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Summit for Democracy : लोकतंत्र की मज़बूती के लिए ‘समिट फॉर डेमोक्रेसी’

Summit for Democracy: For the strength of democracy, 'Summit for Democracy'

Summit for Democracy

नीरज मनजीत। Summit for Democracy : पिछले हफ़्ते 9-10 दिसंबर को अमेरिका में ‘समिट फ़ॉर डेमोक्रेसी’ के नाम से एक बड़ा ही महत्वपूर्ण वर्चुअल आयोजन किया गया। राष्ट्रपति जो बाइडेन की अध्यक्षता में हुए इस आयोजन में सौ से भी ज़्यादा देशों ने शिरक़त की। चीन, रूस, उत्तर कोरिया, अफग़़ानिस्तान और यूरोप के कुछ देशों को इस सम्मेलन में नहीं बुलाया गया।

तर्क दिया गया कि इन देशों में एकाधिकारवादी सत्ता है। पाकिस्तान को समिट में हिस्सा लेने के लिए बुलाया गया था। पर चीन को इस समिट से बाहर रखने के विरोध में पाकिस्तान ने सम्मेलन का बहिष्कार कर दिया। अगर एशिया के संदर्भ में इस समिट पर बात करें तो ताइवान को आमंत्रित करना सम्मेलन का सर्वाधिक विवादस्पद निर्णय था। ख़ासकर ऐसे मौके पर जब अमेरिका और चीन के बीच जबर्दस्त तनातनी चल रही है।

आश्चर्य की बात है कि हमारे प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में इस समिट को लेकर तकऱीबन ख़ामोशी छाई रही। जबकि वैश्विक बिरादरी में चल रही हलचल के मद्देनजऱ इस समिट के आयोजन और परिणामों पर लंबी बहस चलनी चाहिए थी। विश्व स्तर पर तो इस समिट को लोकतंत्र के इतिहास का एक ऐतिहासिक पड़ाव माना जाना चाहिए था।

हमने देखा है कि अक्टूबर माह में नरेन्द्र मोदी की अमेरिका यात्रा, संयुक्त राष्ट्र महासभा और क्वाड देशों के शिखर सम्मेलन को हमारे मीडिया ने अच्छा ख़ासा कवरेज दिया था। शायद इस आयोजन के वर्चुअल रूप की वजह से कम से कम भारत में यह मीडिया और प्रबुद्धजनों के बीच बहस का विषय नहीं बन पाया।

हालांकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस सम्मेलन की कमोबेश अच्छी चर्चा हुई, पर ख़ुद अमेरिका ने वैश्विक बिरादरी में इस आयोजन को लेकर कुछ ज़्यादा प्रचार नहीं किया। दरअसल दुनिया इस वक़्त कोरोना महामारी और जलवायु परिवर्तन के ख़तरों से जूझ रही है, इसलिए यह मसला चर्चा की पहली पायदान पर नहीं रखा जा सका।

ऐलानिया तौर पर इस शिखर सम्मेलन के उद्देश्यों के बारे में बताया गया कि इस वक़्त पूरे विश्व में लोकतांत्रिक व्यवस्थाएँ और संगठन एकाधिकारवादी और तानाशाही सत्ताओं के ख़तरों और चुनौतियों के मुक़ाबिल हैं। ऐसे में लोकतांत्रिक देशों के नेताओं और विचारकों को एक मंच में लाना जरूरी है, ताकि इन चुनौतियों से भली भांति निबटने का रास्ता ढूंढा जा सके और वैश्विक स्तर पर लोकतंत्र के पक्ष में नये विचारों पर बहस जारी की जा सके।

समिट के उद्घाटन सत्र में राष्ट्रपति जो बाइडेन ने इसी बात पर बल देते हुए कहा कि लोकतांत्रिक मानदंडों और मूल्यों को बचाने के लिए हमें नई रणनीति तैयार कर नए विजेताओं की तलाश करनी होगी। बाइडेन ने इसके लिए 45 करोड़ डॉलर का एक फण्ड बनाने का ऐलान भी किया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने संबोधन में भारतीय सभ्यता के लोकतांत्रिक मूल्यों को रेखांकित करते हुए कहा कि हमारे देश में 75 वर्षों की लोकतांत्रिक व्यवस्था ने राष्ट्र निर्माण में एक बहुत बड़ी भूमिका निभाई है।

