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स्वायत्त संस्थाओं की हैसियत?

Status of autonomous institutions?

Status of autonomous institutions?

कनक तिवारी
Status of autonomous institutions?:
यह संवैधानिक मुगालता देश में पिछले तीस वर्षों से पक रहा है कि प्रशासनिक व्यवस्था त्रिस्तरीय हो गई है। संसद और विधानसभाओं के बाद पंचायतों और नगरपालिक संस्थाओं के संविधानसम्मत होने के कारण लोकतंत्र का व्यावहारिक विस्तार हो गया है।

संविधान की ग्यारहवीं और बारहवीं अनुसूची के अनुसार पंचायती तथा नगरीय संस्थाओं को अधिकार दिए ही नहीं गए हैं। राज्यों को इसलिए लगातार लगता है कि उन्हें और अधिक अधिकार मिलने चाहिए। यदि कुछ अधिकार स्वायत्त संस्थाओं को आवंटित कर दिए जाएंगे। तो वे बौने नजऱ आएंगे।

संविधान अकादमिक उपदेशोंका आध्यात्मिक संग्रहालय बन गया है। वह अपनी औलादों अर्थात केन्द्र और राज्य के अधिनियमों से बहुत कुछ अमल की अपेक्षा करता है लेकिन होता नहीं है। ऐसी हालत में संविधान पराश्रित और रिटायर्ड पिता की तरह संतानों से उम्मीदें नहीं करते हुए भी उम्मीदें वाचाल रखता है।

वोट बैंक की राजनीति के चलते यह आश्चर्यजनक है कि कांग्रेस जैसी सेक्युलर पार्टी ने भी कुंभ मेला अधिनियम को अपना समर्थन दिया है, जबकि उक्त अधिनियम कई संवैधानिक आधारों पर निरस्त कर देने योग्य है। पार्षदों की कर्तव्यहीनता, अधिनियमों की असमर्थता तथा नौकरशाही के अनावश्यक हस्तक्षेप के के चलते संस्थाओं के आदेशात्मक और विवेकसम्मत उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए सिविल सोसायटी का मज़बूत हस्तक्षेप एक आवश्यक परिणामधर्मी हुई है। ऐसा नहीं है कि जनप्रतिनिधि पूरी तौर पर दूध के धुले होते हैं, लेकिन अधिनियमों का ढांचा इस तरह है कि नौकरशाही की पकड़ और सख्त हो गई है।

मतदाताओं और नगरवासियों को अधिनियमों में व्यक्त कुटिलता का आभास नहीं होता। महीनों की मशक्कत के बाद अन्ना हज़ारे और अरविंद केजरीवाल और साथियों ने दिल्ली के उन प्रशासनिक विलोप-बिंदुओं पर लगातार प्रहार किया जिनके कारण आम जनता का जीवन दूभर हो रहा था। लगातार आंदोलन-प्रक्रिया के बाद आम आदमी पार्टी को सिविल सोसायटी के प्रतिरूप राजनीतिक संगठन के रूप में पहली बार सार्थक पहचान मिली। ऐसे नए राजनीतिक प्रयोग का एक बिन्दु यह भी है कि सिविल सोसायटी का नेतृत्व तथाकथित एलीट तथा कुलीन वर्ग के हाथों में होता है। वह पिछले वार्डों के विकास की आवाज़ तो बुलंद करता है, लेकिन गरीबी रेखा के आसपास के रहवासियों को नेतृत्व सक्षम नहीं बनाता।

दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग की रपट में है कि राज्य निचले स्तर की संस्थाओं को अधिकार देने में हीलाहवाला कर रहे हैं। लोकतंत्र और संविधान के रिश्ते समधियों जैसे हैं। एक का बेटा दूसरे की बेटी से ब्याह में खटपट का कारण है। संविधान बनाने में पहले ही खटपट हुई कि भारत यूरोपीय अवधारणाओं पर चलेगा या देशज अनुभवों की परंपरा पर।

इंगलिस्तानी परंपराएं देशज अनुभवों पर हर वक्त भारी पड़ती हैं। घटिया अंग्रेजी को व्याकरणसम्मत हिन्दी पर तरजीह मिलती है। धोती, कुरतेेे, पाजामे, साड़ी वगैरह को पिछड़ा और देहाती समझा जाता है। अधनंगी पोशाकें, फटी हुई जींस और रंगबिरंगे अजीबोगरीब यूरोपीय परिधान सांस्कृतिक बैरोमीटर हैं। घर घर में बर्गर, पिज्जा, हैम्बरगर, पास्ता वगैरह भारतीय व्यंजनशाला के छप्पन भोग पर काबिज हैं।

