अयोध्या पर आए सर्वोच्च फैसले को जिस तरह देश के दोनों समुदायों ने हाथों-हाथ लिया, इसके लिए दोनों काबिले तारीफ हैं। तमाम आशंकाओं और अटकलों को दोनों समुदाय के लोगों ने सिरे से खारिज कर दिखाया। बीते 27 साल से हर छह दिसंबर को शौर्य दिवस और यौमे शहादत मनाते आ रहे समुदाय के लोगों की इस प्रतिक्रिया की दुनिया भर में तारीफ हुई। देश की विविधता में एकता की संस्कृति मजबूत हुई।
धर्म निरपेक्षता का तानाबाना सुदृढ़ हुआ। उम्मीद बढ़ी कि खाई के मुहाने से वापस आने का सिलसिला शुरू हो गया है। 450 साल पुराने विवाद का पटाक्षेप हो गया है। ऐसे कम विवाद हैं जिसने देश को धार्मिक आधार पर इतना साफ-साफ विभाजित किया। इससे मुक्ति मिल गई। लेकिन ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) की लखनऊ में हुई बैठक में फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दायर करने का निर्णय इन सारे हालातों को पलट कर रख देता है। यह एक बार फिर पुराने अध्यायों की ओर लौटने का रास्ता खोलता है।
बोर्ड अपनी बैठक में पांच एकड़ जमीन देने के सर्वोच्च अदालत के फैसले को नामंजूर करता है। जमीन देने के सवाल को सांसद असदुद्द्ीन ओवैसी फैसले के दिन ही खारिज कर चुके हैं। हालांकि दोनों के आधार अलग-अलग हैं। बोर्ड का यह फैसला तब आया है जबकि मामले के पक्षकार इकबाल अंसारी ने पुनर्विचार याचिका दायर न करने का निर्णय लेकर बैठक का बहिष्कार किया। सर्वोच्च अदालत ने अपने फैसले में इकबाल अंसारी और रामलला विराजमान इन दोनों को ही पक्षकार माना। उसने उस निर्मोही अखाड़े को बेदखल कर दिया जिसके संतों ने 1855 में लड़ाई लड़ी। इस विवाद की यह पहली हिंसक घटना थी। पहली प्राथमिकी थी।
इसे नजरंदाज करते हुए बोर्ड के जफरयाब जिलानी पुनर्विचार याचिका दाखिल करने के लिए उस महफुजर्रहमान, मोहम्मद उमर और मिसबाहुद्दीन का सहारा लेने की बात कहते हैं जो निर्मोही अखाड़े की तरह कहीं नहीं हैं। पुनर्विचार याचिका और जनहित याचिका में अंतर है। बोर्ड का यह फैसला तब है जब मुस्लिम पक्ष के वकील 1528 में बाबरी मस्जिद के निर्माण के बाद तीन शताब्दियों तक के स्वामित्व का दस्तावेज नहीं दे सके। नमाज अदा करने का कोई सबूत पेश नहीं कर सके।
प्रतिकूल कब्जे और खोये दस्तावेजों की विरोधाभासी दलीलें अदालत के गले नहीं उतरीं। गौरतलब है कि अदालत ने दो अलग-अलग सरकारों के कार्यकाल में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा कराई गई खुदाई में मिले अवशेषों का जिक्र भी फैसले में किया है, जो साबित करते हैं कि नीचे मंदिर था। यहीं नहीं, फैसले के 25 पेजों में अरस्तू से लेकर अंग्रेज दार्शनिकों, हिंदू धर्मग्रंथों का जिक्र है जो वहां वैष्णव संप्रदाय द्वारा लंबे समय से पूजा किये जाने की पुष्टि करते हैं। अदालत ने इस विवाद का हल हो जाए महज इसीलिए पांच एकड़ जमीन देने को कहा है। लेकिन बोर्ड के नुमाइंदों की दलील यह है कि फैसला आस्था के आधार पर हुआ है।
यह कहते समय यह नहीं भूलना चाहिए कि यह स्थान हिंदुओं के लिए मक्का से अधिक पवित्र और मान्य है। यही नहीं, अगर इस मुद्दे को सौहार्दपूर्ण ढंग से हल करना था तो यही सबसे अच्छा समाधान था। यह बात मुस्लिम समुदाय के लोगों ने भी कही है। बोहरा और शिया समुदाय ने एक स्वर से फैसले का स्वागत किया है। बोर्ड की बैठक में उपाध्यक्ष कल्बे सादिक शामिल नहीं हुए। जमीयत उलमा ए हिंद के महासचिव मौलाना महमूद मदनी बैठक छोड़कर वापस चले गए। तकरीबन 16.5 फीसदी मुसलमानों की नुमाइंदगी का दावा करने वालों के बोर्ड की इस बैठक में पूरे सदस्य नहीं थे। बोर्ड की ओर से कहा गया कि नदवां कॉलेज में प्रशासन ने बैठक नहीं होने दी।
