राजेश माहेश्वरी। Lethal Defection Tendency : हमारे देश में अब एक राजनीतिक परिपाटी ही बन गई है। हर राजनीतिक दल, दल-बदलुओं का बाहें पसारकर और दिल खोलकर स्वागत करता है। इसमें वे दल सबसे आगे हैं, जो सत्ता में हैं। कल तक सत्तारूढ़ दल को घोर साम्प्रदायिक, देश-विरोधी और अमर्यादित बताने वाला कोई नेता दूसरी सुबह उसी दल के मंच पर उसी का झंडा थामे उसके गुणगान करता नजर आता है।
पिछले दिनों गोवा में कांग्रेस के आठ विधायक टूटकर (Lethal Defection Tendency) भाजपा में शामिल हो गये। गाहे-बगाहे देश के विभिन्न राज्यों में विपक्षी दलों के विधायकों को येन-केन-प्रकारेण दल बदल की खबरें प्रकाश में आती रहती हैं। गोवा की तरह पूर्वोत्तर राज्यों, कर्नाटक व मध्यप्रदेश में भी दलबदल की घटनाएं पिछले दिनों प्रकाश में आयी हैं। इन घटनाओं को लोकतंत्र में जनता के विश्वास से छल ही कहा जायेगा कि जनप्रतिनिधि जनता से किसी पार्टी के नाम पर वोट मांगता है और फिर दूसरे राजनीतिक दल की बांह पकड़ लेता है। इस प्रवृत्ति के चलते विभिन्न राजनीतिक दलों के सहयोगियों में भी अविश्वास बढ़ा है।
दल-बदल की प्रवृत्ति राजनीतिक चकाचैंध के वर्तमान माहौल में पिछले तीन दशक से काफी तेजी से बढ़ती आई है। दल बदलुओं को अपना मंच देकर राजनीतिक दल आम आदमी के मन में निराशा पैदा करते हैं। ईमानदार, अच्छी सोच वाले दूरदर्शी नेता लुप्त होते जा रहे हैं। ऐसे में अहम सवाल यह है कि क्या ऐसा करके राजनीतिक दल और उनके नेता हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के मूल मंत्र और चुनाव-व्यवस्था और संविधान की मूल भावना के साथ खिलवाड़ नहीं करते? राजनीतिक दलों और नेताओं को लगता है कि कोई फर्क ही नहीं पड़ता। इसमें वे कुछ गलत, अनैतिक देखते ही नहीं।
आखिर इसे क्यों उचित माना जाता है? यह उचित इसलिए नहीं है कि दल विशिष्ट राजनीितक विचारधारा के आधार पर बनते हैं। भारत एक लोकतांत्रिक देश है। यहां पर सरकारें चुनावों के माध्यम से चुनी जाती हैं। सत्ता हासिल करने के लिए नेता दल बदलने में देर नहीं लगाते हैं। बिना सिद्धांत के दूसरी पार्टी में ऐसे जम जाते हैं, जैसे वे शुरू से इसी पार्टी में हों। नेताओं का लक्ष्य सिर्फ सत्ता प्राप्ति है। उनके लिए न तो कोई लोकमत का महत्व है, न ही जनतंत्र का।
उनके न कोई मूल्य हैं और न ही सिद्धांत। वे सत्ता की चाह में साम, दाम, दंड, भेद सब अपनाते हैं। नेताओं को चुनाव के लिए टिकट का न मिलना दलबदल का प्रमुख कारण है। जब किसी दल के किसी सदस्य को या उसके साथी को पार्टी टिकट नहीं मिलता है, तो वह उस दल को छोड़ देता है। नेता अपने स्वार्थ के लिए दल बदलते है। उन्हें सत्ता की ताकत और पैसों की चमक ऐसा करने के लिए प्रेरित करती है। जिनको सच में समाज या देश की सेवा करनी होती है, वे दलबदल पर ध्यान नहीं देते।
इस हमाम में सब नंगे हैं। साम, दाम, दंड, भेद से सत्ता हथियाने की इच्छा से कोई दल अछूता नहीं है।
इसलिए चंद सीटों के लालच में ऐसे नेताओं को अपनाने से कोई दल पीछे नहीं रहना चाहता। नेताओं के बीच दलबदल जितना सहज और सरल हो गया है, वोटर के लिए नेता उतना ही अविश्वसनीय होता जा रहा है। यद्यपि आजादी के बाद से ही नेताओं की छवि पर सवाल खडे होते रहे हैं। जन सेवा का भाव ही नेताओं के एजेंडे से गायब होता जा रहा है। किसी भी स्तर का चुनाव जीतने के बाद नेताओं के रहन-सहन में जो बदलाव लाता है, वह वोटर की निगाह से बच नहीं पाता।
