डॉ. ओ.पी. त्रिपाठी। One Law : आज देश एक बड़े सवाल का सामना कर रहा है और वो सवाल ये है कि अगर हमारा देश एक है, संविधान एक है, मौलिक अधिकार एक हैं, प्रधानमंत्री एक है, राष्ट्रपति एक है तो फिर कानून अलग-अलग क्यों ? कानूनों का बँटवारा धर्म के आधार पर कैसे हो सकता है? और हमारे देश में यूनिफार्म सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता अब तक क्यों नही लागू हुई है ?
यूनिफॉर्म सिविल कोड एक सेकुलर यानी पंथनिरपेक्ष कानून है, जो किसी भी धर्म या जाति के सभी निजी कानूनों से ऊपर होता है, लेकिन भारत में अभी इस तरह के कानून की व्यवस्था नहीं है। फिलहाल देश में हर धर्म के लोग शादी, तलाक और जमीन जायदाद के मामलों का निपटारा अपने पर्सनल लॉ के मुताबिक करते हैं।
मुस्लिम, ईसाई और पारसी समुदाय के अपने पर्सनल लॉ हैं, जबकि हिंदू पर्सनल लॉ के तहत हिन्दू, सिख, जैन और बौद्ध धर्म के सिविल मामलों का निपटारा होता है। कहने का मतलब ये है कि अभी एक देश, एक कानून (One Law) की व्यवस्था भारत में नहीं है। देश के नागरिकों को धार्मिक व जातीय मामलों में समानता प्रदान करना ही इस कानून का लक्ष्य है। वैसे तो यूनिफार्म सिविल कोड की बहस देश में बहुत पुरानी है। यह बहस अंग्रेजी शासन के समय से ही चली आ रही है।
देश आजाद होने के बाद संविधान जब बना तो उसमें इसे लागू करने के प्रावधानों को संविधान के भाग 4 के अनुच्छेद 44 में वर्णित किया गया और राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में इसे लागू करने का लक्ष्य राज्यों के लिए रखा गया। लेकिन तब से लेकर आज तक केवल यह गोवा में ही लागू हो पाया है। बाकी राज्यों व देश में धार्मिक मामलों में अलग-अलग कानून प्रचलित हैं। इतिहास के पन्ने पलटे तो वर्ष 1772 में भारत में ब्रिटिश हुकूमत के गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स ने न्यायिक सुधारों की शुरुआत की और शादी-निकाह, उत्तराधिकार और अन्य धार्मिक मामलों में आदेश जारी किया था कि मुसलमानों से संबद्ध कुरान के कानूनों और हिंदुओं के लिए शास्त्रों से जुड़े कायदे-कानूनों का पालन किया जाए।
1947 में भारत स्वतंत्र राष्ट्र बना, तो उसके प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और प्रथम कानून मंत्री डॉ. भीमराव अंबेडकर ने समान नागरिक संहिता लागू करने की कोशिशें कीं। उससे पहले संविधान सभा में इस मुद्दे पर बहसों के दौरान अंबेडकर को उग्र विरोध झेलना पड़ा था। समान नागरिक संहिता के विरोधियों ने संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत धार्मिक आजादी के अधिकार का उल्लंघन करार दिया, जबकि संहिता के पक्षधर अनुच्छेद 14-15 के तहत नागरिकों की समानता के अधिकार का हवाला दे रहे थे।
