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प्रसंगवश : चान्दी का चम्मच लिए जन्मे सियासी छोकरे प्रोपेगंडा पॉलिटिक्स के शिकार

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यशवंत धोटे

राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के मुताबिक इंगलिश बोलने और हैंडसम दिखने से कुछ नहीं होता। यदि राजनीति में लम्बी पारी खेलनी हो तो सियासी बरगद की छांव तले चान्दी का चम्मच लिए पैदा हुए सियासी छोकरो को गहलोत के इस बयान को प्रासंगिकता के लिहाज से गांठ बांधकर रख लेना चाहिए और वैसे भी 40 साल के राजनीतिक संघर्ष को यदि कोई समय से पहले सब कुछ पा चुका 40-45 साल का हैंडसम इंगलिश ‘टॉकर’ चुनौती दे तो उसे हकीकत के धरातल से रूबरू कराना भी जरूरी हो जाता है। दरअसल 130 साल पुरानी पार्टी और 138 करोड़ की आबादी वाले देश को समझने के लिए चान्दी का चम्मच लेकर पैदा होना पर्याप्त नहीं है। भारतीय धरातल वैसा नही है जैसा ये छोकरे देख और भोग रहे हैं। भारत की धरती पर पैदा होकर विदेशों से पढ़कर आए ये सियासी छोकरे विश्व के सबसे बड़े राजनीतिक दल भाजपा की प्रोपेगंडा पॉलिटिक्स के शिकार होकर देश की सबसे पुरानी पार्टी के आन्तरिक लोकतंत्रीय ढांचे को तहस नहस कर रहे हैं। इससे दल कमजोर तो हो ही रहा है, इन छोकरों की नादानी या यूं कहे इनकी बेजा हरकतों से वे लाखों मतदाता स्वंय को ठगा सा महसूस करते हैं, जिन्होंने कांग्रेस के सिम्बाल को वोट दिया और उनका चुना हुआ विधायक उन्हे छोड़ कहीं और चल दिया। अखबारी पन्नों, चैनलों पर चलने वाली बेसिर पैर की बदतमीजी भरी अन्तहीन बहस, और नेताओं के भाषणों में इसे राजनीति कहते हैं लेकिन जन आकाक्षाओं से कोसो दूर जा चुकी इस राजनीति को गन्दा करने ये सियासी छोकरे अहम भूमिका निभा रहे हैं। पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया और अब सचिन पायलट के खिलाफ कार्रवाई पर जतिन प्रसाद ,प्रिया दत्त, दीपेन्द्र हुड्डा, गौरव गोगई, मिलिन्द देवड़ा, जैसे कारपोरेट कल्चर के इन सियासी छोकरो का विधवा विलाप ठीक वैसा ही है जैसे चित भी मेरी, पट भी मेरी, सिक्का मेरे बाप का। जननायक का लबादा ओढ़े चुनावी मोर्चे पर बुरी तरह फेल हो चुके इसमें से अधिकांश कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनना चाहते हैं। भाजपा के गढ़े हुए प्रचार में इन्हें ऐसा लगता है कि पार्टी में इनसे ज्यादा उपेक्षा किसी की हो ही नहीं रही। 2019 के चुनाव में पार्टी हारने के बाद राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया लेकिन पिता या माता की बदौलत पद पाए किसी सियासी छोकरे ने यह जहमत नही उठाई। राहुल और सोनिया गांधी के त्याग पर तंज कसते ये लोग भूल जाते हैं कि यदि सोनिया गांधी चाहती तो 2004 और 2009 में ही मनमोहन सिंह की जगह खुद या राहुल गांधी को पीएम बना सकती थीं, लेकिन ऐसा नहीं किया ताकि इन सियासी छोकरो का भविष्य आबाद हो। पिछले एक दशक में भाजपा के प्रचार तंत्र ने कांग्रेस के संगठनात्मक ढांचे को परिवारवाद के आवरण में लपेट कर नेस्तानाबूद करने की कोशिश की। हालांकि कांग्रेस के पुरानी पीढ़ी के नेता इस बात को समझ रहे हैं, लेकिन नई पौध इस प्रोपेगंडा पॉलिटिक्स को समझ नहीं पा रही है। और देश के जिन युवाओं की आवाज बनने का दंभ भर रहे हैं वो युवा आज दर-दर की ठोकरे खा रहे हैं।

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