लोकसभा चुनाव के परिणाम आने पर कांग्रेस की स्थिति के संबंध में देश में गंभीर चर्चाएं चल रही हैं। नवप्रदेश को इस संबंध में महत्वपूर्ण वैचारिक सामग्री की तलाश थी। अचानक हमारी पुरानी फाइलों में पिछले लोकसभा चुनाव के बाद विशेषकर कांग्रेस की स्थिति पर लिखा गया एक बेहद महत्वपूर्ण लेख हाथ लग गया जिसमें नकारात्मक के बदले कांग्रेस की सकारात्मक भूमिका की तलाश की गई है। यह लेख नवप्रदेश के सुपरिचित लेखक सीनियर एडवोकेट और कांग्रेस संगठन में प्रदेश महासचिव के अतिरिक्त मध्यप्रदेश लघु उद्योग निगम और मध्यप्रदेश हाउसिंग बोर्ड के अध्यक्ष रहे कनक तिवारी ने तब लिखा था। वे कांग्रेस से संबद्ध राष्ट्रीय लेखक मंच और मध्यप्रदेश कांग्रेस की चुनाव अभियान समिति के संयोजक भी रह चुके हैं। उनका यह विस्तृत लेख हम किश्तों में छाप रहे हैं जो आज के राजनीतिक हालात पर बिल्कुल सटीक बैठता है। हमें उम्मीद है नवप्रदेश के पाठक इस गंभीर लेख को पढऩा पसंद करेंगे। संपादक
कांग्रेस की इक्कीसवीं सदी : कनक तिवारी
कांग्रेस इस देश की राजनीति में घूमती हुई नहीं आई। कांग्रेस-संस्कृति इतिहास की दुर्घटना नहीं है। इतिहास मंथन की प्रक्रिया से करोड़ों निस्तेज भारतीयों को आज़ादी के अणु से सम्पृक्त करने के लिए एक ऐतिहासिक ज़रूरत के रूप में वक़्त के बियाबान में कांग्रेस पैदा हुई। कांग्रेस उन्नीसवीं सदी की अंधेरी रात में जन्मी। बीसवीं सदी की भोर में उसने घुटनों से उठकर अपने पुख्ता पैरों पर चलना सीखा और एक प्रतिनिधिक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में इक्कीसवीं सदी की ओर वह मुखातिब हुई। उसकी किशोरावस्था का परिष्कार भारतीय राजनीति के धूमकेतु लोकमान्य तिलक ने उसकी शिराओं में गर्म खून लबालब भरकर किया। उसकी जवानी गांधी के जिम्मे थी जिसने उसकी छाती को अंग्रेज की तोप के आगे अड़ाने का जलजला दिखाया। उसकी प्रौढ़ावस्था की जिम्मेदारियों के समीकरण जवाहरलाल ने लिखे।
शतायु की ओर बढ़ती उसकी बूढ़ी हड्डियों को इंदिरा गांधी ने आराम लेने नहीं दिया। लेकिन राजीव गांधी के अवसान के बाद कुछ वक्त कांग्रेस हांफती हुई भी लगी। दुनिया के सबसे पुराने सभ्य मुल्क की कोई दो सदियों की गुलामी के माहौल को आज़ादी के विजय युद्ध में तब्दील करने वाली बूढ़ी पार्टी लांछनों का भी आश्रयस्थल बनती गई। इंदिरा गांधी के दिनों से इस पार्टी के शीर्ष नेताओं पर तरह-तरह के आरोप लगाए जाने का क्रम जोर पकड़ता गया और इंदिरा गांधी को भी सत्ता से बाहर आना पड़ा। राजीव गांधी को बोफोर्स तोप के मामले में अवांछित अभियुक्तनुमा कटघरे में खड़ा किया गया। आज फिर लोकतंत्र का भविष्य दांव पर है। संविधान को विचित्र चुनौतियां दी जा रही हैं।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस 134 वर्ष की उम्र में आलोचकों को बूढ़ी और थकी नजऱ आ रही है। विडम्बना है कांग्रेस के नेतृत्व में भारत ने 62 वर्षों तक अपनी आज़ादी का महासमर लड़ा, वह स्वतंत्रता के स्वर्ण जयंती वर्ष में राष्ट्रीय राजनीति के हाशिये पर खड़ी कर दी गई। अपमानजनक यह भी कि दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावाद की जिस विचारधारा ने आज़ादी की लड़ाई में शिरकत नहीं की थी, उसकी ताजपोशी हो गई। बीसवीं सदी के पूर्वाद्र्ध की महायात्रा में कांग्रेस पगडण्डी नहीं, राष्ट्रीय राजमार्ग रही है। राजनीति के केन्द्र में रहते-रहते उन विचारधाराओं को केन्द्र में बिठाने की जुगत जनता को बिठानी पड़ी है जिनका इतिहास नहीं है। आज़ादी के महान सूरमा लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू ने एक के बाद एक कांग्रेस का बुनियादी विचारधारा के विश्वविद्यालय के रूप में संस्कार रचा।