वर्तमान में राजनीति धन अर्जित करने का सबसे सरल और सुरक्षित साधन है। हमारे देश के ज्यादातर नेताओं का कोई राजनीतिक सिद्धांत नहीं है और सिद्धांत विहीन राजनेता ही अपनी सुविधा के अनुसार दल बदलते रहते हैं। यह भी कटु सत्य है कि आज बहुत सारे नेता जन सेवा के बहाने तरह-तरह के कारोबार में लिप्त हैं। ऐसा भी नहीं है कि उनके सारे व्यापार नियमानुकूल और साफ-सुथरे हैं। अवैध-धंधों और नियम-विरुद्ध काम करने के लिए कई नेता कुख्यात हैं। वे कानून की पकड़ से बचने के लिए हर समय सत्ता पक्ष में रहना चाहते हैं।
इसीलिए जो दल सत्ता में आए, उसके साथ हो जाते हैं। देश में लगातार दल बदल की घटनाओं के साथ नेताओं के व्यक्तिगत हित की चर्चा भी व्यापक तौर पर होती हैं असर विभिन्न स्तर के चुनाव में वोटिंग परसेंटेज में गिरावट के तौर देखा जा सकता है। निस्संदेह,यह घटनाक्रम भारतीय राजनीति में नैतिक मूल्यों के पराभव का चित्र भी उकेरता है। जो बताता है कि सत्ता में आने की बेचैनी जनप्रतिनिधियों को किसी भी हद तक ले जा सकती है। फार्म हाउसों और गेस्ट हाउसों में घेर कर ले जाये जाते विधायक इस दयनीय स्थिति को ही उजागर करते हैं। जो राजनीतिक पंडितों के लिये अध्ययन का विषय होना चाहिए कि विपक्ष में बैठने में विधायकों में बेचैनी क्यों होती है और वे स्वार्थों के लिये जनता के विश्वास से छल क्यों करते हैं।
देश के किसी भी राज्य में ऐसा कोई कानून नहीं है जो स्थानीय निकायों के निर्वाचित जन प्रतिनिधियों को दलबदल करने से रोकता हो. अभी सांसद और विधायकों के दलबदल को रोकने वाला ही कानून देश में लागू है। इसके बाद भी देश में बढ़ी संख्या में विधायक दल बदल करते देखे जा सकते हैं। कई राज्यों में बहुमत वाली सरकारें दल बदल के कारण अल्पमत में आईंै बाद में उस दल की सरकार बनी जिसे जनता ने सरकार बनाने का जनादेश नहीं दिया था। कर्नाटक, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में भी विधायकों के इस्तीफे दिए जाने के कारण सरकारें अल्पमत में आईं। मौजूदा दल बदल कानून विधायकों को इस्तीफा देने से नहीं रोकता है।
सैद्धांतिक तौर पर भी देखा जाए तो सांसद अथवा विधायक के तौर पर निर्वाचित व्यक्ति यदि इस्तीफा देकर दूसरे दल में शामिल होता है तो वह गलत नहीं माना जा सकता। विधायकों और सांसदों के दल बदल में अब यही पैटर्न देखने को मिल रहा है। लेकिन, निकायों के प्रतिनिधि दल को छोड़े बगैर ही क्रॉस वोटिंग के जरिए अपनी प्रतिष्ठा को दांव पर लगा रहे हैं। किसी भी नेता का दलबदल कृत्य उस क्षेत्र के मतदाताओं का अपमान है। स्वार्थ सिद्धि नहीं होने पर नेता पाला बदल लेता है।
वर्तमान में दलबदल कानून का प्रभाव न के बराबर है। इस कानून को हर बार टंगड़ी मार दी जाती है और शोर भी नहीं होता।
इस कानून की खामियां भी कई बार सामने आती हैं, जिसे दूर किया जाना भी बहुत जरूरी है। यह कानून थोक दलबदल को मान्यता देता हैं, अयोग्यता का फैसला स्पीकर लेता है, जो काफी विवादास्पद है। दलबदल कानून में पुन: संशोधन होना चाहिए। अब सबको एक साथ बैठकर एक कानून उन लोगों के लिए बनाना चाहिए, जो बीच में ही दल-बदल करते हैं, जो भी अपनी मूल पार्टी को छोड़कर दूसरे दल में जाना चाहता है उसे कम से कम एक से दो वर्ष बिना किसी राजनीतिक पार्टी में जाए बैठना चाहिए।
तत्पश्चात इनको नए दल (Lethal Defection Tendency) में जाने के लिए इजाजत मिलनी चाहिए। इस पूरी प्रक्रिया को एक कानून बनाकर संसद के दोनों सदनों से पास करा लेना चाहिए। अगर सारे राजनीतिक दल आने वाले समय में सही कदम नहीं उठाएंगे तो देश एक बहुत बड़ी निराशा के माहौल की ओर बढ़ जाएगा। दलबदल और स्वार्थपरक राजनीति के चलते आम आदमी के भीतर राजनीति और राजनीतिज्ञो के प्रति विमुखता की प्रवृत्ति भी पनपने लगी है। ऐसा माहौल किसी भी लोकतंत्र और लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए ठीक नहीं कहा जाएगा।