नई दिल्ली/नवप्रदेश। देश (India) के केन्द्रीय विश्वविद्यालयों (Central Universities) एवं भारत सरकार के विभागों, मंत्रालयों में पिछड़ों (OBC), दलितों (SC), और आदिवासियों (ST) के प्रतिनिधित्व (representation) की स्थिति चौंकाने वाली है।
देश (India) के जिन केन्द्रीय विश्वविद्यालयों (Central Universities) में संविधान का पाठ पढ़ाया जाता है वहां भी पिछड़ों (OBC), दलितों (SC) व आदिवासियों (ST) की हालत बहुत खराब है। संविधान द्वारा तय आरक्षण (rservation) के अनुरूप इन संस्थानों में उक्त तीनों वर्गों का प्रतिनिधित्व नहीं है।
देश के 40 केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में ओबीसी का एक भी प्रोफेसर व असोसिएट प्रोफेसर नहीं
सामान्य वर्ग का बोलबाला नजर आता है। ऐसे में दलित, आदिवासी व पिछड़े वर्ग के हकों की लड़ाई लड़ रहे संगठनों को लग रहा है कि ‘मलाई तो सवर्ण ही काट रहे हैं और बदनाम आरक्षण (reservation) हो रहा है। पूरे मामले में खास बात यह भी है कि देश में 52 फीसदी आबादी वाला अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) तो कहीं नजर ही नहीं आता। देश के 40 केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में प्रोफेसरों के कुल पद 1125 हैं। इनमें ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) के प्रोफेसरों की संख्या शून्य है, जबकि तय आरक्षण के मुताबिक इस वर्ग के न्यूनतम 304 प्रोफेसर होने चाहिए, यानी 27 फीसदी।
एससी, एसटी का प्रतिनिधित्व आरक्षण के अनुरूप नहीं
एससी (अनुसूचित जाति) की बात करें तो इन केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में इस वर्ग के सिर्फ 39 प्रोफेसर हैं, यानी 3.47 फीसदी। जबकि तय आरक्षण के मुताबिक यह आंकड़ा 15 फीसदी होना चाहिए, यानी 169। वहीं एसटी (अनुसूचित जनजाति) के प्रोफेसर सिर्फ 6 हैं, जो तय आरक्षण के मुताबिक 84 होने चाहिए यानी 7.50 फीसदी। वहीं दूसरी ओर सवर्ण यानी सामान्य जाति के प्रोफेसरों की संख्या 1071 यानी 95 फीसदी है, जो तय संख्या के मुताबिक 562 होनी चाहिए। यानी अधिकतम 50 फीसदी। यह तथ्य भी अपने आप में चौंकाने वाला ही है कि 1 अप्रैल 2018 तक देश के 40 केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में ओबीसी का एक भी प्रोफेसर नहीं था, जबकि सीधी भर्ती में 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण पिछले 27 साल से लागू है।
आंकड़ों में हकीकत (प्रोफेसर पद)
प्रोफेसर- कुल पद (1125)- न्यूनतम चाहिए
एससी- 39 (3.47फीसदी)-169 (15 फीसदी)
एसटी-06 (0.70फीसदी)-84 (7.50 फीसदी)
ओबीसी-00 (0.00फीसदी)- 304 (27फीसदी)
सवर्ण -1071- (95.20फीसदी)-562 (50फीसदी) अधिकतम
(1 अप्रेल 2018 तक की स्थिति में)
एसोसिएट प्रोफेसर में ओबीसी का प्रतिनिधित्व शून्य
इन 40 केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में ओबीसी के एसोसिएट प्रोफेसरों के प्रतिनिधित्व की स्थिति भी प्रोफसरों के पदों जैसी ही है। एसोसिएट प्रोफेसरों के कुल 2620 पद हैं। इनमें ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) का एक भी एसोसिएट प्रोफेसर नहीं है। जबकि तय आरक्षण के मुताबिक इस वर्ग के 707 एसोसिएट प्रोफेसर होने चाहिए, यानी 27 फीसदी।
वहीं एससी (अनुसूचित जाति) के प्रोफेसर 130 हैं यानी 4.96 फीसदी, जबकि यह आंकड़ा होनेा चाहिए 393, यानी 15 फीसदी। इसी तरह एसटी (अनुसूचित जनजाति) के एसोसिएट प्रोफेसर 34 हैं यानी सिर्फ 1 फीसदी, जो इस वर्ग के लिए तय आरक्षण के अनुरूप 197 होने चाहिए, यानी 7.5 फीसदी। वहीं दूसरी ओर सवर्ण (सामान्य जाति) एसोसिएट प्रोफेसर 2434 हैं, यानी 93 फीसदी। जबकि तय संख्या के मुताबिक इनकी संख्या अधिकतम 1310 होनी चाहिए, यानी 50 फीसदी।
