विजय त्रिवेदी। Role of Muslims in Elections : उत्तर प्रदेश में इन चुनावों के दौरान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से एक सवाल पूछा गया कि ‘आपका मुसलमानों के साथ कैसा रिश्ता है?’ तो योगी ने सपाट जवाब दिया कि ‘मेरा उनके साथ वैसा ही रिश्ता है, जैसा उनका मेरे साथ है’। इस जवाब को हर कोई अपनी तरह से देख सकता है, विश्लेषण कर सकता है, लेकिन सवाल के जवाब से परे एक अहम सवाल है कि इन चुनावों में मुसलमानों की क्या भूमिका होगी?
क्या यह चुनाव सांप्रदायिक हो गया है? बाकी मुद्दे गौण हो गए हैं? मुख्यमंत्री आदित्यनाथ जब कहते हैं कि यह चुनाव 80-20 का हो गया है, तो इसके मायने क्या होते हैं? और जब भाजपा एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को अपने टिकट पर नहीं उतारती व दूसरी पार्टियां उन्हें लामबंद करने की हरसंभव कोशिश करती हैं। ओवैसी जैसे नेता 19-11 का फॉर्मूला लेकर आ जाते हैं, जिसके मायने हैं कि जब 11 फीसदी यादव चार-चार बार अपना मुख्यमंत्री बना सकते हैं, तो फिर 19 फीसदी मुसलमान ऐसा क्यों नहीं कर सकते?
सिर्फ उन्हें एकजुट होने की जरूरत है और यदि ऐसा है, तो फिर सभी गैर-भाजपा पार्टियां मुस्लिम बहुल सीटों पर अपने-अपने मुस्लिम उम्मीदवार उतारकर क्यों उन्हें बांटने की कोशिश कर रही हैं? क्या वजह है कि इतनी बड़ी आबादी के बावजूद प्रदेश स्तर पर या राष्ट्रीय स्तर पर कोई मुस्लिम चेहरा इस समाज का नेता नहीं बन पाया? और हर बार मुसलमानों ने गैर-मुस्लिम चेहरे के नेतृत्व पर भरोसा किया, चाहे फिर वह चौधरी चरण सिंह हों, विश्वनाथ प्रताप सिंह हों, कांशीराम हो या मुलायम सिंह यादव।
क्या इस आबादी का कुछ हिस्सा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास के नारे पर भरोसा करता है? क्या मुस्लिम महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा भाजपा सरकार के तीन तलाक को हटाने के कानून के बाद उनके साथ दिखाई देता है? ऐसे बहुत से सवाल इन चुनावों में तैर रहे हैं, और हर कोई अपना जवाब ढूंढ़ रहा है।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यूपी का चुनाव सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के साथ लड़ा तो जा रहा है, लेकिन इसका नतीजा इस आधार पर तय होता हुआ नहीं दिखता। इसकी एक बड़ी वजह वे शायद पिछले 2017 चुनाव के नतीजों में देखते हैं, जब मुस्लिम बहुल सीटों में से ज्यादातर पर भारतीय जनता पार्टी ने जीत हासिल की थी। साल 2017 के विधानसभा चुनाव में मुस्लिम बहुल 29 जिलों की 163 विधानसभा सीटों में से भाजपा ने 137 सीटों पर जीत हासिल की थी।
उस वक्त समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा था, तब सपा को 21 और कांग्रेस को सिर्फ दो सीटें मिल पाईं। बहुजन समाज पार्टी को केवल एक सीट पर संतोष करना पड़ा। साल 2012 के चुनाव में समाजवादी पार्टी ने सरकार बनाई थी। उस वक्त समाजवादी पार्टी को मिली 225 सीटों में से 90 सीटें मुस्लिम बहुल आबादी वाली सीटें थीं।
तब भाजपा को 22 और बसपा को तीस सीटें हासिल हुईं। यानी सरकार बनाने या बहुमत हासिल करने में मुस्लिम बहुल सीटों की अहम भूमिका है, लेकिन नतीजा इस बात से तय होता है कि मुस्लिम वोटों का (Role of Muslims in Elections) बंटवारा हुआ है या फिर ध्रुवीकरण। मुस्लिम बहुल सीटों पर अन्य सीटों के मुकाबले ज्यादा मतदान हुआ है।
