डॉ. परदेशीराम वर्मा
The literary guru of our generation, Swarajya Prasad Trivedi : वीर शहीदों पर हम अपने समय के बड़े कवियों के लेखन में भी भावांजलियां कम पाते हैं। जबकि 1940 से 1970 तक वीरों के यशगान की कविताएॅं बहुतायत से लिखी गई। श्रेष्ठ, धुरंधर और अपने समय के सभी दिग्गज कवियों के साथ ही नई पीढ़ी के रचनाकारों ने भी ऐसा लेखन किया। दिनकर, से लेकर श्री कृष्ण सरल तक एक लंबी परंपरा है वीरों, शहीदों के लिये काव्य लेखन की।
हमारे छत्तीसगढ़ में भी ऐसा लेखन खूब हुआ लेकिन हम पाते हैं कि प्राय: स्वतंत्रता संग्राम में सेनानियों या सेनानी परिवार के कवियों ने तो लेखन किया ही उस दौर के सभी पीढ़ी के रचनाकारों ने महत्वपूर्ण राष्ट्रीय भावना से जुड़ी कविताओं का सृजन किया। इनमें स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी( Swarajya Prasad Trivedi ) जी प्रमुख हैं। वे स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़े दादा और पिता की परंपरा को
समृध्द करते हुए साहित्य, समाजसेवा के क्षेत्र में आजीवन सक्रिय रहे।
उनकी बहुत प्रेरक कविताएं है। जिनका मूल भाव उनकी इस चर्चित कविता की पंक्तियों की तरह भावपूर्ण हैं।
तुम गए मिटे रह गई एक
कहने को अमर कहानी है।
दिल में तस्वीर तुम्हारी है,
आंखों में खारा पानी है।
है याद जहां इस भारत में,
मिट्टी में मिली जवानी है।
उन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन का इतिहास अपनी कविताओं में लिखा है। उनकी बहुतेरी कविताओं में 1930 से 1947 तक के कालखंड की सभी महत्वपूर्ण घटनाएॅं हैं।
एक छोटा सा उदाहरण-
जब बजा शंख सन् ब्यालिस में,
आजादी का
तो रूक न सके बूढ़े जवान
नन्हे बच्चे
चुप रह न सकीं
मॉं बहनें भी
जागे पशु जागे नद नाले
जागे विन्ध्या, हिमगिरि विशाल
कैलाश शिखर से लंका तक
बज उठा शंख आजादी का।
स्वराज प्रसाद त्रिवेदी( Swarajya Prasad Trivedi ) जी हमारी पीढ़ी के साहित्यकारों के संरक्षक और गुरू थे। उनका जन्म एक जुलाई 1920 को रायपुर में हुआ। उनके पिता गयाचरण त्रिवेदी समाज सेवा और स्वतंत्रता आंदोलन के क्षेत्रों के पुरोधा रहे। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री द्वारिका प्रसाद मिश्र तथा छत्तीगढ़ के साहित्यकार और पत्रकार कन्हैयालाल वर्मा उनके मित्र थे। उनके ये दोनो मित्र साहित्य समाज सेवा और आगे चलकर स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी बने इनका गहरा असर स्वाभाविक रूप से पंडित गयाचरण जी पर भी पड़ा। उन्होंने भी अपने मित्रों के अभिरूचि के क्षेत्रों में खूब काम किया।
प्रथम विश्वयुध्द के समाचारों को संकलित कर नयापारा मुहल्ले में श्यामपट्ट पर वे प्रतिदिन लिखा करते थे। यह पत्रकारिता का बीज मंत्र भी सिध्द हुआ जो कालान्तर में उनके यशस्वी पुत्र स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी जी को विरासत में प्राप्त हुआ।
माता कलावती और पिता गयाचरण त्रिवेदी ने अपने बच्चों का नाम समकालीन स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास के उतार-चढ़ाव के अनुरूप रखा। यह नामकरण प्रसंग रोचक, प्रेरक और अनुपम है।
स्वराज्य प्रसाद, स्वतंत्र प्रसाद, स्वाधीन कुमारी, शांति कुमारी, ये नाम रखे गए। स्वराज्य हमारा जन्मसिध्द अधिकार है, इस नारे का असर स्वराज्य प्रसाद जी के नामकरण के समय प्रभावी था। स्वतंत्रता का सिंहनाद हो चुका था इसलिए स्वतंत्र प्रसाद नामकरण हुआ। देश अब जल्दी
स्वाधीन होगा यह विश्वास जब जगा तब जन्मी पुत्री का नाम स्वाधीन कुमारी रखा गया। और आजादी के बाद देश शांति के पथ पर चलकर अग्रसर होगा इस सपने से जुड़ा नाम पुत्री शांतिकुमारी का रखा गया। उनके पुत्र-पुत्रियों में उनके पुत्र स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी ने भरपूर यश अर्जित किया। चौथी कक्षा से ही वे प्रथम श्रेणी के विद्यार्थी के रूप में लगातार चिन्हित हुए।
रमाप्रसन्न नायक, कौशल प्रसाद चौबे विश्वनाथ मिश्र, श्यामलाल गुप्त, रामकृष्ण सिंह, लखन लाल तिवारी उनके मित्र और सहपाठी रहे। ये सभी दिग्गज आगे चलकर अपने-अपने क्षेत्रों में यशस्वी बने।
