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Navpradesh Special…जब मोतीलाल वोरा की टिकिट 2 बजकर 59 मिनट पर कट गई थी

यशवंत धोटे
रायपुर/नवप्रदेश। कांग्रेस में टिकिट, भीतरघात, खुलाघात, गुटबाजी, निपटो- निपटाओ, सर्वे, पहली सूची, दूसरी सूची जैसी शब्दावली के साथ होने वाले राजनीतिक क्रियाकर्म को लेकर दिए जाने वाले अजीबो-गरीब तर्क या तो जुमले बन गए या कांग्रेस का कल्चर उन जुमलों में समा गया। हाल ही में टिकिट वितरण के बाद खुला खेल फर्रूखाबादी की तर्ज पर हो रहे विरोध को हम खुलाघात कह सकते हैं। लेकिन उपरोक्त शब्दों के और भी पर्यायवाची शब्द पूरे चुनाव भर कानों में गूंजते रहेंगे और ये सारे शब्द कांग्रेस की राजनीति के ही पर्यायवाची के रूप में सुनने और महसूसने मिलेंगे।

दरअसल 90 के दौर में एक जुमला काफी लोकप्रिय हुआ था कि कांग्रेस की टिकिट और आदमी की मौत का कोई ठौर ठिकाना नहीं, कब किसको कहा से मिल जाए। शार्टकट या पैराशूट कल्चर की पैरोकार राजनीति की इस दौर की पीढ़ी राजनीति को वाट्सएप यूनिवर्सिटी के सिलेबस से समझने की कोशिश कर रही हंै। इसी पीढ़ी की समझ को जानकर राजनीतिक दल भी राजनीति को कारपोरेट हाउसेस में तब्दील कर रहे है।

नतीजा यह हो रहा है कि राजनीति में भरोसे का संकट खड़ा हो गया है। उपरी स्तर के नेताओं के बीच होती राजनीतिक नूराकुश्ती से कोई किसी पर भरोसा नहीं कर रहा है। अब घर परिवार में भी सदस्यों का एक-दूसरे के प्रति भरोसा कम हो गया है। यह इसी तरह की राजनीति का सामाजिक, पारिवारिक प्रभाव है। यहां एक राजनीतिक घटनाक्रम का जिक्र करना लाजिमी है।

अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री, केन्द्रीय मंत्री और उत्तरप्रदेश जैसे राज्य के राज्यपाल रहे मोतीलाल वोरा की दुर्ग लोकसभा की टिकिट 1991 में नामांकन वापसी के अंतिम दिन 2 बजकर 59 मिनट पर कटी थी। दरअसल, उस समय पूर्व सांसद चन्दूलाल चन्द्राकर नामांकन भरकर गायब हो गए थे। मोतीलाल वोरा नामांकन भरकर चुनाव प्रचार में निकल गए थे।

नामांकन वापसी के आखरी दिन जिला कांग्रेस कमेटी के तब के अध्यक्ष रहे वासुदेव चन्द्राकर के घर पर राजीव गांधी के दिल्ली निवास से लगातार संपर्क करने की कोशिश के बाद भी जब चन्दूलाल चन्द्राकर या वासुदेव चन्द्राकर से संपर्क नहीं हो पाया, तब मोतीलाल वोरा नाम वापसी के अंतिम दिन 2 बजकर 55 मिनट पर दुर्ग जिला निर्वाचन अधिकारी के समक्ष पहुंच गए थे। तब भी 3 से 4 मिनट का इंतजार किया गया और जब चन्दूलाल चन्द्राकर नाम वापसी के लिए नहीं आए तब 2 बजकर 59 मिनट पर वोरा ने नामांकन वापस लिया।

इस पूरे घटनाक्रम के दौरान एक पत्रकार के रूप में हम वहां मौजूद थे। वोरा की नाम वापपी के बाद प्रकट हुए चन्दूलाल चन्द्राकर के बारे में फि र पता चला कि वे उस दरम्यान पूरे समय कनक तिवारी के घर में मौजूद थे। हालांकि इस तरह टिकिट बदलने या काटने का सफल प्रयोग दुर्ग जिले से शुरू होकर वहीं खत्म भी हुआ।

क्योंकि 1993 के विधानसभा चुनाव में बी फार्म किसी और के लिए आए थे और मिले किसी और को, लड़ा कोई और जीता कोई और। चूंकि यह उस समय चर्चित राजनीतिक घटनाक्रम था इसलिये इसी के बाद से तय हुआ कि जिसे टिकिट मिलेगी उसी के हाथ बी फार्म दिया जाएगा और वही जमा करेगा। और यही से निकला एक जुमला कि कांग्रेस की टिकिट और आदमी की मौत का कोई ठौर ठिकाना नहीं कि किसको कब कहां मिल जाए।

इस घटनाक्रम के जिक्र का आशय यह है कि मौजूदा दौर में जिन विधायकों के टिकट कट रहे हैं उन्हें हायतोबा करने की जरूरत नहीं है। उनकी राजनीति की इतनी ही उम्र मानकर सन्तोष किया जाए और पाटी के लिए काम किया जाए। हालांकि सभी राजनीतिक दलों में इस तरह के राजनीतिक क्रियाकर्म परम्परा सी बन गई है।

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