बजरंग मुनि
How successful and unsuccessful is the Indian Constitution?: व्यक्ति की असीम स्वतंत्रता और सहजीवन के तालमेल की प्रक्रिया समाजशास्त्र मानी जाती है। धीरे-धीरे यह प्रक्रिया रूढ़ होकर विकृत हो जाती है। तब इस प्रक्रिया में बदलाव समाज विज्ञान होता है। समाज विज्ञान जो निष्कर्ष निकालता है वह फिर से समाजशास्त्र बन जाता है। व्यक्ति की असीम स्वतंत्रता की सुरक्षा के दायित्व पूरे करने के लिए समाज एक मैनेजर नियुक्त करता है जिसे हम तंत्र कहते हैं। दूसरी ओर सहजीवन की मजबूरी का प्रशिक्षण निरंतर देने वाली प्रक्रिया को हम धर्म कहते हैं।
तंत्र को शक्ति समाज के द्वारा प्राप्त होती है और उस शक्ति की अंतिम सीमाएं क्या होंगी वह सीमाएं समाज तय करता है और उन सीमाओं को ही संविधान कहा जाता है। इस तरह संविधान की सबसे अच्छी परिभाषा यह होनी चाहिए कि तंत्र के अधिकतम और लोक के न्यूनतम अधिकारों की अंतिम सीमाएं निश्चित करने वाले दस्तावेज को संविधान माना जाना चाहिए। तंत्र संविधान की सीमाओं के अंतर्गत कानून बनाता है इस तरह तंत्र की न्यूनतम और व्यक्ति के अधिकतम अधिकारों की सीमा कानून तय करता है। लेकिन किसी भी परिस्थिति में तंत्र या संविधान व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की सीमा में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। संविधान तंत्र को जिस तरीके से शासन चलाने की पद्धति बताता है उसे हम लोकतंत्र कहते हैं। लोकतंत्र न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के आपसी तालमेल से व्यक्ति पर शासन करता है। यह आवश्यक है कि लोकतंत्र की इन तीनों इकाइयों में ‘चेक एंड बैलेंस हमेशा बना रहे।
वैसे तो समाज की हर इकाई का अपना-अपना संविधान हो सकता है और राष्ट्र भी हमारे समाज व्यवस्था की एक महत्वपूर्ण इकाई है, लेकिन राष्ट्र हमारी वर्तमान व्यवस्था की अंतिम इकाई होने के कारण हम राष्ट्रीय संविधान तक अपनी चर्चा को सीमित कर रहे हैं। स्वतंत्रता के बाद हमारी संविधान सभा ने एक संविधान बनाकर तंत्र को तदनुसार कार्य करने का निर्देश दिया था। अब 75 वर्ष के बाद यह समीक्षा करने का उचित अवसर है कि हमारा संविधान व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा और तंत्र की उद्दंडता पर नियंत्रण करने में किस सीमा तक सफल रहा और यदि असफल हुआ तो उसके कारण क्या थे? मैं मानता हूं कि भारत का लोकतंत्र दक्षिण एशिया के अधिकांश लोकतांत्रिक देशों की तुलना में कई गुना अधिक सफल रहा है। किंतु मैं यह भी मानता हूं कि भारत का लोकतंत्र व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा और तंत्र पर संवैधानिक नियंत्रण करने में असफल रहा है।
वर्तमान भारत में जिस तरह न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के बीच शक्ति की छीना-झपटी दिख रही है उसे रोकने में हमारा संविधान कहीं न कहीं असफल हो रहा है। व्यक्ति के मौलिक अधिकारों पर भी अपराधियों का दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है। चोरी, डकैती, लूट, बलात्कार, मिलावट, कम तौलना, जालसाजी, धोखाधड़ी, हिंसा, बल प्रयोग, आतंकवाद जैसी अनेक आपराधिक घटनाएं निरंतर बढ़ रही हैं और हमारा तंत्र इन्हें रोकने में सफल नहीं हो रहा है। देश का प्रत्येक नागरिक अपराधियों से भी भयभीत है और तंत्र के बढ़ते हुए हस्तक्षेप से भी। लेकिन अपराधी तत्व न समाज से डर रहे हैं न कानून से। इसलिए यह गंभीर प्रश्न खड़ा हो गया कि हमारा संविधान अपने प्रमुख कार्य में असफल क्यों हुआ?