आंकड़ों में हकीकत (ऐसोसिएट प्रोफेसर पद)
एसोसिएट प्रोफेसर- कुल पद (2620)-न्यूनतम चाहिए
एससी- 130 (4.96फीसदी)- 393 (15 फीसदी)
एसटी- 34 (1.30 फीसदी)- 197 (7.50 फीसदी)
ओबीसी- 00 (0.00 फीसदी)- 707 (27 फीसदी)
सवर्ण- 2434 (92.90 फीसदी)- 1310 (50फीसदी) अधिकतम
(1 अप्रेल 2018 तक की स्थिति में)
असिस्टेंट प्रोफेसर्स की संख्या भी तय आरक्षण से कम
बात करें असिस्टेंट प्रोफेसर्स की तो इनके कुल पद 7741 हैं। इनमें अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी के हैं 1113, यानी 14.38 फीसदी, जबकि होने चाहिए न्यूनतम 2090 यानी 27 फीसदी। वहीं एससी के 931 यानी 12.2 फीसदी है, जबकि 1161 होने चाहिए, यानी 15 फीसदी। एसटी (अनुसूचित जनजाति) के 423 असिस्टेंट प्रोफेसर हैं, यानी याने 5.4 फीसदी। जबकि इनकी संख्या कम से कम 581 होनी चाहिए। यानी 7.5 फीसदी। वहीं दूसरी ओर सवर्ण (सामान्य जाति) असिस्टेंट प्रोफेसरों की संख्या 5130 है, यानी 66.20 फीसदी, जो अधिकतम हो सकती है 3870 यानी 50 फीसदी।
आंकड़ों में हकीकत (असिस्टेंट प्रोफेसर पद)
असिस्टेंट प्रोफेसर- कुल पद (7741)-न्यूनतम चाहिए
एससी- 931 (12.20फीसदी)- 1161 (15 फीसदी)
एसटी-423 (5.40 फीसदी)-581 (7.50 फीसदी)
ओबीसी- 1113 (14.38 फीसदी)-2090 (27 फीसदी)
सवर्ण-5130 (66.27 फीसदी)- 3870 (50 फीसदी) अधिकतम
(1 अप्रेल 2018 तक की स्थिति में)
केन्द्र सरकार के विभागों-मंत्रालयों में ऐसे पिछड़ा ओबीसी
चलिए अब केन्द्र सरकार के विभागों, मंत्रालयों का सच भी देख लेते हैं। केन्द्र सरकार के ग्रुप-ए और ग्रुप-बी यानी प्रथम व द्वितीय श्रेणी के पदों की भी जातीय व्यवस्था को देखें तो यहाँ दलित और आदिवासी तो पहुँचे, लेकिन बेचारे ओबीसी 27 फीसदी आरक्षण के 27 साल बाद भी पिछड़ गए।
विभाग- ग्रुप ए व बी के कुल पद-ओबीसी-सवर्ण
रेलवे-16,381-1319 (8.05फीसदी)-11,273 (68.72फीसदी)
अन्य 71 विभाग-3,83,777-51,384 (14.94 फीसदी)- 2,16,408 (62.95फीसदी)
एचआरडी मंत्रालय- 665- 56 (8.42फीसदी)-440 (66.17फीसदी)
कैबिनेट सचिवालय-162-15 (9.26 फीसदी)-130 (80.25 फीसदी)
राष्ट्रपति सचिवालय- 130-10 (7.69 फीसदी)-97 (74.62 फीसदी)
अफसरी में मजाक बना ओबीसी का हिसाब
अर्थात जितनी बड़ी अफसरी उतना बड़ा सवर्णवाद। यह है देश की आरक्षण व बराबरी का प्रतिनिधित्व देने की संवैधानिक व्यवस्था। केन्द्रीय विश्वविद्यालय हो या रेलवे या सचिवालय या नीति आयोग सवर्णों के अधिकतम 50 फीसदी पद होने का सारा हिसाब ही उल्टा हो जाता है और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का न्यूनतम 27 फीसदी होने का हिसाब एक मजाक बन कर रह जाता है।
ये नियम तो नहीं बन गया बाधा
अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के इस कम प्रतिनिधित्व का कारण कहीं संविधान द्वारा सामाजिक बराबरी देने का दावा करते-करते ओबीसी के क्रीमीलेयर अर्थात सक्षम को आरक्षण के दायरे से बाहर किये जाने का नियम तो नहीं है? जिसे दोनों बार अर्थात नियुक्ति व प्रवेश में चुनी हुई सरकारों ने नहीं बल्कि न्यायालयों ने आरम्भ कराया। आंकड़े तो यही बताते हैं कि सरकारी विभागों, मंत्रालयों व विश्वविद्यालयों में मलाई पिछड़े, दलित नहीं बल्कि सवर्ण काट रहे हैं, वहीं आरक्षण तो बेचारा, केवल बदनाम हो रहा है।