विजय त्रिवेदी। Political Alliance : एक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक मित्र ने सवेरे फोन करके पूछा कि क्या उस विषय पर चर्चा की जा सकती है, जो हो ही नहीं, फिर मेरी नासमझी को ठीक करने के लिए उन्होंने कहा कि भैया, ‘यूपीए’ नाम की कोई चीज तो बरसों से है ही नहीं, फिर इतना हंगामा क्यों? फिर सवाल किया कि क्या आपको याद है कि यूपीए की आखिरी बैठक पिछली बार कब हुई थी, किस मुद्दे पर हुई थी और क्या नतीजा रहा था, या फिर यूपीए ने सरकार के खिलाफ कोई बड़ा आंदोलन किया था? दरअसल, यूपीए सरकार बनाने की कवायद भर थी और जब सरकार नहीं रही, तो फिर यूपीए भी नहीं रहा, सब अपने-अपने घर चले गए।
अब जब ममता बनर्जी ने यूपीए को लेकर टिप्पणी की है, तो इसका मायने है कि फिर से किसी नए राजनीतिक गठबंधन की तैयारी की शुरुआत हो रही है। जाहिर है, साल 2024 के आम चुनाव से पहले इसकी जरूरत महसूस हो रही है। यह सच है कि कांग्रेस ने यूपीए का नेतृत्व किया है, लेकिन यह अधूरा सच है, क्योंकि कांग्रेस ने यूपीए सरकार का नेतृत्व किया है और उस वक्त यानी साल 2004 और 2009 में वह उस गठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी थी। साल 2014 में चुनाव हारने से पहले ही यूपीए टूटने लगा था, लेकिन तब कांग्रेस ने इसकी परवाह नहीं की, क्योंकि उनकी सरकार को कोई बड़ा खतरा नहीं था।
कम लोग जानते होंगे कि यूपीए का नाम भी डीएमके नेता करुणानिधि ने दिया था। पहले उसका नाम सेक्यूलर एलायंस या प्रोग्रेसिव सेक्यूलर एलायंस रखा जा रहा था, लेकिन करुणानिधि ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से कहा कि तमिल में सेक्यूलर का मतलब धर्म विरोधी होता है, इसलिए इसे प्रोग्रेसिव कहा जाए। यूपीए बनाने की राजनीतिक कसरत तब के दिग्गज लेफ्ट नेता हरकिशन सिंह सुरजीत ने की थी। सुरजीत इससे पहले 1996 में यूनाइटेड फ्रंट बना चुके थे।
एक अन्य मित्र ने कहा कि ममता बनर्जी (Political Alliance) का यह रुख इसलिए दिखाई दे रहा है, क्योंकि कांग्रेस नेतृत्व अब भी राजा-महाराजाओं की तरह बर्ताव कर रहा है। साल 2019 के चुनाव में आधे से ज्यादा राज्य ऐसे रहे, जहां से कांग्रेस का कोई नुमाइंदा नहीं है। फिर राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने जब यह ट्वीट किया कि पिछले दस साल में कांग्रेस 90 फीसदी चुनाव हार गई है या जब कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजाद कहते हैं कि उन्हें इस बात की उम्मीद नहीं कि उनकी पार्टी 300 सीटें जीत सकती है या फिर राहुल गांधी खुद की अमेठी सीट नहीं बचा पाते, तो फिर लोगों को सवाल करने से भला कौन रोक सकता है?
