आलोक मेहता
कश्मीर से अधिक भयावह से छत्तीसगढ़, ओडि़सा, झारखंड, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र जैसे क्षेत्रों में फैला नक्सल आतंकवाद। कश्मीर में पाकिस्तानी घुसपैठ और आई.एस.आई. की छत्र छाया में पलने वाले आतंकवादी हिंसक हमले करते हैं। भारत के हृदय प्रदेशों के नक्सली आतंकी हत्या, लूट खसोट, बलात्कार और अपनी ही बनाई कथित अदालतों में निरपराध स्त्री-पुरुषों, बच्चों तक को हिंसा का शिकार बनाते हैं। इस दृष्टि से लोकतंत्र के पावन पर्व-चुनाव के दौरान नक्सली आतंकवादी हमलों के शिकार राजनीतिक नेता, कार्यकर्ता और सुरक्षा सैनिकों को लोकतंत्र के सबसे बड़े रक्षक के रूप में नमन किया जातना चाहिये।
इस बार लोक सभा चुनाव के पहले दौर में 11 अप्रैल के मतदान से केवल दो दिन पहले बस्तर में छत्तीसगढ़ के नव निर्वाचित भाजपा विधायक भीमा मांडवी और केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल के पांच सुरक्षा कर्मियों के शहीद होने पर गहरे दु:ख के साथ नक्सली आतंक पर बड़ी सर्जिकल स्ट्राइक का संकल्प लिया जाना चाहिये। भीम मांडवी नक्सली धमकियों के बावजूद बस्तर में लगातार आदिवासियों को अपने माताधिकार का उपयोग कर विकास की धारा को बढ़ाने के लिए गाँव-गाँव घूम रहे थे। दंतेवाड़ा मतदाताओं ने तीन महीने पहले ही उन्हें विधान सभा के लिए चुना था। यही नहीं उनके प्रयास और श्हादत, आतंकियों की गंभीर धमकियों के रहते 11 अप्रै्रल को 57 प्रतिशत से अधिक मतदान बस्तर निर्वाचन क्षेत्र में हुआ। लोकतंत्र के साहसी प्रहरी आदिवासियों को बधाई-साधुवाद।
नक्सल प्रभावित पड़ोसी क्षेत्रों और जम्मू-कश्मीर में भी भारी मतदान इस बात का प्रमाण है कि हर भारतवासी लोकतंत्र के पावन यज्ञ में तन-मन-धन के साथ भागेदारी करना चाहता है। दु:ख इस बात का है कि वर्षों से नक्सली आतंकवादी के शिकार होते रहे। प्रभावशाली राजनीतिक दल, नेता, काथित मानव अधिकार समर्थक संगठन और कट्टर वामपंथी बुद्धिजीवी अब भी नक्सली गतिविधियों को जायज ठहराते हुए प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन दे रहे हैं। यह तर्क बेहद अनुचित है कि नक्सली आतंकी-वनवासियों के हितों की रक्षा और पूंजीवादी शोषण से बचाव कर रहे हैं। नक्सली आतंकी आदिवासी क्षेत्रों में सड़क, पुल, स्कूल, अस्पताल बनाने में ही बाधा नहीं डालते, वरन निर्मित सड़ों और स्कूल-अस्पताल भवनों को ही बम-बारूद से उड़ा रहे हैं। फिर भी हाल के वर्षों में राज्य सरकारों, सुरक्षा कर्मियों और बड़ी संख्या में जन भागीदारी से बस्तर ही नहीं पड़ोसी राज्यों के अधिकांश आदिवासी गांवों में कायाकल्प हुआ है। चार महीने पहले ही मैंने स्वयं दंतेवाड़ा और जगदलपुर के गांवो में विकसित आधुनिक संचार सुविधाएं, आदिवासियों के जीवन स्तर में सुधार, दंतेवाड़ा में नक्सल हिंसा के शिकार परिवारों के बच्चों के लिए लगभग एक सौ करोड़ की लागत से बने आवासीय स्कूल, कोशल प्रशिक्षण केन्द्रों को देखा और युुवाओं से बातचीत भी की है। छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडि़सा, आंध्र प्रदेश-तेलंगाना में प्राकृतिक संसाधनों की तस्करी