नीरज मनजीत। Gogra-Hotspring Localities : भारत और चीन पूर्वी लद्दाख के गोगरा-हॉटस्प्रिंग इलाके से अपनी अपनी सेनाएं पीछे हटाने के लिए राज़ी हो गए हैं। इस इलाके में दोनों तरफ़ की फ़ौजों ने जो भी अस्थायी निर्माण किया है, उसे 12 सितंबर तक तोड़ दिया जाएगा और वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर तीन साल पहले की यथास्थिति बहाल कर दी जाएगी। इस बात का जायज़ा लेने के लिए थल सेनाध्यक्ष मनोज पांडे ने स्वयं 10 सितंबर को गोगरा-हॉटस्प्रिंग का दौरा किया। तकनीकी तौर पर इसकी सहमति जुलाई में दोनों तरफ़ के सैन्य अधिकारियों की 16 वीं बैठक में ही बन गई थी। यह बैठक 17 जुलाई को सैन्य क्षेत्र चुशुल-मोल्दा में हुई थी। पिछले दो ढाई साल से 15 वार्ताओं के बावजूद एलएसी पर एक ख़तरनाक गतिरोध बना हुआ था और दोनों तरफ़ की सेना काफी नज़दीक एक-दूसरे के सामने खड़ी थीं।
दरअसल पूर्वी लद्दाख में भारत और चीन की सरहद (Gogra-Hotspring Localities) पर कोई बाड़ या कोई विभाजन रेखा नहीं बनाई गई है। यहाँ दोनों तरफ़ की सेना एक निश्चित दूरी बनाकर तैनात रहती है। बीच की ज़मीन पर किसी का भी कब्ज़ा नहीं है और इसे ‘नो मैन्स लैंड’ कहा जाता है। दो साल पहले चीनी सेना ने यथास्थिति का उल्लंघन किया था और ‘नो मैन्स लैंड’ पर अपने कुछ सैनिकों को भेजकर दो-एक अस्थायी निर्माण कर लिए थे। यह देखकर भारतीय सेना ने भी ‘नो मैन्स लैंड’ की कुछ जगह पर कब्ज़ा कर लिया और दोनों ओर की फ़ौजें बिल्कुल आमने-सामने आ खड़ी हुईं थी। एलएसी पर इस अभूतपूर्व तनाव के बीच गलवान घाटी में हिंसक झड़प भी हुई और हमारे 20 जवान शहीद हुए।
चीन को भी भारी नुक़सान उठाना पड़ा और उसके 40 से ज़्यादा फौजी मारे गए। तनाव कम करने के लिए पिछले दो सालों से सैन्य अधिकारियों की बैठकों के साथ-साथ कूटनीतिक प्रयास भी किए जा रहे थे, पर चीन के अडिय़ल रवैये की वजह से नतीजा सिफर ही रहा। अब अकस्मात ही चीन के रवैये में बदलाव कैसे आया? सच कहा जाए तो चीन का इस तरह यू टर्न लेना उसकी सैन्य कूटनीति से मेल नहीं खाता। फिर चीन ने अपने क़दम वापस क्यों खींचे, इसके पीछे दो प्रमुख कारण हैं। पहला कारण यह है कि इस हफ़्ते 15-16 सितंबर को उज्बेकिस्तान के समरकंद शहर में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक होने वाली है।
एससीओ का गठन 2001 में चीन, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, रूस, तजाकिस्तान और उज्बेकिस्तान ने मिलकर किया था। इसका मुख्यालय बीजिग में है। 2016 में भारत और पाकिस्तान को भी औपचारिक रूप से इसमें शामिल कर लिया गया। एससीओ का मुख्य उद्देश्य यूरेशिया क्षेत्र में शांति, सुरक्षा और स्थिरता लाना है। इसी के साथ आपसी कारोबार, सांस्कृतिक संबंधों और पर्यटन को बढ़ावा देना भी इसके बड़े उद्देश्यों में शामिल है। 2023 में भारत एससीओ का अध्यक्ष होगा और बैठक की मेजबानी भी भारत को सौंपी गई है। साथ ही वाराणसी को 2022-23 के लिए एससीओ की पहली ‘सांस्कृतिक और पर्यटन राजधानी’ के रूप में चुना गया है। पिछले साल की बैठक में तय कर लिया गया था कि मेजबानी करनेवाले देश के किसी एक शहर को उस वर्ष के लिए सांस्कृतिक-पर्यटन राजधानी बनाया जाएगा। यह एससीओ में भारत के बढ़ते महत्व का परिचायक है।
इस बैठक में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और प्रधानमंत्री मोदी के बीच मुलाकात हो सकती है। इस बात के मद्देनजऱ चीनी प्रतिनिधिमंडल कभी नहीं चाहेगा कि यह मुलाकात तनाव या कटुता के माहौल में हो और उस पर सीमा के तनाव की छाया नजऱ आए। साथ ही सीमा पर चीनी सेना की दादागिरी एससीओ के घोषित उद्देश्यों की विपरीत जाती दिखाई देती है। गोगरा-हॉटस्प्रिंग से चीनी सेनाओं की वापसी की यह एक बड़ी वजह है। वैसे शी जिनपिंग की दबी-छिपी चाहत है कि शंघाई सहयोग संगठन को अमेरिका के सामने चीनी प्रभाव वाले ‘एशियाई नाटो की छाया’ के रूप में खड़ा किया जाए। इसके अलावा जिनपिंग वैश्विक समुदाय को दिखाना चाहते हैं कि तमाम दिक़्क़तों के बावजूद भारत और चीन एक मंच पर खड़े हैं तथा उनके बीच अच्छे सांस्कृतिक और कारोबारी रिश्ते क़ायम हैं।
अमेरिकी स्पीकर नैंसी पेलोसी की ताइवान यात्रा के बाद वैश्विक बिरादरी में चीन की अच्छी-खासी किरकिरी हुई है। पेलोसी की यात्रा रोकने के लिए चीन ने पूरा दम लगाकर अमेरिका और ताइवान पर दबाव बनाने की कोशिश की थी। पर अमेरिका और ताइवान ने उसकी कोई परवाह नहीं की। इससे चिढ़कर चीन ने सैन्य अभ्यास के बहाने ताइवान को घेरकर उसे डराने की कोशिश की। किंतु यहाँ भी अमेरिका और ताइवान के संयुक्त दबाव के आगे चीन की बेबसी ही दिखी। यह चीन के पीछे हटने की दूसरी वजह है।
ज़ाहिर है कि चीन ने आर्मी के जरिए दबाव (Gogra-Hotspring Localities) बनाने और डराने वाला पैंतरा फि़लहाल तो बदल लिया है। एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि अगले महीने बीजिंग में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का 20 वाँ महासम्मेलन होने वाला है। तकऱीबन तय माना जा रहा है कि शी जिनपिंग को लगातार तीसरी बार राष्ट्रपति चुन लिया जाएगा। अत: जिनपिंग कतई नहीं चाहेंगे कि इन दो महीनों में वे किसी अनपेक्षित विवाद में उलझ जाएँ।