इस शिखर सम्मेलन (Summit for Democracy) में शिद्दत से इस बात को रेखांकित किया गया कि चीन की एकाधिकारवादी सत्ता की विस्तारवादी नीतियाँ और आक्रामक राष्ट्रवाद एक ख़तरनाक शीतयुद्ध को आकार दे रहा है।अनेक विचारकों का मत था कि चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और उनका थिंकटैंक वैश्विक लोकतंत्र के समांतर एक नितांत अलग किस्म की व्यवस्था खड़ी कर रहा है, जहाँ मानवाधिकारों, मानवीय गरिमा और विचारों की स्वतंत्रता का कोई मोल नहीं है।

सच कहा जाए तो हालिया सालों में चीन जिस तरह से दुनिया के लोकतांत्रिक देशों में हमलावर तरीके से हस्तक्षेप कर रहा है, उससे यह आशंका गैरवाजिब नहीं लगती। अमेरिका, यूरोप और एशिया के अधिकांश देशों की लोकतांत्रिक व्यवस्था का फायदा उठाकर चीन निरंतर अपने प्रभाव का विस्तार कर रहा है। इस काम के लिए चीन को आतंकवाद और कट्टरवाद की हिमायत करने से कोई गुरेज नहीं है।

अफग़़ानिस्तान में तालिबान के लौटने के बाद चीन-पाकिस्तान-अफग़़ानिस्तान के गठजोड़ ने जो इरादे ज़ाहिर किए हैं, उससे समूचे एशिया में एक विध्वंसक मज़हबी कट्टरपंथ के उभार का ख़तरा पैदा हो गया है। हिन्द प्रशांत महासागर में चीन के बढ़ते दावों से वैसे ही विश्व बिरादरी परेशान है। विश्व समुदाय की पूरी तरह उपेक्षा करते हुए हॉन्गकॉन्ग में लोकतंत्र को तकऱीबन ख़त्म कर दिया गया है। ताइवान के मसले पर अमेरिका और चीन के बीच तनाव अपने चरम पर पहुँच रहा है।

पिछले महीने जिनपिंग और बाइडेन के बीच वर्चुअल शिखर वार्ता में ताइवान को लेकर दोनों महाशक्तियों के बीच एक-दूसरे को धमकाने के अंदाज़ में जुबानी जंग हुई थी। जिनपिंग ने बाइडेन को साफ चेतावनी दी थी कि ताइवान चीन का एक हिस्सा है और उनके अलगाव को हवा देने का अंजाम बुरा हो सकता है। किंतु इस समिट में ताइवान को बुलाकर अमेरिका ने खुला संकेत दे दिया है कि उसे चीन की धमकियों की कोई परवाह नहीं है।

यदि इस समिट (Summit for Democracy) की निरपेक्ष समीक्षा की जाए तो कहा जा सकता है कि एकाधिकारवादी सत्ता, तानाशाही और मज़हबी ताकतों का गठजोड़ वैश्विक लोकतंत्र को नुक़सान पहुंचाने की स्थिति में है। अत: लोकतंत्र के नवीकरण और लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूत करने के इस वैश्विक प्रयास का स्वागत किया जाना चाहिए।

यह बात बिल्कुल साफ़ हो गई है कि अमेरिका और चीन के बीच चल रही तनातनी सिफऱ् दुनिया की चौधराहट की जंग ही नहीं है, बल्कि यह लोकतंत्र और एकाधिकारवादी सत्ता के बीच का युद्ध भी है। यदि इस युद्ध में वैश्विक लोकतंत्र को क्षति पहुँचती है, तो यह वैश्विक प्रगतिवाद की पराजय होगी।

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