देश, इतिहास और भविष्य एक साथ देखना चाहते हैं कि कांग्रेस में अब भी दमखम बाकी है कि वह इतिहास के मुख्य जनपथ पर अधिकारिक तौर पर चल पायेगी। लोकतंत्र में सत्तासीन होना ही सफल होना कहलाता है। लोक समर्थन का थर्मामीटर चुनाव के अवसर पर लोकप्रियता का बुखार नापता है। कांग्रेस की सत्ता पूरे देश में दरकती गई तो चिन्ता, शोध और परिष्कार का विषय होना चाहिए। भविष्य कांग्रेस से पूछ रहा है कि चुनाव में मुंह की खाने के बाद इस ऐतिहासिक संगठन में संघर्ष के वे जीवाणु अब भी कुलबुला रहे हैं, जिन्होंने देश की तीन पीढिय़ों का अंग्रेज की तोपों के मुकाबले प्रेरक नेतृत्व किया? लाल किले की प्राचीर से यूनियन जैक उतार फेंकने के बाद तिरंगे झंडे को जवाहरलाल नेहरू के हाथों फहराकर जिन मूल्यों को कांग्रेस ने आसमान की छाती पर उछाला था, क्या वे मूल्य अब मौजूदा कांग्रेसजनों के लिए इतिहास की भूली बिसरी धरोहर तो हैं? भविष्य यानी वक्त एक निर्मम हथियार है।
ऐसा नहीं है कि कांग्रेस को चुनावों में बार बार पराजय नहीं झेलनी पड़ी हो। 1962 के चुनाव में ही कई सूबों में कांग्रेस का एक छत्र राज्य दरक गया था। 1977 के राजनीतिक झंझावत ने पूरे देश में कांग्रेस की चूलें ढीली कर दी थीं, लेकिन यह इंदिरा गांधी का करिश्माई व्यक्तित्व था कि अपने दमखम पर वे 1980 में कांग्रेस को जिता कर ले आईं। 1989 के चुनाव में राजीव गांधी के नेतृत्व में हारने के बावजूद कांग्रेस लोकसभा में 1991 के चुनावों में फिर किसी तरह उठकर खड़ी हो गईं। यह सही है कि कांग्रेस में कोई करिश्माई व्यक्तित्व नेहरू परिवार से अलग हटकर नहीं रहा। राजनीति केवल करिश्मा नहीं है। कांग्रेस ने लाल बहादुर शास्त्री के संक्षिप्त कार्यकाल में पाकिस्तान को युद्ध के मैदान में जब धूल चटाई थी, तो शास्त्री ने सामूहिक नेतृत्व का अवसर पार्टी को प्रदान किया था। कोई सौ वर्षों तक कांग्रेस हिन्दुस्तानी राजनीतिक जमीन पर वट वृक्ष की तरह फलती-फूलती रही है। लोकतंत्र ने मतदाताओं के विवेक के बलबूते पर यह तिलिस्म भी तोड़ा। कांग्रेस इतिहास की एक बड़ी पार्टी जरूर है लेकिन अखंडित भूगोल की नहीं रही।
यक्ष प्रश्न यह है कि कांग्रेस इतिहास के शाश्वत मूल्यों के अभिलेखागार के रूप में तो जीवित रहेगी, लेकिन समकालीन मूल्यों और भविष्य की चुनौतियों तक भारतीय जनमानस के विश्वास की जमानतदार कैसे बनी रहेगी? कांग्रेस की हार के जो भी मुख्य कारण हों, उनमें धर्म और राजनीति की जुगलबन्दी, गुटबाजी, अदूरदर्शी टिकिट वितरण, भीतरघात, बगावत जैसे कारण भी सरलता से गिनाये जा सकते हैं। कांग्रेस की हार के कारण शोध प्रबन्धों की तरह खोजे जाते हैं।
कांग्रेस की पराजय के पीछे दार्शनिक, ऐतिहासिक और सामाजिक कारण मौजूद हैं जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। व्यक्तियों के नहीं बल्कि विचारों के सहारे कांग्रेस राजनीति में एक महानदी के रूप में प्रवाहित हुई जिसने सभी दृष्टियों की छोटी-बड़ी विकृतियों को आत्मसात कर लिया। करोड़ों लोगों की प्रतिनिधि पार्टी कांग्रेस बुनियादी तौर पर सोच की पार्टी रही है। उसके निर्माताओं का विचारों, बहस मुबाहिसों और किताबों से गहरा सरोकार रहा है। कांग्रेस बनिए का बहीखाता या जैन हवाला डायरी नहीं रही है जिसमें सफेद और काले धन का हिसाब लिखा जाता रहा हो। पार्टी के बड़े नेता लोकमान्य तिलक बीसवीं सदी के प्रथम दौर के सबसे बड़े विचारक थे। जो व्यक्ति स्वतंत्रता मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है का नारा अंग्रेज की छाती पर उगाता है, काले पानी के दिनों में बैठकर गीता रहस्य जैसी अद्भुत कृति की रचना भी वही करता है। प्रागैतिहासिक काल की एक उपपत्ति दी आर्कटिक होम इन दी वेदाज के माध्यम से तिलक ने स्वयं स्थापित की थी। ऐसा बुद्धिजीवी एक जननेता भी हो सकता था, यह कांग्रेस ने सम्भव कर दिखाया। गांधी ने साहित्य और पत्रकारिता में जितना अधिक लिखा वह अपने आप में विश्व आन्दोलन के इतिहास में बेमिसाल है। महात्मा गांधी अंग्रेजी और गुजराती के अप्रतिम रचनाकार थे। नेहरू ने विश्व लेखकों के बीच अपनी सम्मानजनक जगह सुरक्षित कर ली। (क्रमश : 1)