राजीव गांधी ने जनतांत्रिक दबाव और भारी संसदीय बहुमत के कारण पंचायती राज और नगरपालिक संस्थाओं को नीति निदेशक तत्वों के परिच्छेद से उठाकर संवैधानिक हैसियत देने का साहसिक निर्णय किया। श्रेय उत्तराधिकारी प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव की सरकार को मिला। स्वायत्त संस्थाओं के लिए कानून बनाना राज्य सरकारों और विधानसभाओं के पास है।
मंत्रियों और उनको फुसलाने बहलाने वाले वरिष्ठ नौकरशाह अरबों रुपयों के विकास कार्यक्रमों की राशि को अपनी मु_ी से ढीलना नहीं चाहते।

अभिशाप है कि लोकतंत्र मंत्रियों और वरिष्ठ नौकरशाहों की सामंतवादी वहशी हरकतों का शिकार है। डंके की चोट पर कहा जा सकता है राज्य सरकारें स्वायत्त संस्थाओं को अधिकार देने के लिए अपने राजसी अहंकार और चौधराहट छिनने के भय का शिकार हैं। नगरपालिक संस्थाओं और पंचायतों प्रतिनिधियों की खुली बैठक में सोच विचार कर लिए गए प्रस्ताव कलेक्टर या

सचिव हस्ताक्षर की चिडिय़ा से एक क्षण में स्थगित, बाधित या निरस्त कर देता है।
युवा आईएएस और मंत्रियों को अचानक मिल गए असाधारण अधिकार के अहंकार भारत की प्राचीन व्यवस्था के संवैधानिक प्रतिनिधियों का मजाक उड़ाते हैं। चाहते हैं मंत्रियों और अफसरों के सरकारी दफ्तरों तो क्या उनके घरों की ड्योढियों में नाक रगड़ें।
जनता की बुनियादी समस्याओं की जिम्मेदारी स्वायत्त संस्थाओं पर है। गंदी बस्तियों में मोरियां बजबजा रही हैं। स्वायत्त शासन मंत्री का ही नगर भयंकर गंदा है। आग लग जाए तो दमकल या तो है नहीं या है तो इतनी निरीह कि किसी भवन के राख हो जाने पर पानी छिड़कती रहे। स्कूलों की हालत पर तो गुनहगार मंत्रियों और अफसरों पर फौजदारी मुकदमा चलना चाहिए। करोड़ों बच्चों की शिक्षा मंत्री और अफसर बरबाद कर रहे हैं।

गुड़़ की डली नौकरशाह पर पार्षद और पंच मक्खियों की तरह तरह भिनभिनाते रहें। रहा होगा ग्राम स्वराज भारत में और यूनान में भी। उससे गांधी प्रभावित हुए थे। सर चाल्र्स मेटकाफ बहुत पहले भारत आए थे।
उन्होंने सत्ता के प्रबंधन और विवरण को भारत में देखा। फिर लौटकर अंग्रेेजी संसद में प्रशंसा की कि भारतीय ग्राम गणतंत्र अनोखा और अद्भुत है। जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप संविधान बनाने का दावा अब तो बार बार एक गंभीर जिरह मांगता है।

यूरोपीय अवधारणाएं भारतीय बुद्धिजीवियों के मस्तिष्क में कुंडली मारकर बैठी थीं। उन्होंने अपनी पकड़ अब भी बनाए रखी है। कलेक्टर और सेक्रेटरी साहब हैं, मंत्री लोकतांत्रिक बादशाह और पार्षद और पंच गिड़गिड़ाती जनता के हरकारे।
अफसर और हुक्काम तैश में आकर आदेश करते हैं। हाई कोर्ट तक तेज गति से चलने वाले नहीं हैं। फैसले होते हैं, कभी गलत, कभी सही और यदि सही तो इतनी देर से कि निचली संस्थाओं का कचूमर ही निकल जाए। कभी कभार कोई संविधान की मंशा समझकर कौंधता हुआ फैसला दे तो अंधेरा चीरता है। राज्य सरकारें पंचायतों और नगरपालिक संस्थाओं को जिबह करना बंद करें भी या नहीं? यही यक्ष प्रश्न है।

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