Kisan Aandolan : केंद्र की मोदी सरकार द्वारा कृषि क्षेत्र में व्यापक सुधार हेतु लाए गये तीन कृषि कानूनों का विरोध लगातार जारी है। किसान दिल्ली की सीमा पर महीनों से डेरा डाले बैठे हैं। सरकार और आंदोलनकारी किसानों के बीच कई दौर की वार्ता भी हो चुकी है, बावजूद इसके नतीजा ढाक के तीन पात ही रहा है।
ऐसे में सवाल यह है कि किसान आंदोलन का क्या नतीजा निकलेगा? किसान आंदोलन की अंतिम गति क्या होगी? क्या किसानों को निराश होना पड़ेगा और उनकी मांगें अनसुनी रह जाएंगी या फिर सरकार और किसानों के बीच कोई सहमति बन पाएगी। कृषि कानूनों के विरोध की आवाज सड़क से संसद तक सुनाई दे रही है। किसान आंदोलन की गूंज संसद में भी सुनाई दी, लेकिन विपक्ष ने इस मामले में कोई पहल करने की बजाय, हंगामें में ज्यादातर समय खराब कर दिया है।
न खुदा ही मिला, न विसाल-ए-सनम, न इधर के रहे न उधर के रहेश् उर्दू का यह मशहूर शेर पिछले 9 महीने से चल रहे किसान आंदोलन पर पूरा सटीक बैठता है। पूरी तरह भटकाव की राह पर चल पड़ा किसान आंदोलन 270 दिन बाद अपनी दिशा ही भूल गया है और किसान आंदोलन की दशा तो जग जाहिर हो चुकी है। गणतंत्र दिवस पर लाल किला हिंसा, एक युवती से दुष्कर्म से लेकर टीकरी बॉर्डर पर एक शख्स को जिंदा जलाने जैसे दाग किसान आंदोलन पर लग चुके हैं।
किसान आंदोलन के दामन पर लगे दाग इस कदर गाढ़े हो गए हैं कि इन्हें साफ करना नामुमकिन है। सच बात तो यह है कि नाम कमाने से ज्यादा देशभर में अब किसान आंदोलन बदनाम हो गया है। अब आम जनता भी समझ नहीं पा रही है कि जब केंद्र सरकार तीनों केंद्रीय कृषि कानूनों को स्थगित कर चुकी है तो आखिर किसान प्रदर्शनकारी जिद क्यों किए हुए हैं। किसान आंदोलन के समर्थन में संसद से बहिर्गमन कर विपक्ष के नेतागण गत दिवस कृषि कानूनों के विरोध में दिल्ली के जंतर दृ मंतर पर चल्र रही किसान संसद में जा पहुंचे। उनको उम्मीद रही होगी कि किसान आन्दोलन के कर्ता-धर्ता उनको हाथों-हाथ उठाएंगे लेकिन हुआ उलटा।
किसान संसद के आयोजकों ने राहुल गांधी सहित तमाम विपक्षी नेताओं को न मंच पर बैठने दिया गया और न ही उन्हें भाषण का अवसर दिया गया। उनके पहुंचते ही मंच से सभी से दर्शक दीर्घा में बैठने कह दिया गया। यद्यपि ये पहली मर्तबा नहीं हुआ। दरअसल शुरू से ही किसान नेता इस बात के प्रति सतर्क रहे कि उनके आन्दोलन पर किसी राजनीतिक दल की छाप न लग जाये। हालांकि आन्दोलन की प्रथम पंक्ति के नेताओं और रणनीतिकारों में योगेन्द्र यादव जैसे लोग भी हैं जो आम आदमी पार्टी से निकाल बाहर किये जा चुके हैं।
राजनीति से दूर रखने की चाहे कितनी कोशिशें किसान नेताओं द्वारा की जा रही हों लेकिन अगले साल फरवरी में पांच राज्यों की विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। किसान संगठन उनमें भाजपा को हराने जैसा ऐलान कर चुके हैं। विशेष रूप से राकेश टिकैत ने तो उ.प्र में चुनाव लडने की तैयारियां किये जाने के संकेत भी दिए हैं, जिसे लेकर पंजाब और हरियाणा के किसान नेता उनसे खफा हैं। आम आदमी पार्टी चूंकि पंजाब में पूरी ताकत से उतरना चाह रही है इसलिए वह किसान आन्दोलन से जुडने के प्रति बहुत ही सतर्क है।
उ.प्र पर भी उसकी नजर है। जहां तक पंजाब का प्रश्न है तो कांग्रेस को लगता है कि वहां के किसान उसके पाले में ही रहेंगे। इसलिए वह आन्दोलन से निकटता बनाये रखती ही। सही बात तो ये हैं कि विपक्षी पार्टियों को किसान आन्दोलन केवल इसलिए रास आया रहा है क्योंकि वह भाजपा विरोधी शक्ल अख्तियार कर चुका है। बावजूद इसके किसान नेता यदि भाजपा विरोधी पार्टियों को मंच नहीं दे रहे तो उसकी मुख्य वजह ये है कि उनके भीतर भी राजनीतिक महत्वाकांक्षा उत्पन्न हो चुकी है।
