नीरज मनजीत
Trump’s return suits India: वैश्विक समुदाय की निग़ाहें इस बात पर टिकी होंगी कि ट्रंप मिडिल ईस्ट और रूस यूक्रेन के युद्ध किस तरह रोकते हैं। ट्रंप ने कई दफा कहा है कि वे नाटो गठबंधन में अमेरिका की हिस्सेदारी कम करेंगे। अगर वे ऐसा कर पाए तो इन युद्धों की तासीर वैसे ही ठंडी पड़ जाएगी। दुनिया के ताक़तवर हलके देखना चाहते हैं कि ट्रंप के आने के बाद रूस और चीन को लेकर अमेरिका की नीतियाँ क्या होंगी? स्पष्ट है कि ट्रंप के कार्यकाल के चार वर्ष पूरी दुनिया और अमेरिका के लिए काफी अहम और रोमांचक साबित होने वाले हैं।
आइए सबसे पहले यह देखें कि ट्रंप घरेलू मोर्चे पर चुनौतियों से कैसे निबटते हैं। पिछले दो ढाई दशकों से अमेरिका अवैध अप्रवासियों के मसले से जूझ रहा है। एक मोटे अनुमान के मुताबिक अमेरिका में इस वक़्त एक करोड़ तीस लाख घुसपैठिए रह रहे हैं। ट्रंप ने पिछले कार्यकाल में भी इन घुसपैठियों के खि़लाफ़ सख़्त रुख अपनाया था, मगर 2020 में जो बाइडेन और कमला हैरिस के आने के बाद ये सख़्ती ढीली पड़ गई।
दरअसल बाइडेन प्रशासन और कमला हैरिस इन घुसपैठियों के प्रति उदारवादी रवैया अपना रहे थे। कहीं न कहीं इसका ख़ामियाज़ा अमेरिकी नागरिकों को भुगतना पड़ रहा है। इन घुसपैठियों में अधिकांश मेक्सिको से भागकर अमेरिका में घुसे हुए हैं। मेक्सिको में गऱीबी और बेरोजगारी चरम पर है। बहुत से मुस्लिम देशों के घुसपैठिए भी अमेरिका में हैं। ये लोग वहाँ छोटे मोटे काम करते हैं। कहा जाए तो मानवीय संवेदनाओं के आधार पर इन्हें वापस नहीं भेजा जाना चाहिए, मगर दिक़्क़त तब पैदा होती है, जब ये लोग अपराध और मादक पदार्थों के धंधे में उतर जाते हैं और माफिया गैंग्स इन्हें इस्तेमाल करने लगते हैं। इसीलिए ट्रंप इन अवैध प्रवासियों को बाहर निकाल कर एक शुद्ध अमेरिका बनाना चाहते हैं।
सच कहा जाए तो आज यूरोप का एक बड़ा हिस्सा अवैध घुसपैठियों के मसले से परेशान है। फ्रांस, जर्मनी, फिऩलैंड, इंग्लैंड और पोलैंड ने तो इन घुसपैठियों को नियंत्रित करने और उन्हें बाहर निकालने के लिए कड़े कानून बना दिए हैं। भारत में भी अवैध बांग्लादेशी और रोहिंग्या मुसलमानों की घुसपैठ की समस्या धीरे धीरे विकराल रूप लेती जा रही है।
हमारे यहाँ की राजनीतिक व्यवस्था कुछ इस क़दर बिगड़ी हुई है कि केन्द्र की भाजपा सरकार और पीएम मोदी के अंधविरोध के चलते इन घुसपैठियों को आसानी से पनाह मिल जाती है। एक मोटे अनुमान के मुताबिक भारत में पाँच करोड़ से ज़्यादा घुसपैठिए रह रहे हैं। केन्द्र सरकार के लिए परेशानी का सबब यह है कि इनमें अधिकांश घुसपैठिए आसानी से पाकिस्तान की ख़ुफिय़ा एजेंसी आईएसआई के भारत विरोधी एजेंडे में शामिल हो जाते हैं। ऐसे हालात में अगर अमेरिका भारत और यूरोप अवैध घुसपैठियों के प्रति सख़्त रवैया अपना रहे हैं, तो यह कहीं से भी ग़लत नहीं है।
