श्रवण गर्ग। Religion Violence : धर्म की रक्षा के नाम पर हिंसक भीड़ों के जो समूह सड़कों पर लगातार बढ़ते जा रहे हैं उन पर नियंत्रण कायम करने का क्षण आ पहुँचा है। इस काम में जितना ज़्यादा विलम्ब होगा स्थिति उतनी ही विस्फोटक होती जाएगी। जो चल रहा है उसे देखते हुए आगे आने वाले समय (मान लीजिए पंद्रह साल) के किसी ऐसे परिदृश्य की कल्पना प्रारम्भ कर देना चाहिए जिसमें किसी विचारधारा या धर्म विशेष की अगुआई करने वाले अराजक तत्वों की संगठित ताक़त संवैधानिक संस्थानों की सीढिय़ों पर जमा होकर उन पर अपना नियंत्रण कायम कर लेंगी!
मतलब यह कि जिन नागरिकों का वर्तमान में चयन विधर्मियों के आराधना स्थलों पर अतिक्रमण कर अपनी धर्म ध्वजाएँ फहराकर धार्मिक आतंक कायम करने के लिए किया जा रहा है वे ही किसी आने वाले समय में अनियंत्रित होकर संसद भवनों, विधान सभाओं और न्यायपालिका, आदि के परिसरों में भी अनाधिकृत प्रवेश कर अराजकता मचा सकते हैं! उस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में इन अनियंत्रित समूहों को वे सत्ताएँ भी काबू में नहीं कर पाएँगी जो तात्कालिक राजनीतिक अथवा धार्मिक हितों के लिए उनका अभी अस्थायी अनुयायियों के तौर पर उपयोग कर रहीं हैं।
जिस परिदृश्य की यहाँ बात की जा रही है वह चौंकाने वाला जरूर नजर आ सकता है पर उसके घट जाने को इसलिए असम्भव नहीं समझा जाना चाहिए कि दुनिया के देखते ही देखते सिर्फ सवा साल पहले अमेरिका जैसी पुख़्ता प्रजातांत्रिक व्यवस्था भी उसका निशाना बन चुकी है। अमेरिका के तैंतीस करोड़ नागरिक पंद्रह महीनों के बाद भी उस त्रासदी के आतंक से अपने को मुक्त नहीं कर पाए हैं जो पिछले साल छह जनवरी को राजधानी वाशिंगटन में घटित हुई थी।
राष्ट्रपति पद के चुनावों में हार से बौखलाए डॉनल्ड ट्रम्प के कोई ढाई हज़ार समर्थकों की हिंसक भीड़ (Religion Violence) ने संसद भवन(कैपिटल हिल) पर उस समय क़ब्ज़ा कर लिया था जब उप राष्ट्रपति माइक पेंस की उपस्थिति में कांग्रेस के संयुक्त अधिवेशन में चुनाव परिणामों की पुष्टि के लिए मतों की गिनती का काम चल रहा था। व्हाइट हाउस में परिवार सहित बैठे ट्रम्प घटना के टेलिविजन प्रसारणों के जरिए अपने हिंसक समर्थकों के सामथ्र्य पर गर्व कर रहे थे।ये समर्थक चुनाव परिणामों को हिंसा के बल पर ट्रम्प के पक्ष में उलटवाना चाहते थे।ट्रम्प आज तक स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं कि चुनावों में उनकी पराजय हुई है। ट्रम्प का आरोप है कि बाइडन ने उनकी जीत पर डाका डाला है।
जॉर्ज वाशिंगटन द्वारा 30 अप्रैल 1789 को पहले राष्ट्रपति के रूप में शपथ लेने के बाद हुई अमेरिका के संसदीय इतिहास की इस पहली बड़ी शर्मनाक घटना ने समूचे विश्व को हिलाकर रख दिया था। ग्यारह सितम्बर 2001 को जो हुआ वह अगर अमेरिका पर बाहरी आतंकी हमला था तो यह अंदर से हुआ आक्रमण था। छह जनवरी 2021 की घटना और उसमें ट्रम्प की भूमिका की चाहे जैसी भी जाँच वर्तमान में चल रही हो, हकीकत यह है कि पूरे अमेरिका में ट्रम्प के समर्थकों की संख्या इस बीच कई गुना बढ़ गई है। हो सकता है ट्रम्प एक बार फिर राष्ट्रपति बन जाएँ। 2024 में वहाँ भी चुनाव है और हमारे यहाँ भी हैं।