तृणमूल कांग्रेस की नेता और अध्यक्ष ममता बनर्जी पिछले काफी समय से विपक्षी एकता के लिए काम कर रही हैं। कोलकाता में विपक्षी नेताओं के साथ खड़े होकर उन्होंने अपना संदेश साफ कर दिया था। चुनाव में उन्होंने न केवल कांग्रेस और लेफ्ट, बल्कि भाजपा की दिग्गज सेना को हराकर अपनी ताकत जता दी थी। कुछ लोग कहते हैं कि ममता बनर्जी जरूरत से ज्यादा हवा में उड़ रही हैं।
याद कीजिए, साल 2007 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भारी जीत के बाद बसपा नेता और मुख्यमंत्री मायावती भी प्रधानमंत्री बनने का सपना देखने लगी थीं। कभी टीडीपी के चंद्रबाबू नायडू भी विपक्षी एकजुटता के बहाने दिल्ली के सपने देखने लगे थे। हकीकत यह है कि कांग्रेस आज भी दो सौ संसदीय सीटों पर भाजपा से सीधे मुकाबले में है।
राजनीतिक तौर पर इस वक्त केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की स्पष्ट बहुमत वाली सरकार है और आधे से ज्यादा राज्यों में उसकी व सहयोगियों की सरकारें हैं। करीब 35 से 40 फीसदी वोट उनके पास माना जा रहा है, लेकिन ज्यादातर क्षेत्रीय दिग्गजों के सामने उसे हार का सामना करना पड़ा है, चाहे वह ममता बनर्जी हों, अरविंद केजरीवाल, शरद पवार, स्टालिन, नवीन पटनायक हों या फिर केरल में विजयन हों, यानी क्षत्रपों से लडऩे में भाजपा अभी खुद को पूरी तरह से तैयार नहीं पाती है।
कुछ समय पहले तक यह कहा जाता था कि कांग्रेस विपक्षी एकता की धुरी हो सकती है और नेहरू-गांधी परिवार कांग्रेस की एकजुटता और जीत के लिए सबसे अहम तत्व, लेकिन अब इन दोनों ही बातों पर सवाल उठने लगे हैं। सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि कांग्रेस के भीतर ही नेहरू-गांधी परिवार के नेतृत्व में भरोसा दरकता दिखाई दे रहा है और जब आप अपने घर में मजबूत नहीं होते, तो फिर बाहर वैसे ही आपकी ताकत कम हो जाती है।
सवाल यह भी है कि क्या कांग्रेस आज विपक्षी एकता के लिए नेतृत्व करने में सक्षम है, हाल में कांग्रेस नेतृत्व में बुलाई गई विपक्षी दलों की बैठक में ज्यादातर दल गैर-हाजिर रहे थे, लेकिन यह जानकारी नहीं है कि कांग्रेस नेताओं ने इस बात को जानने की जहमत उठाई हो कि क्यों विपक्षी दल उसके साथ नहीं आए? ममता बनर्जी ने पिछले कुछ समय में कांग्रेस में जिस तरह तोडफ़ोड़ की है, उससे कांग्रेस की नाराजगी समझ आती है, लेकिन क्या पार्टी ने जाने वाले नेताओं को रोकने की कोई पुख्ता कोशिश की थी?
वैसे विपक्षी एकता या गैर-भाजपा दलों का साथ देने पर कांग्रेस का रिकॉर्ड अच्छा नहीं है, चाहे चरण सिंह को प्रधानमंत्री बनाकर पीछे हटना हो या चंद्रशेखर सरकार से हाथ खींचना। फिर 1990 के दशक में ‘ओल्ड मैन इज इन हरी’ के देवेगौड़ा के बयान को याद रखिए कि कैसे कांग्रेस ने प्रधानमंत्री बदलने के लिए दबाव डाला और फिर कुछ महीनों बाद गुजराल सरकार भी गिरा दी। गठबंधन वक्त समाजवादी पार्टी को बाहर रखेंगे और उम्मीद करेंगे कि 272 सांसदों की गिनती के वक्त मुलायम सिंह यादव आगे बढ़कर कांग्रेस नेतृत्व में सरकार बनवाएंगे।
ऐसे बहुत से किस्से और घटनाएं (Political Alliance) होंगी, जिन पर खुद कांग्रेस को मंथन करना होगा। आखिरी बात, जब आपका मुकाबला चौबीस घंटे राजनीति करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी से हो, तब क्या किसी ऐसे नेता को स्वीकार नहीं किया जा सकता, जिसने एक जमाने में कांग्रेस नेतृत्व को चुनौती दी हो? कुछ लोगों को यह लगता होगा कि अभी ममता बनर्जी कांग्रेस मुक्त भारत का नरेंद्र मोदी का एजेंडा चला रही हैं, लेकिन मोदी के खिलाफ लड़ाई का यह पहला मजबूत कदम भी हो सकता है। राजनीति संभावनाओं का खेल है और इसमें सियासी दलों को संभावनाएं बनानी पड़ती हैं।