसे प्रतिष्ठित) मिल जाते है, और उन्हें फांसी की सजा नहीं होती है।
तब वकील पर प्रश्नचिन्ह नहीं उठाया जाता है क्योंकि वकील का धर्म ही वकालत करना है, ऐसा मानकर संतोष कर लिया जाता है। तब ऐसे गंभीर प्रश्नों को उठाने वालों पर क्यों उंगली उठाई जानी चाहिए? उमेश पाल हत्याकांड के हत्यारों को पारदर्शी कानूनी प्रक्रिया अपनाकर फांसी पर लटका कर या वैधानिक एनकाउंटर कर अपने दायित्व की पूर्ति करने का प्रयास सरकार ने क्यों नहीं किया?
बजाए इसके सरकार व पार्टी द्वारा एनकाउंटर करने के पूर्व वैसा वातावरण (Umesh Pal Murder) बनाया जाकर शासन व पार्टी स्तर पर पूर्व में कही गई भविष्यवाणी को वास्तविकता में परिणत कर एनकाउंटर करने के कदम की राजनीतिक माइलेज लेने का प्रयास करना सही नहीं ठहराया जा सकता है। ठीक इसी प्रकार विरोधी दलों द्वारा घटना की राजनीतिक दृष्टि से आलोचना कर माइलेज लेना भी गलत है। परन्तु राजनीति जो न कराए वह थोड़ा है।