सवाल ये है कि जब किसान संगठन (Kisan Aandolan) विपक्षी नेताओं को भाव ही नहीं देते तब वे उनके आन्दोलन स्थल पर जाते ही क्यों हैं? इस बारे में ये बात भी गौर तलब है कि किसान नेताओं को ये समझ में आ गया है कि वे किसी एक पार्टी या नेता के साथ जुड़े तो बाकी उनकी मिजाजपुर्सी करना छोड़ देंगे। और इसी उधेड़बुन में वे राजनीतिक तौर पर अनिश्चितता के भंवर में फंसते जा रहे हैं। किसान नेताओं को इस बात की चिंता भी है कि जैसे ही वे खुलकर किसी भाजपा विरोधी पार्टी के साथ जुड़ेंगे वैसे ही आन्दोलन का राजनीतिकरण जाहिर हो जाएगा और तब भाजपा की मानसिकता वाले किसान उससे छिटक जायेंगे। इन सबके कारण आन्दोलन अजीबोगरीब भूलभुलैयां में फंसकर रह गया है।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि किसान संगठनों को समझ में आ गया है कि राजनीतिक दल उनके आन्दोलन का अपने चुनावी फायदे के लिए उपयोग करना चाहते हैं। इसलिए वे उन्हें दूर रखने की कोशिश तो करते हैं लेकिन दूसरी तरफ उनको ये एहसास भी हो चला है कि बिना राजनीतिक ताकत हासिल किये वे इसी तरह सड़क पर बैठे रहेंगे। ऐसे में आज की स्थिति में उनके लिये न तो किसी पार्टी से जुडना संभव हो पा रहा है और न ही वे अपनी पार्टी बनाने में सक्षम हैं। पंजाब और उ.प्र के जो विरोधी दल किसान आंदोलन का समर्थन कर रहे हैं वे चुनाव में एक दूसरे के खिलाफ कमर कस रहे हैं। ऐसी स्थिति में किसान संगठन भारी असमंजस में हैं।
उनकी सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि वे भाजपा के विरोध में जिस हद तक आगे बढ़ गये हैं वहां से उनका लौटना बहुत कठिन है। और उनका समर्थन कर रही पार्टियों में एकजुटता नहीं होने से किसी एक का चयन आत्मघाती होगा। यही वजह है कि दिल्ली की देहलीज पर जमे किसान संगठन आन्दोलन को वहां से आगे नहीं बढ़ा सके। किसानों के बीते नवंबर से कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे प्रदर्शन की वजह से बंधक बने दिल्ली-हरियाणा सिंघु बॉर्डर के नजदीक सोसाइटी में रहने वालों को बीते 9 महीने से कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।
अब नौबत ये आ गई है कि लोग पलायन करने को मजबूर हो गए हैं। प्रदर्शनकारियों ने सड़कों के दोनों ओर तंबू गाड़ रखे हैं और ट्रैक्टरों के सहारे दोनों तरफ से सड़क को बन्द कर रखा है। जिस कारण कुंडली इलाके का व्यापार भी 9 महीने से बुरी तरह से प्रभावित हो चुका है। जिस कारण अब सिंघु बॉर्डर प्रदर्शनस्थल से सटी सोसाइटी के लोगों ने कुंडली से पलायन करने का ऐलान किया है। बन्द सड़क की वजह से व्यापार ठप्प होने के कारण स्थानीय लोगों के लिए जो आर्थिक संकट 9 महीने पहले शुरू हुआ था, उसने अब गम्भीर शक्ल ले ली है।
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली में किसान संसद (Kisan Aandolan) के समापन के बाद संयुक्त किसान मोर्चा 15 अगस्त के कार्यक्रमों की तैयारियों में जुट जाएगा। 15 अगस्त का दिन किसान मजदूर आजादी संग्राम दिवस के रूप में मनाये जाने की तैयारी है। इस दिन जिला व तहसील पर सभी किसान अपने ट्रैक्टर और वाहनों पर तिरंगा व संगठन का झंडा लगाकर जुलूस निकालकर आजादी दिवस मनाएंगे। किसान अन्नदाता और इस देश के वासी है, सरकार और आंदोलनकारियों को मिलबैठकर कोई आम राय बनानी चाहिए, इसी में देश का कल्याण निहित है।