ट्रम्प समर्थक कौन हैं ? ये वे गोरे सवर्ण हैं जो अपने ही देश में रहने वाले अश्वेत अफ्रीकियों, एशियाइयों, मुसलिमों और अपने से अलग चमड़ी के रंग वाले लोगों से नफऱत करते हैं, अपनी समृद्धि में इन वर्गों की भागीदारी का विरोध करते हैं और अमेरिका की सड़कों पर आए दिन नस्ली हमले करते हैं। ट्रम्प के नेतृत्व में ही इन्हीं अराजकतावादियों ने कोविड के खिलाफ लड़ाई में मास्क पहनने सहित समस्त प्रतिबंधों का विरोध किया था और टीके लगवाने से इनकार कर दिया था। सत्ता के शीर्ष पर बैठे हुए लोग जब प्रजातांत्रिक तरीक़ों से अपने आप को बचाए रखने में नाकामयाब हो जाते हैं तो फिर अपने हिंसक समर्थकों को सड़कों की लड़ाई में झोंक देते हैं।
सत्ता और संगठनों के मौन समर्थन और धार्मिक नेताओं की मदद से भीड़ की जिस राजनीति को संरक्षण प्राप्त हो रहा है वह न सिर्फ लोकतंत्र के लिए खतरनाक है एक ऐसी स्थिति की ओर देश को धकेलने का संकेत भी है जिसमें सड़कों की अराजकता सभी प्रकार के संवैधानिक बंधनों से बाहर हो जाएगी।ख़तरा यह भी है कि जो सत्ताएँ आज जिस भीड़ को संरक्षण दे रहीं हैं वे ही आगे चलकर उसके द्वारा बंधक बना ली जाएँगी।
हम इस सच्चाई से जान-बूझकर मुँह मोड़ रहे हैं कि पिछले कुछ महीनों या सालों के दौरान हमारे आसपास बड़े औद्योगिक प्रतिष्ठान, कारख़ाने अथवा रोजगार उपलब्ध करवाने वाले संसाधन निर्मित होने के बजाय बड़े-बड़े धार्मिक स्थलों, ऊँची-ऊँची मूर्तियों और आराधना स्थलों का निर्माण ही जोर-शोर से चल रहा है। धार्मिक समागमों और धर्म संसदों की बाढ़ आ गई है। संवैधानिक संस्थानों के समानांतर धर्मगुरुओं की सत्ताएँ स्थापित हो रहीं हैं।
नागरिकों को इस फर्क के भीतर झांकने नहीं दिया जा रहा है कि जो सच्चा आध्यात्मिक भक्त अपनी भूख-प्यास की चिंता किए बग़ैर सैंकड़ों कोस पैदल चलकर ईश्वर के दर्शन के लिए दुर्गम स्थलों पर पहुँचता है या किसी मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, गिरजाघर के कोने में चुपचाप बैठा हुआ ध्यान और तपस्या में लीन रहता है वह सड़क की भीड़ में शामिल उस ‘भक्तÓ से भिन्न है जिसके पास अपना कोई चेहरा या पता नहीं है; जो हमेशा ‘अज्ञात’ बना रहता है।
इस अज्ञात नागरिक (Religion Violence) के पास सुनने के लिए कान नहीं होते, सिफऱ् दो आँखें होतीं हैं जो किसी ईश्वर को नहीं बल्कि अपने धार्मिक शिकार को ही तलाशती रहती हैं। इस भीड़ के नायक भी अंत तक अज्ञात बने रहते हैं। वे अपने अनुयायियों का चयन उनकी आध्यात्मिक चेतना के बजाय उनके शारीरिक सामथ्र्य के आधार पर करते हैं।