विवाद की स्थिति में तब अनुच्छेद 44 के तहत नीति निर्देशक तत्त्वों में इसे भी रख दिया गया। राज्य की सत्ता को अधिकार दिया गया कि वह समान नागरिक संहिता लागू करेगी। तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू हिंदू कोड बिल तक ही सीमित रहे और उसे लागू कराया। उसकी परिधि में सिख, जैन, बौद्ध आदि को भी रखा गया। नतीजा यह हुआ कि देश में द्विपत्नी और बहुपत्नी सरीखी कुप्रथाओं को समाप्त किया जा सका। महिलाओं को भी तलाक और विरासत के अधिकार हासिल हुए। शादी के लिए धर्म, जाति और नस्ल को अप्रासंगिक बनाना शुरू हुआ। समय बीतता गया।
1985 के एक विशेष केस के जरिए सर्वोच्च न्यायालय ने संहिता का मामला उठाया। उसके बाद कई संदर्भों में समान नागरिक संहिता लागू करने का आग्रह करता रहा। 2016 में राष्ट्रीय विधि आयोग ने भी एक मसविदा जारी किया। अंतत: उसके निष्कर्ष क्या रहे, इसकी पुष्ट जानकारी आज तक नहीं है।
राजनीतिक तौर पर देखें, तो समान नागरिक संहिता का मुद्दा आरएसएस और जनसंघ के अहम मुद्दों में शामिल रहा है। बीते जुलाई में दिल्ली उच्च न्यायालय की न्यायाधीश प्रतिभा एम.सिंह की टिप्पणी के बाद एक बार फिर यह मुद्दा गरमा उठा है। सवाल हिंदू और मुसलमान का धार्मिक आजादी का नहीं है, बल्कि बुनियादी सरोकार यह है कि एक संप्रभु राष्ट्र में, एक ही समान कानून की व्यवस्था क्यों नहीं है? अलग-अलग धर्मों, जातियों, संप्रदायों से लेकर कबीलों तक अपने-अपने ‘पर्सनल लॉ’ हैं।
क्या यही भारत की ‘अनेकता में एकता’ की संवैधानिक स्थिति है? न्यायाधीश का मानना है कि आधुनिक भारतीय समाज एकरूप होता जा रहा है। धर्म, जाति और समुदाय के पारंपरिक अवरोध समाप्त हो रहे हैं। समाज में तेजी से हो रहे बदलाव की वजह से अंतरधार्मिक और अंतरजातीय विवाह या तलाक में परेशानियां हो रही हैं। युवा पीढ़ी को इन दिक्कतों का सामना न करना पड़े, लिहाजा समान नागरिक संहिता का होना जरूरी है।
न्यायाधीश ने यह भी कहा कि फैसले की प्रति केंद्रीय कानून मंत्रालय को भेजी जाए, ताकि वह विचार कर सके। समान नागरिक संहिता लागू करने का यह सबसे माकूल वक्त है। एक अहम विषय सरकार और संसद के सामने पेश किया गया है। यदि संविधान, संसद और संप्रभुता एक हैं, तो अलग-अलग कानून क्यों हैं?
संविधान का राज होगा अथवा शरियत का कानून भी चलता रहेगा? यदि एक देश और एक ही राशन कार्ड और चुनाव के विमर्श चल सकते हैं और वह कानूनी व्यवस्था भी बन सकती है, तो सभी नागरिकों, धार्मिक-मजहबी समुदायों और नस्लों के लिए एक ही कानून (One Law) लागू क्यों नहीं किया जा सकता? सोचिए, समाज के हर वर्ग के छात्र जब स्कूल में जाते हैं, तो उनकी एक जैसी यूनिफॉर्म होती है, एक जैसी परीक्षाएं होती हैं और स्कूल के नियम भी एक जैसे ही सब पर लागू होते हैं, तो क्या देश के कानूनों में भी यही समानता लागू नहीं होनी चाहिए? धर्म और जाति के आधार पर ये कानून अलग-अलग क्यों हैं?
संवैधानिक रूप से हम अपने आपको धर्मनिरपेक्ष देश कहते हैं, लेकिन हमारे ही देश के कानून में धर्म के हिसाब से भेदभाव होता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि देश का संचालन संविधान से ही होगा। तीन तलाक के खिलाफ भी संसद ने बिल पारित कर कानून बनाया है। एक सड़ी-गली परंपरा खत्म हुई है और औरत का शोषण भी लगभग समाप्त हो रहा है, क्योंकि तीन तलाक कहने वाला अब ‘अपराधी’ होगा।