तारन प्रकाश सिन्हा
कुपोषण (malnutrition) देश के लिए एक बड़ी सामाजिक-आर्थिक समस्या (menace) बन गया है, खासकर पांच वर्ष से कम आयु वर्ग के बच्चों (children) को लेकर, जो ज्यादा कुपोषित हैं। राष्ट्रीय स्तर पर कुपोषण तीन प्रकार का है: पहला पांच वर्ष से कम आयु वर्ग के ऐसे बच्चे जिनका वजन उनकी उम्र से मेल नहीं खाता, दूसरा- पांच वर्ष से कम आयु वर्ग के ऐसे बच्चे जिनकी ऊंचाई उनकी आयु के अनुपात में बराबर नहीं होती। तीसरा-इसी आयुवर्ग के ऐसे बच्चे जिनका वजन व ऊंचाई दोनों ही उनकी उम्र के मुताबिक नहीं होती।
राष्ट्रीय परिवार एवं स्वास्थ्य सर्वे 2015-16 के मुताबिक 35.7 फीसदी बच्चे कुपोषित (undernourished) हैं और सर्वे के मुताबिक छत्तीसगढ़ (chhattisgarh) में यह आंकड़ा 37.7 फीसदी है। हालांकि छत्तीसगढ़ सरकार (government) के द्वारा राज्य में चलाई जा रही मुहिम ‘वजन त्योहार’ के जरिए जुटाए आंकड़ों के मुताबिक 2019 में यह आंकड़ा 23.7 फीसदी रहा है। 17 सितंबर, 2019 को जारी लैंसेट जर्नल की रिपोर्ट के मुताबिक भारत के हर राज्य में कुपोषण वर्ष 2017 में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों में मृत्यु का सबसे बड़ा व खतरनाक कारक रहा था। जर्नल के मुताबिक, कुपोषण (malnutrition) की वजह से 2017 में पांच वर्ष से कम उम्र के 68.2 फीसदी बच्चों (children) की मौत हो गई थी। यह स्थिति बेहद गंभीर है।
इस स्थिति को ध्यान में रखते हुए छत्तीसगढ़ में कुपोषण (malnutrition) के खिलाफ रणनीतिक कदमों को शीर्ष प्राथमिकता के साथ उठाया गया। इसे जन आंदोलन का रूप दिया गया। कुपोषण के वर्तमान स्तर को देख कर बुनियादी ढांचे का विकास और अन्य भौतिक सुविधाएं बेमतलब की लगती है। इस समस्या (menace) से बुरी तरह प्रभावित राज्य के आदिवासी इलाकों ने हमें आर्थिक विकास की सामाजिक कीमत व इसके सामाजिक अर्थ पर पुनर्विचार करने के लए मजबूर कर दिया। यह सामने आया कि कुपोषित बच्चों के सबसे गंभीर मामले राज्य के उन्हीं इलाकों से हैं जहां से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया जा रहा है।
इन इलाकों में खासकर दक्षिण छत्तीसगढ़ में 65 फीसदी से अधिक महिलाएं व माताएं एनीमिया से पीड़ित हैं। ये महिलाएं 15-49 आयु वर्ग की है। छत्तीसगढ़ सरकार ने कुपोषण की चुनौती से निपटने के लिए काफी योजनाएं व कार्यक्रम शुरू किए हैं। बस्तर व सरगुजा संभाग सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्र हैं। राज्य सरकार आदिवासी इलाकों में पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर प्राेटिन युक्त खाना, जिसमें दाल व अंडा शामिल है, उपलब्ध करा रही है। पायलट प्रोजेक्ट बस्तर, दंतेवाड़ा, कोरबा, सरगुजा, कोरिया व कुछ अन्य जिलों में शुरू किया गया है।
दो अक्टूबर (महात्मा गांधी की 150वीं जयंती) के बाद इस योजना का पूरे राज्य में लागू किया जाना प्रस्तावित है। डीएमएफ फंड को भी अब जिला कलेक्टर के बजाय कैबिनेट मंत्री की अध्यक्षता में बनी समिति मैनेज करेगी। यह पैसा प्राथमिक तौर पर स्वास्थ्य पोषक आहार, शिक्षा, जीवनस्तर व समुदाय केंद्रीत गतिविधियों पर खर्च होगा। आवंटित फंड का सोशल ऑडिट अनिवार्य होगा।
राज्य में यूनिवर्सल हेल्थ स्कीम चलाई जा रही है, जिसके तहते स्वास्थ्य सेवा के पूरे तंत्र में सुधार किया जाएगा व इस क्षेत्र में स्तरीय सेवा को सुनिश्चित किया जाएगा। राज्यभर में गर्भवती महिलाओं को स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराई जाएगी। इसके अलावा सिकल सेल परीक्षण, डायलसिस, पैथोलॉजी जैसी अन्य स्वास्थ्य सेवाओं को भी उपलब्ध कराया जाएगा।
इस दिशा में सबसे बड़ी पहल रही है- राज्य के कोने-कोने में स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच सुनिश्चित हो पाना। यह संभव हो पाया है दूरस्थ ग्रामीण अंचलों में साप्ताहिक बाजारों में चलाई जा रही ‘सीएम हाट बाजार स्वास्थ्य योजना’ से। चूंकि राज्य में हाटों को काफी महत्व है। हाट में आस-पास के गांवों के लोग भी जमा होते हैं। इसलिए स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने व जागरूकता फैलाने के लिए यह उचित स्थान है।
छत्तीसगढ़ सरकार (government) यह भलीभांति समझती है कि उक्त गतिविधियों व योजनाओं के क्रियान्वयन व लक्ष्यपूर्ति की दिशा में काम करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है, लेकिन जिम्मेदारों व जरूरतमंदों के बीच लगातार हो रहे संवाद से समस्या का समाधान खोजने में मदद मिलेगी।
सरकार का ऐसा मत है कि उसके लघु व दीर्घावधि दोनों के लिए तय उद्देश्यों से स्वास्थ्य (health) मुद्दे से जुड़ी हर समस्या का समग्र व टिकाऊ समाधान निकल जाएगा। एक स्वस्थ परिवार विवेकशील फैसले लेने में सक्षम होता है और कई विवेकशील फैसलों से स्वस्थ समाज की संकल्पना साकार होती है। और हमारा ऐसा मानना है कि ऐसा समाज आने वाले दशकों में छत्तीसगढ़ को विकास के सभी मामलों में आगे ले जाने में सक्षम होगा।
लेखक छत्तीसगढ़ जनसंपर्क आयुक्त हैं