यह कहते हुए यह याद रखना चाहिए कि बोर्ड के अध्यक्ष अली मियां नदवी के पिता मौलाना अब्दुल हकीम हई नदवी ने हिंदुस्तान इस्लामी अहद नामक अपने किताब में मंदिर तोड़कर बनाई गई मस्जिदों के बारे में लिखा है। इसमें अयोध्या भी है। फैसलों में नैतिक बल की बहुत जरूरत होती है। तीन तलाक के सवाल पर एआईएमपीएलबी की भूमिका मुस्लिम महिलाओं के हितोपेक्षी नहीं थी। इसका कामकाज पुरुष वर्चस्च वाला था। शरीयत की आड़ में बोर्ड जो कह रही थी वह सच नहीं था। बोर्ड मुसलमानों की कोई प्रतिनिधि संस्था नहीं है। यह एक स्वयंसेवी संगठन है। पहले भगवान राम को मीर बाकी और बाबर से स्थानापन्न कराने की कोशिश की गई।
यह लड़ाई लड़ी गई कि 1528 में अयोध्या में मस्जिद बनाने वाला बाबर पौराणिक आख्यानों और हिंदू आस्था के पुंज भगवान श्री राम से भारत की जमीन पर ज्यादा जरूरी हैं। कटु सत्य यह है कि अयोध्या का वजूद भगवान राम से है। ऐसे में अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के लिए जरूरी है कि वे अपने नुमाइंदों और बोर्ड के लोगों को यह समझाएं कि वही अतीत में यह कहते रहे हैं कि अदालत का फैसला सर्वोपरि होगा। अदालती फैसले से नीचे कुछ भी स्वीकार नहीं होगा। लेकिन आज जब विवाद का अंत हुआ है तब उसे फिर कानूनी दांव पेच में उलझाने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए। 2
014 और 2019 के चुनावों ने एक नया संदेश यह दिया है कि बहुसंख्यक अकेले सरकार बना सकते हैं। 2010 में आए हाईकोर्ट के फैसले और 2019 के सुप्रीमकोर्ट के फैसले के बाद देश में जीवन सामान्य बने रहने से निकलने वाले संदेश भी बोर्ड के लोगों को समझना चाहिए। नई पीढ़ी ने मंदिर-मस्जिद विवाद को अपने एजेंडे से बाहर कर दिया है। यह भी एक संदेश है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने पूरे देश में यात्राएं करके फैसले से पहले हिंदू जनमानस को इस बात के लिए तैयार किया कि किसी भी तरह के फैसले का स्वागत करें। उल्लास मत मनाएं, निराशा न जिएं। हार जीत के चश्मे से इस फैसले को न देखें।
कुछ भी ऐसा न करें जिससे आपसी सौहार्द बिगड़े। पर पुनर्विचार याचिका इन सबके ठीक उलट रास्ता खोलती है। इसके बाद बहुसंख्यक समुदाय की ओर से यह मांग उठना स्वाभाविक है- राम हो गये, अब शिव, श्याम चाहिए। 1965 में डॉ. राममनोहर लोहिया और हामिद दिलवई ने इन मुद्दों का हल निकालने की दिशा में पहल की थी। दिलवई ने मुस्लिम सत्य शोधक संघ का गठन किया। दो सौ मुस्लिम लड़कों को प्रशिक्षित करके यह संदेश देने के लिए तैयार किया कि सत्ता के मद में लोगों ने सेना का उपयोग करके बहुसंख्यकों के आस्था के अधिकार छीन लिए।
हमें इन आस्था के अधिकारों को वापस करने की दिशा में बढऩा चाहिए। दुर्भाग्य से दो साल बाद डॉ. लोहिया का निधन हो गया। समूचा प्रयास खत्म हो गया। यह समय देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे की नींव को मजबूत करने का है। इस दिशा में कौन सा समुदाय कितना और किस तरह आगे बढ़ता है यह पूरी दुनिया देख रही है। अब तक लम्हों की खता की सजा सदियों ने पाई है। अब ऐसा न हो, इस पर सबको आगे बढऩा चाहिए।