यदि इस संबंध में गंभीरता से विचार किया जाए तो संविधान बनाते समय कुछ ऐसी कमियां रह गयीं जिनका परिणाम आज दिख रहा है। संविधान से परिवार और गांव की व्यवस्था को निकाल कर धर्म और जाति को संवैधानिक अधिकार दे देना मेरे विचार से एक गलती थी। संविधान को पूरा पढऩे के बाद यह भी स्पष्ट हुआ कि संविधान की भाषा अनेक स्थानों पर द्बिअर्थी है। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश भी किसी एक अर्थ पर निश्चित सहमति नहीं व्यक्त कर पाते। ऐसा लगता है कि यदि सुप्रीम कोर्ट से ऊपर कोई और व्यवस्था होती तो शायद अर्थ बदल जाता।
संविधान के अनेक अनुच्छेदों में प्रारंभ में सैद्धांतिक पक्ष लिखकर बाद में परंतु लगाकर उसके पूरे अर्थ को उलट दिया गया, यह भी एक गंभीर गलती थी। इसके कारण अनेक कंट्राडिक्शन पैदा हुए। इसी तरह संविधान को वर्ग समन्वय की दिशा में जाना चाहिए था लेकिन संविधान वर्ग विद्वेष की दिशा में बढ़ता गया। संविधान को समाज का अस्तित्व स्वीकार करना चाहिए था और तंत्र को समाज का मैनेजर मानना चाहिए था, लेकिन संविधान ने तंत्र को कस्टोडियन घोषित कर दिया। इस तरह और भी अनेक छोटी-छोटी विसंगतियां हो सकती हैं जिनकी चर्चा आवश्यक नहीं है।
मुख्य प्रश्न यह है कि संविधान के प्रमुख दुष्परिणामों का प्रभाव कब से शुरू हुआ? यदि आप संविधान के मौलिक स्वरूप पर विचार करेंगे तो संविधान बनाते समय संविधान के मूल तत्व को कायम रखा गया था। उनके साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की गई थी। संविधान बनने के बाद जब संविधान सभा भंग की गई और संविधान सभा की भूमिका संसद को दी गई, तब भी संविधान सभा का अंतिम अधिकार राष्ट्रपति के पास सुरक्षित था। संसद संविधान के संशोधन के लिए अंतिम रूप से अधिकृत नहीं थी, लेकिन हमारे राजनेताओं ने सन 1971 में यह संशोधन करके राष्ट्रपति के निर्णय का अंतिम अधिकार भी छीन लिया।
संविधान बनाते समय संविधान सभा ने कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका की समान और स्वतंत्र भूमिका निर्धारित की थी, लेकिन हमारी विधायिका ने संविधान लागू होने के 1 वर्ष के बाद ही न्यायपालिका के ये स्वतंत्र अधिकार छीन लिए। यहां तक कि हमारी संविधान सभा ने व्यक्ति के मौलिक अधिकारों को संसदीय हस्तक्षेप से मुक्त रखा था, लेकिन हमारी संसद ने बाद में मौलिक अधिकारों में भी बदलाव का अधिकार अपने पास ले लिया। हमारे मूल संविधान में ये तीन ऐसे संशोधन किए गए, जिनके कारण अधिकारों की छीना-झपटी शुरू हुई। न्यायपालिका ने तो 1973 में अपने को संसद से भी ऊपर घोषित कर दिया और उसके कारण न्यायपालिका, विधायिका के बीच अप्रत्यक्ष टकराव शुरू हुआ, जो अभी तक जारी है।
इस तरह हम यह कह सकते हैं कि हमारे मौलिक संविधान की कुछ कमियों को दूर करने के स्थान पर हमारे राजनेताओं ने कुछ बड़ी-बड़ी गलतियां कर दीं जिनके कारण हमारा संविधान तंत्र को निर्देशित करने अथवा नियंत्रित करने में असफल हो गया। संविधान की असफलता का प्रभाव हमारी पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर पड़ा जिसके कारण हमारे अपराधी तत्व उद्दंड होते चले गए। यह उद्दंडता व्यक्तियों के स्वभाव में किसी व्यक्तिगत या सामाजिक बुराई का परिणाम नहीं है बल्कि यह उद्दंडता हमारी संवैधानिक व्यवस्था में आई कुछ बुराइयों का परिणाम है।
इस संबंध में हमें समाधान पर भी विचार करना होगा। कोई नए संविधान का प्रस्ताव वर्तमान समय में संभव नहीं है न ही संविधान में कोई मौलिक संशोधन की बात सोची जा सकती है, लेकिन वर्तमान स्थिति को इसी तरह चलने देना भी उचित नहीं है। इसलिए मेरा इस संबंध में यह सुझाव है कि संविधान संशोधन के अंतिम अधिकार सिर्फ तंत्र के पास न होकर उसमे किसी अन्य ऐसी इकाई का भी योगदान आवश्यक है जो समाज द्वारा सिर्फ इसी कार्य के लिए बनाई जाए। ऐसी इकाई कोई संविधान सभा भी मानी जा सकती है।
जिला सभाओं के अध्यक्षों के समूह को भी माना जा सकता है। राष्ट्रपति को भी यह अंतिम अधिकार दिया जा सकता है अथवा कोई और नया तरीका खोजा जा सकता है जो तंत्र के हस्तक्षेप से मुक्त हो। मैं यह कह सकता हूं कि भारत में लोक की सुरक्षा का दायित्व संविधान का है और संविधान को तंत्र मुक्त होना चाहिए।