Jihadist Violence : दलितों पर टूटने वाली मुस्लिम हिंसा की कुछ नमूने यहां देखिये और फिर दलित-मुस्लिम एकता की राजनीति करने वालों का चाल चरित्र का अनुमान लगा लीजिये और यह भी पता कर लीजिये कि आखिर देश की राजनीति मे दलित-मुस्लिम एकता की राजनीति सिर चढ कर क्यों नहीं बोलती है, राजनीतिक पार्टियां दलित-मुस्लिम एकता की बात कर राजनीतिक उफान तो पैदा जरूर करती हैं पर खास कर दलित जनता इस तथाकथित एकता के खिलाफ ही अपना समर्थन व्यक्त करती हैं।
अब यहां यह प्रश्न उठता है कि दलितों पर मुस्लिम जिहाद की हिंसा किस प्रकार से टूटती है, दलितों पर मुस्लिम किस प्रकार से उत्पीडऩ और अपमानित करने के जिहाद में सक्रिय हैं? यहां पर कुछ इसके राजनीतिक और गैर राजनीतिक उदाहरण उपस्थित है।
पहला उदाहरण बहुत ही खतरनाक है, लोमहर्षक, डरावना है, राजनीति की जिहाद (Jihadist Violence) समर्थक प्रवृति को उजागर करती है, यह उदाहरण बिहार के पूर्णियां जिले के मझुआ गांव का है जहां पर महादलितों की बस्ती पर सैकड़ोंं की संख्या में मुस्लिम जिहादियों की भीड हमला करती है और महादलितों की पूरी बस्ती को आग लगा कर स्वाहा कर देती है, महादलितों को कोई एक नहीं बल्कि पचास से अधिक घर जला कर राख कर दिये गये, एक महादलित को पीट-पीट कर हत्या कर डाली, दलित महिलाओं की इज्जत पर हाथ डाला गया।
इस लोमहर्षक हत्या और आगजनी की घटना पर दलित मुस्लिम एकता की बात करने वाली कोई पार्टियां और कोई नेता नोटिस तक नहीं लिया। दूसरी घटना उत्तर प्रदेश की है। उत्तर प्रदेश के नूरपुर गांव मेंं दलितों के दो-दो बरातों पर मुस्लिमों की जिहादी भीड हमला करती है, दूल्हें सहित पूरी बारात को पीटा जाता है, बारात वापस लौटने के लिए मजबूर किया जाता है, बारात नहीं लौटाने पर पूरी बारात को काट कर फेंकने की धमकी दी जाती है, डर कर दोनों बारातें लौट गयी। अभी-अभी तीसरा उदाहरण भी सामने आया है। यह उदाहरण राजस्थान से जुड़ा हुआ है।
राजस्थान के झाडवाला में कृष्ण नाम के एक बाल्मिकी युवक को मुस्लिमों की जिहादी टोली ने पीट पीट कर मार डाला। चैथा उदाहरण उत्तर प्रदेश के मुजफफरपुर के कैथोड़ा गांव की है जहां पर दलितों की जमीन पर मुसलमानों की भीड़ ने कब्र खोद दी और उसे बलपूर्वक कब्रिस्तान बना दिया। पाचवां उदाहरण देश की राजधानी दिल्ली से जुडा हुआ है ,जहां पर एक दलित युवक का एक मुस्लिम युवती के साथ प्रेम हो जाता है, दोनों अपनी मर्जी से शादी करते हैं और साथ-साथ रहने की कोशिश करते हैं।
यह जिहादी (Jihadist Violence) मुसलमानों को स्वीकार नहीं होता है, एक बाल्मिकी युवक द्वारा मुस्लिम युवक की शादी पर जिहादी मुसलमान बर्बर हो जाते हैं, जिहादी मुसलमानों की गोलबंदी हो जाती है, हथियारों से लैस होकर जिहादी मुस्लिम भीड़ बाल्मिकी युवक के टोले पर हमला कर देती है, बाल्मिकियों के पूरे टोले में हिंसा को अंजाम देती हैं, बाल्मिकियों को बुरी तरह पीटा जाता है, उनके घरों में तोड फोड होता है, बाल्मिकी औरते की इज्जत पर हाथ डाला जाता है।
पाचवां उदाहरण उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिलें का है जहां पर दलितों के घरों को मुसलमानों ने आग लगा दी थी। छठा उदाहरण बेंगलुरू का है। बेंगलुरू की मुस्ल्मि हिंसा को कौन भूल सकता है। एक दलित कांग्रेसी विधायक के भतीजे ने सोशल मीडिया पर कुछ बातें लिख देता है फिर मुस्लिम जिहादियों की हिंसा कैसी बरपी थी, यह भी जगजाहिर है। कई सरकारी प्रतिष्ठानों को आग के हवाले कर दिया गया था। उस दलित युवक की जान लेने की पूरी कोशिश हुई थी।
ये तो मुस्लिम जिहादी हिंसा के उदाहरण है। दलितों के साथ राजनीतिक तौर पर मुस्लिमों द्वारा होती ज्यादतियों का भी उदाहरण देख लीजिये। बार-बार यह बात उठती है कि मुस्लिम शिक्षण संस्थानों में दलितों के प्रवेश या अन्य जगहों पर आरक्षण क्यों नहीं मिलता है। देश भर में जामिया इस्लामियां यूिनर्वर्सिटी और अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी सहित दर्जनो अन्य शिक्षण संस्थानें भी हैं। पर इन सभी शिक्षण संस्थानों में दलितों को किसी प्रकार से आरक्षण नहीं मिलता है।
जब कभी भी मुस्लिम शिक्षण संस्थानों में दलितों के आरक्षण की बात उठती है तब मुसलमान अपनी जिहादी भूमिका में खडे हो जाते हैं और कहते हैं कि यह हमारा धार्मिक प्रसंग है, इस प्रसंग में कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता है। मायावती, रामराज और रावन जैसे जितने भी दलितों के तथाकथित ठग और पैरवीकार है ये कभी भी मुस्लिम शिक्षण संस्थानों में दलितों के आरक्षण पर मुसलमानों की घेराबंदी नहीं करते हैं।
सबसे बडी बात यह है कि दलितों के साथ लव जिहाद (Jihadist Violence) की घटनाएं भी खूब हो रही है। जो दलित लडकियां सरकारी सेवा में आ गयी है वैसी लड़कियों पर लव जिहाद के हमले खूशबू होते हैं। दलितों की जमीन हथियाने और आरक्षित सीटों पर चुनाव लडा कर राजनीतिक शक्ति हासिल करने के लिए लव जिहाद जारी है।
आजादी के आंदोलन के दौरान भी दलित मुस्लिम एकता की बात और हथकंडा चलाने की कोशिश हुई थी। पर दलितों के पास उस समय भविष्य की दृष्टिवाली राजनीतिक विरासत उपस्थित थी। डॉ भीभराव अबंडेकर इस्लाम और मुसलमानों की पैंतरेबाजी को जानते थे, उसके एजेंडे को जानते थे और यह मानते थे कि जिहादी इस्लाम और जिहादी इस्लाम से प्रेरित मुसलमान अवसर पाते ही दलितों को हलाल कर देंगे।
इसीलिए उन्होंने दलित और मुसलमानों की एकता की बात को ठुकरा दिया था। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि डॉ भीभराव अंबेडकर ने इस्लाम को भी खारिज कर दिया था।