जहाँ तक यूक्रेन युद्ध रोकने की बात है, तो ट्रंप के लिए यह काम मुश्किल नहीं होना चाहिए। रूस यूक्रेन युद्ध के पीछे की सबसे बड़ी वजह यह है कि यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेन्स्की अपने देश को नाटो में शामिल करने की जि़द पर अड़े हुए थे। इधर रूस के राष्ट्रपति पुतिन यह कतई बर्दाश्त नहीं कर सकते थे कि उनके पड़ोस में नाटो का कोई सैन्य ठिकाना बन जाए। बाइडेन प्रशासन ने रूस को कमज़ोर करने के लिए इस युद्ध की आग में घी डालने का काम किया है। रूस पर आर्थिक प्रतिबंध भी लगाए गए और यूक्रेन पर अरबों डॉलर की रकम खर्च कर दी गई।
इससे रूस का तो कोई नुक़सान नहीं हुआ, अलबत्ता यूक्रेन तबाही की कगार पर जा पहुँचा है। सच कहा जाए तो इस युद्ध में बाइडेन प्रशासन और नाटो की नीतियाँ पूरी तरह नाकाम साबित हुई हैं। अगर ट्रंप यूक्रेन की मदद बंद कर देंगे और नाटो को सीमित कर देंगे, तो वैसे ही यूक्रेन को यथास्थिति में ही सीजफ़ायर के लिए राजी होना पड़ेगा।
मिडिल ईस्ट में जंग रोकने के लिए ट्रंप को कड़ी मशक्कत करनी पड़ सकती है। इजऱाइल तभी जंग रोकने पर राजी हो सकता है, जब हमास बाक़ी के इजऱाइली बंधकों को छोडऩे को तैयार हो जाए। यह भी पता नहीं है कि ये बंधक जीवित हैं भी या नहीं। ईरान ही हमास पर दबाव डालकर बंधकों की रिहाई सुनिश्चित कर सकता है।
ईरान पर भारत चीन और रूस का तगड़ा प्रभाव है। क्या ट्रंप की कूटनीति इन ताकतों के जरिए ईरान पर दबाव बना सकती है? इस सवाल का उत्तर भविष्य के गर्भ में है। भारत के नज़रिए से ट्रंप की वापसी बहुत ही शुभ हो सकती है। वैश्विक कूटनीति से अलग ट्रंप और मोदी के बीच जो मधुर दोस्ताना रिश्ते हैं, उसे सारी दुनिया जानती है। मोदी और ट्रंप के विचार, उनकी कार्यशैली और वैश्विक संरचना में युद्धविरोधी रवैया ये सारे तथ्य बिल्कुल आपस में मिलते हैं।
बाइडेन प्रशासन ऊपर से तो भारत के साथ अच्छे दोस्ताना रिश्ते दिखाता था, पर उनके नज़दीक की एक लॉबी भारत और मोदी के खि़लाफ़ काम करती थी। दरअसल यह लॉबी चाहती थी कि भारत रूस से रिश्ते तोड़कर अमेरिका के खेमे में चला आए।
जब भारत ने ऐसा नहीं किया, तो यह लॉबी भारत और पीएम मोदी पर अवांछित दबाव बनाने लगी। कनाडा का यूँ अचानक भारत के खि़लाफ़ हो जाना अथवा अमेरिका और कनाडा में खालिस्तानी चरमपंथियों को खुली छूट दे देना, इस लॉबी की सोची समझी साजिश थी। ट्रंप के आने से इस लॉबी और उनके खालिस्तानी पि_ुओं की हरक़तें भी रुकेंगी। इसके अलावा अमेरिका के कुछ विघटनकारी पूंजीपति जॉर्ज सोरोस और उनके पिछलग्गू हिंडनबर्ग पर भी लगाम लगेगी, जो भारत के अंदरूनी मामलों में बेजा दख़ल दे रहे थे।