इस बार करीब 40 सीटों पर दो से ज्यादा मुस्लिम उम्मीदवार आमने-सामने हैं। वैसे उत्तर प्रदेश में सिर्फ रामपुर ही एक जिला है, जहां मुस्लिम आबादी 50 फीसदी से ज्यादा है, इसके अलावा मुरादाबाद और संभल में 47 फीसदी, बिजनौर में 43 फीसदी और अमरोहा में 40 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम आबादी है। प्रदेश में 50 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम आबादी वाली विधानसभा सीट 11, 30 फीसदी से ज्यादा वाली 44 और 25 फीसदी से ज्यादा वाली 59 विधानसभा सीटें हैं।
भाजपा ने इस बार भी किसी मुस्लिम को टिकट नहीं दिया है, पर एनडीए के सहयोग के तौर पर अनुप्रिया पटेल के अपना दल ने रामपुर में स्वार टांडा सीट से रामपुर के नवाबी खानदान से जुड़े हैदर अली को टिकट दिया है। अगर इस सीट पर भाजपा का वोट भी यदि हैदर अली को मिल गया, तो वह जीत भी सकते हैं। आजम खान इस बार जेल से ही चुनाव लड़ रहे हैं। भाजपा के टिकट पर रामपुर सीट से ही मुख्तार अब्बास नकवी ने 1998 में चुनाव जीता था।
चुनाव में ओवैसी की पार्टी भी सक्रिय है, लेकिन सपा और बसपा ओवैसी को भाजपा की ‘बी टीम’ या ‘वोट कटुआ’ पार्टी कहती है, क्योंकि उनकी मौजूदगी से मुस्लिम वोटों का बंटवारा होता है। इसका फायदा भाजपा को मिलता है। पिछली बार ओवैसी ने 12 उम्मीदवार उतारे थे, इनमें से 11 की जमानत जब्त हो गई थी। संभल में एक सीट पर उनके उम्मीदवार को 60 हजार वोट मिले थे। राजनीतिक जानकारों की मानें, तो इस बार भी ओवैसी की पार्टी को बड़ा फायदा नहीं होने वाला, लेकिन वोट प्रतिशत बढ़ता है, तो फायदा भाजपा को मिल सकता है।
पिछले दिनों ओवैसी ने ‘सेंटर फॉर डेवलपमेंट ऐंड प्रैक्टिस’ की रिपोर्ट को जारी किया था। रिपोर्ट के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में 15 साल से ज्यादा उम्र के 71 फीसदी से ज्यादा मुसलमान या तो प्राइमरी कक्षा तक पढ़े हैं या फिर अनपढ़ हैं। अनपढ़ मुसलमानों की आबादी 40 फीसदी है, जबकि देश में यह आंकड़ा औसतन 34 फीसदी है। प्रदेश मेें सिर्फ साढ़े चार फीसदी मुसलमान स्नातक या उससे ज्यादा पढ़े हैं। मुसलमानों में करीब छह फीसदी बेरोजगार हैं। लेकिन चुनावों में इस सब पर चर्चा नहीं होती और कब्रिस्तान, जिन्ना, अब्बाजान, चिलमवादी जैसे नारों का जोर रहता है।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अब दावा किया है कि कुछ लोग ‘गजवा-ए-हिंद’ की बात कर रहे हैं, यह नहीं होने दिया जाएगा। गजवा-ए-हिंद का मतलब काफिरों को जीतने के युद्ध से होता है। जब भारत में इस्लाम फैलाने की कोशिश की गई थी, तब इसके लिए गजवा-ए-हिंद का इस्तेमाल किया गया था।
मुस्लिम नेताओं (Role of Muslims in Elections) का कहना है, इस शब्द का इस्तेमाल भाजपा ध्रुवीकरण के लिए कर रही है। अब तक हुए दो चरणों में एकतरफा वोटिंग जैसी खबर नहीं है, पर कोशिशें जारी हैं। चुनाव खत्म होगा, तो फिर उत्तर प्रदेश का हिंदू और मुसलमान एक साथ दिखेगा, क्योंकि यहां के ज्यादातर कारोबार दोनों से जुड़े हैं, कामगार और कलाकार मुसलमान व व्यापारी हिंदू। एक हाथ का हुनर दूसरे की ताकत बनता है। काश, नेता भी इस रास्ते पर चल पाते।