कानपुर के सनातन धर्म कालेज में पढ़ते हुए उन्होंने साहित्य सृजन के क्षेत्र में साधना का संकल्प लिया। वे तब से पढ़ते हुए, स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेते हुए लेखन से जुड़े रहे।
1938 में रायपुर में जनस्वामी योगानंदन ने छत्तीसगढ़ कालेज की स्थापना रायपुर में की। यह उच्च शिक्षा के क्षेत्र में युगांतरकारी कदम सिध्द हुआ। स्वराज्य प्रसाद जी अपने गृहनगर आ गए। इसी छत्तीसगढ़ कालेज से उन्होंने बी.ए.किया। 1940 में वे कांग्रेस पार्टी के मुखपत्र कांगेस पत्रिका से जुड़े।
फिर रायपुर से प्रकाशित आलोक के संपादक मंडल में वे सम्मिलित हो गए। वे प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। उनका परिवार भी समृध्द था। बी.ए. करने के बाद वे 23 जुलाई 1942 को साप्ताहिक अग्रदूत में सहायक संपादक बने। यह अग्रदूत न केवल छत्तीसगढ़ बल्कि समस्त महाकौशल का प्रमुख समाचार पत्र बन गया।
राष्ट्रीय आन्दोलन में खुलकर भाग लेने के कारण उन्हें ब्रिटिश शासन का कोपभाजन बनना पड़ा। उनके घर भी तलाशी ली गई। 1943 में उन्हें रायपुर छोडऩा पड़ा। 1943-44 में वे सागर के जैन हाई स्कूल में शिक्षक रहे। 1945 में वे पुन: रायपुर लौट आये। वे यहां लारी हाईस्कूल में शिक्षक हो गए। तब तक पंडित रविशंकर शुक्ल जेल से छूटकर आ गए थे। उन्होंने स्वराज्य प्रसाद जी ( Swarajya Prasad Trivedi ) के सम्मुख महाकोशल साप्ताहिक के संपादन का प्रस्ताव रखा। उन्होंने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। जनवरी 1951 से महाकोशल के संपादक बने।
1954 तक उन्होंने बहुत सफलता के साथ संपादन का दायित्व निभाया। इसी बीच मध्यप्रदेश शासन ने उन्हें जनसम्पर्क अधिकारी के पद का प्रस्ताव दिया और वे उस पद पर काम करने भोपाल चले गए।
4 मार्च 1954 से 1978 तक वे जनसम्पर्क में विभिन्न पदों पर रहे। उपसंचालक के पद से वे सेवानिवृत्ति हुए। फिर वापस आकर वे अग्रदूत में 1983 से 1998 तक सलाहकार संपादक रहे। जब अग्रदूत दैनिक हो गया तब 1998 से 2002 तक की अवधि में वे भोपाल में दैनिक अग्रदूत ओर महाकोशल के विशेष प्रतिनिधि रहे।
वे गोंडवाना की जंगली जड़ी बूटियॉं तथा कृषि पंचांग पत्रिकाओं के परामर्शदाता भी रहे। उनके परिवार पर सरस्वती और लक्ष्मी दोनों की भरपूर कृपा सदा रही। उनके पड़े पुत्र डा. सुशील त्रिवेदी हिन्दी के जाने माने लेखक, चिंतक और संपादक हैं। छत्तीसगढ़-मित्र का पुन: प्रकाशन उन्हीं के प्रेरणा से रायपुर से इन दिनों हो रहा है जिसे प्रख्यात साहित्यकार, शिक्षाविद डा. सुधीर शर्मा नियमित मासिक के रूप में निकाल रहे हैं।
डा. सुशील त्रिवेदी के दिशानिर्देश का पालन करते हुए संपादन प्रकाशन हेतु बेहद स्तरीय रचनाओं का चयन कर इस पत्रिका को सम्मान, पुरस्कार योग्य बनाने में कामयाब हुए।
छत्तीसगढ़ मित्र मासिक अपने विशेषांकों के कारण भी देश भर में चर्चित है। कठोर चयन प्रक्रिया और सही दृष्टि के कारण इस पत्रिका का यश चतुर्दिक फैलता ही जा रहा है। स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी जी जब अग्रदूत में सलाहकार संपादक बनकर पुन: रायपुर आए तब हमारी पीढ़ी के रचनाकार धीरे-धीरे अपनी पहचान के साथ सामने आ रहे थे। उन्होंने हम सबको पिता तुल्य स्नेह और प्रोत्साहन देकर लगातार लिखने का साहस दिया।
अग्रदूत मे साहित्य संपादन का काम उन्होंने हिन्दी के यशस्वी लेखक विनोद शंकर शुक्ल को सौंपा। अग्रदूत में ही लिमतरा गांव के हमारे बड़े भाई टिकेन्द्रनाथ टिकरिहा स्तंभ लेखन कर इतिहास बनाते रहे। उन्होंने दैनिक अग्रदूत में नियमित प्रतिदिन अग्रलेख लिखने का भी कीर्तिमान बनाया।
स्वराज्य प्रसाद जी ने स्वयं लेखन तो किया ही अपने आर्शीवाद से एक पूरी नई पीढ़ी को भी लेखन का संस्कार दिया।
उन्हें सादर श्रध्दांजलि देते हुए अक्षर की महत्ता में लिखी उनकी कविता का प्रेरक अंश प्रस्तुत है-
कागज पर प्राणों की पीड़ा उतार दे,
अक्षर प्रति अक्षर को रूप से संवार दे,
गायक आज एक बार प्यार से पुकार दे,
देख विश्व प्यासा है,
शब्दकार ऐसे में,
एक किरण आशा है।