रोकर नए औद्योगिक संस्थानों की स्थापना, रेल मार्ग, सड़क मार्ग बनने से आदिवासी क्षेत्रों में बदलाव दिख रहा है। स्कूलों और अस्पतालों पर आक्रमण न करने के लिए अंतराष्ट्रीय नियम-कानून बने हैं। और दो देशों के युद्ध में भी ऐसी गतिविधि से बचने के निर्देश सेना को रहते हैं। लेकिन भारत में सत्तर साल पहले निर्धारित नियम-कानूनों के तहत नक्सल आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रों को राज्य सरकार की जिम्मेदारी एवं भारतीय सेना की सहायता नहीं लिए जाने की दुहाई दी जाती है। यों संविधान में पचासों संशोधन पारित हो चुके हैं और जम्मू-कश्मीर में भी धारा 370 और 353 हटाने की मांग निरंतर हो रही है। लेकिन भोले भाले आदिवासियों को घर में बैठे नक्सली आतंकवादियों से रक्षा के लिए सेना का उपयोग नहीं किया जा रहा है।
लोकतांत्रिक भारत के राजनेता और मीडिया का बड़ा वर्ग यह असलियत क्यों नहीं स्वीकारता कि नक्सली भी तालिबान और अलकायदा की तर्ज पर ही आतंकी हमले करते हैं। तभी तो बस्तर के नक्सली आतंकवाद की तुलना ‘स्वात घाटीÓ के तालिबान से की जाती है। यह भी दुर्गम इलाका है। वे इंजीनियरों, डाक्टरों, शिक्षकों, समाज सेवियों, सुरक्षा कर्मियों, वन क्षेत्रों में निरीक्षण के लिए जाने वाले वायु सेना के हेलीकाप्टरतक को निशाना बनाते रहे हैं। वे हिंसा के शिकार लोगों के शव ले जाने वाले हेलीकाप्टर या वाहनों को भी बारूद से उ़ा देते हैं। वे सेटेलाइट मोबाइल फोन, राकेट लांचर और अत्याधुनिक हथियारों का इस्तेमाल करते हैं। सबसे घिनौना काम गरीब मासूस आदिवासी महिलाओं और बच्चों को भ्रमित और भयभीत कर आतंकवादी शिक्षण-प्रशिक्षण देकर मारने के लिए बाह्य करते हैं।
नक्सल आतंकी संगठन से पीछा छुड़ाकर निकले कुछ आदिवासियों से बातचीत करने का अक्सर मुझे मिला है। यह विवरण चैंका देने वाला है। नक्सली गुटों के नेता अपनी कथित फौज की महिलाओं से बलात्कार करते हैं। उन्हें गाने बजाने पर मज़बूर कर अन्य ग्रामीणों को प्रशासन व्यवस्था के विरुद्ध खड़ा होने के लिए तैयार करने को कहते हैं। बारूदी सुरंगे बिछवाते हैं। बस्तर हो या गढ़ चिरौली (महाराष्ट्र) नक्सली आतंकी गिरोह में शामिल युवक-युवतियों को शादी न कर केवल अवैध शारीरिक संबंधों के लिए मज़बूर किया जाता है। विडंबना यह है कि ये आतंकी गिरोह सड़क के ठेकेदारों, कारखानों के मालिकों-प्रबंधकों और कई नेता मंत्रियों तक से डरा धमकाकर धन इक_ा करते रहते हैं। नक्सली समर्थक कुछ संगठन गिरफ्तार हुए नक्सलियों के अपराधों के सबूत मांगते हैं। दुनिया के आतंकवादी क्या गवाह-सबूत तैयार करके देने की गुंजाइश रखते हैं? उनकी हिंसक हत्याएं ही बड़ी सबूत हो सकती है या उनसे तंग होकर निकले सही रास्ते पर आए पुराने साथी के बयान पुष्टि कर सकते हैं। इसलिये सत्ता व्यवस्था और शीर्ष अदालतों को नक्सली आतंकियों को कठोर सजा देने के नियम-कानून का प्रावधान करना होगा। आतंकवाद का कोई धर्म-कानून नहीं होता। नक्सली आतंकवाद भारत के लोकतंत्र का सबसे बड़ा खतरा है। लोकतंत्र की जयकार करते समय यह चुनावी संकल्प भी होना चाहिये कि देश का हर गांव आतंक से मुक्त होगा।