रायपुर/यशवंत धोटे/नवप्रदेश। Governor Vs CM : छत्तीसगढ़ में सामाजिक न्याय की लड़ाई सड़क पर है। बरसो से ३२ फीसदी आरक्षण पा रहा आदिवासी समाज अपने आप को ठगा सा महसूस कर रहा है, क्योंकि अनुसूचित जनजाति का आरक्षण ३२ से घटकर 20 फीसदी हो गया है, और 12 फीसदी आरक्षण पा रहे अनुसूचित जाति का आरक्षण १६ फीसदी हो गया। वहीं पिछड़ा वर्ग का १४ फीसदी आरक्षण यथावत है। अनुसूचित जाति के एक संगठन द्वारा राज्य में दिए जा रहे ५८ फीसदी आरक्षण को हाईकोर्ट में २०१३ में चुनौती दी थी। दलील यह थी कि जब सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की सीमा ५० फीसद तय कर दी तो उससे ज्यादा कोई राज्य कैसे दे सकता है।
लगभग ९ साल चली इस अदालती कार्रवाई के फैसले (Governor Vs CM) से छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार के लिए नई मुसीबत पैदा हो गई है। राज्य में ९० में से २९ विधानसभा सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है। उसमें से २७ सीटें अभी कांग्रेस के पास है और दो पर भाजपा के विधायक है। हाईकोर्ट के इस फैसले के बाद आदिवासी विधायकों का सरकार पर भारी दबाव है, यहां तक की सर्व आदिवासी समाज नाम का संगठन सरकार के खिलाफ खड़ा हो गया। इसी दबाव के चलते सरकार ने आनन-फानन में विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर ७६ फीसदी आरक्षण का विधेयक पास कर राज्यपाल को भेजा है। लेकिन राज्यपाल विधेयक पर हस्ताक्षर नहीं कर रही है। इस ७६ फीसदी आरक्षण में ३२ फीसदी अनुसूचित जनजाति, 13 फीसदी अनुसूचित जाति, 27 फीसदी, अन्य पिछड़ा वर्ग और ४ फीसदी ईडब्ल्यूएस के लिए प्रावधान किया है।
गौरतलब है कि राज्यपाल के कहने पर ही सरकार ने विशेष सत्र बुलाकर यह विधेयक पास कराया, लेकिन अब राज्यपाल कह रही है कि मैंने तो अनुसूचित जनजाति के आरक्षण को पूर्ववत बनाए रखने के लिए विशेष सत्र बुलाने कहा था लेकिन सरकार ने पिछड़ा वर्ग का आरक्षण 14 से बढ़ाकर 27 फीसदी कर दिया है, तो इस पर कैसे साइन किया जाए। राज्यपाल की दलील है कि जो कोर्ट ५८ फीसदी नहीं देने का फैसला दे रहा है, वहीं कोर्ट ७६ फीसदी कैसे दे सकता है।
राज्य में अनुसूचित जनजाति और पिछड़ा वर्ग के आरक्षण को लेकर राजभवन और सत्ता प्रतिष्ठान का वॉक युद्ध चरम पर है। पिछले २५ दिनों से राज्यपाल इस विधेयक पर न तो हस्ताक्षर कर रही है और न ही विधेयक लौटा रही है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल रोज ही राजभवन को निशाने पर ले रहे है, बदले में राज्यपाल संवैधानिक मर्यादाओं से परे सरकार को चुनौती दे रही है। विधेयक के साथ कई किंतु- परन्तु जोड़कर सवाल-जवाब किए जा रहे है। कमोवेश ऐसी ही स्थिति पश्चिम बंगाल चुनाव के समय वहां के मुख्यमंत्री और राज्यपाल के बीच थी।
छग में अगले साल चुनाव है और दोनों ही राजनीतिक दलो के लिए आरक्षण एक बड़ा मुद्दा है। मजे की बात ये है कि अनुसूचित जनजाति के आरक्षण के खिलाफ अनुसूचित जाति का जो संगठन कोर्ट में गया और यह फैसला आया उसके बाद सरकार ने उसके कर्ताधर्ता केपी खांडे को कैबिनेट का दर्जा दे दिया, ठीक उसी तरह सरकार बनने के बाद भी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने पिछड़ा वर्ग के लिए 14 से बढ़ाकर 27 फीसदी आरक्षण की घोषणा की। और इस घोषणा के खिलाफ कुणाल शुक्ला नामक समाजसेवी हाईकोर्ट पहुंच गए और हाईकोर्ट ने उस पर तत्काल स्टे भी दे दिया। अर्थात ओबीसी को २७ फीसदी आरक्षण नहीं मिला। इस मामले में भी वहीं हुआ, सरकार ने कुणाल शुक्ला को कबीर पीठ का अध्यक्ष बना दिया।
सामाजिक न्याय और छत्तीसगढ़ (Governor Vs CM) की संस्कृति और लोककला के संवाहक के रुप में काम कर रहे मुख्यमंत्री भूपेश बघेल छत्तीसगढ़ के लोगों को यह समझाने में कामयाब होते दिख रहे है कि सामाजिक न्याय के प्रति वे कटिबद्ध है। राज्यपाल द्वारा विधेयक पर हस्ताक्षर नहीं करने के विरोध में प्रदेश कांग्रेस कमेटी द्वारा आगामी 3 जनवरी २०२३ को राजधानी में भव्य रैली का आयोजन है जो प्रथम दृष्टि राजभवन और पाश्र्व में भाजपा के खिलाफ ही होगी। कांग्रेस का आरोप है कि भाजपा के इशारे पर राज्यपाल हस्ताक्षर नहीं कर रही है और भाजपा के डॉ. रमनसिंह का कहना है कि विधेयक के बाद मांगे गए सवालों के जवाब की समीक्षा होनी चाहिए। दरअसल आरक्षण के इस मुद्दे में बांकी मुद्दे गौण होते जा रहे है।