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प्रसंगवश- गोधन न्याय योजना : ये गंभीरता ‘उनकी’ तरह दिखावा नहीं

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चंद्रशेखर धोटे

बचपन की यादें आज फिर ताजा हो गईं। हमनें गाय का वो निबंध तो जरूर पढ़ा होगा, जिसमें गाय के जीवित रहने के साथ ही उसके मरने के बाद की भी उपयोगिता का बखान होता रहा है। छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल  के विजन के अनुरूप  2 रुपए किलो की दर से गोबर खरीदी की ‘गोधन न्याय योजना’ की लॉन्चिंग के साथ ही वह निबंध आज फिर और प्रासंगिक हो गया। अब जीतेजी गाय का महत्व और बढ़ गया। गोबर अब केवल घर की लीपाई-छपाई व यज्ञ-हवन में इस्तेमाल की वस्तु ही नहीं अपितु किसानों-पशुपालकों की आय बढ़ाने का उम्दा जरिया बन गया। योजना का महत्व केवल यहीं तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उन पशुओं को भी उचित सम्मान दिलाएगी, जिनसे आजकल आधुनिकता व कुछ अन्य कारणों से किसानों का मोह भंग होने लग गया है। खासकर सफेद जानवरों के प्रति। अब सफेद जानवर मसलन गाय-बैल का पालन किसानों ने काफी हद तक कम कर दिया है। जो पाल रहे हैं वो शौकिया तौर पर पाल रहे हैं, व्यावसायिक दृष्टि से अब इन जानवरों को पहले की तरह नहीं पाला जा रहा। इसलिए ये ही सड़कों पर ज्यादा आवारा घूमते नजर आते हैं। बैलों की जगह ट्रैक्टरों ने ले ली है। इसके पीछे का एक कारण यह भी है कि सफेद जानवर पालने वाले किसान को जरूरत पडऩे पर इसके खरीदार नहीं मिल पाते। विभिन्न राज्यों में गोवंश हत्या विरोधी कानून का भी कड़ाई से पालन हो रहा है। होना भी चाहिए। गाय व गोवंश हमारी संस्कृति में हमेशा पूजनीय रहे हैं। बापू का अहिंसा का नारा भी किसी जीव की हत्या की खिलाफत करता है। लेकिन हम यह भी नहीं भूल सकते कि गोकशी के शक में कई लोगों की जान जा चुकी है। यह कानून बनाने वाले उस तथ्य को भूल गए थे कि आज गांवों में वैसे भी मजदूर नहीं मिलते (कोरोना काल को छोड़कर)। यदि किसी किसान के घर का जानवर मर जाए और उसके घर गड्ढा खोदने के लिए कोई न हो तो उसे मजदूर ढूंढने में ही काफी मशक्कत करनी पड़ती है। यदि कोई मिल भी गया तो उसके द्वारा मांगी जाने वाली मजदूरी देना उस किसान के लिए चुनौती बन जाता है। कानून बनाते वक्त हर गांव मेंं कोटवार की तरह एक जानवर गढ़ाने वाला व्यक्ति या ऐसे लोगों की टीम नियुक्त कर दी जाती तो तस्वीर अलग होती। पर हाल पुराना ही है, इसलिए किसानों ने सफेद जानवरों की परवाह करनी काफी हद तक कम कर दी। जबकि काले जानवरों के साथ ऐसा नहीं है। भैंस दूध भी अच्छा देती है और भैंस तथा भैंसों की कटाई पर रोक भी नहीं है। काले है जो बेचारे… ‘पाप’ किया होगा…। हालांकि सच्चाई यही है कि किसान, पशुपालक इन्हें अच्छे से पाल रहे हैं। लेकिन अब छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की पहल से यह तस्वीर बदलने के पूरे आसार हैं क्योंकि काला जानवर भले व्यावसायिक दृष्टि से कितना भी फायदेमंद क्यों न हो पर अमूमन वे अर्धठोस प्रकृति का गोबर कम ही देते हैं। जबकि सफेद जानवर अधिकतर अर्धठोस प्रकृति का ही गोबर देते हैं। जब सफेद जानवर द्वारा मरते दम तक किसान को आमदनी दिलाने वाला गोबर दिया जाएगा तो किसान निश्चित तौर पर उसका सम्मान करेगा। और जब वह मर भी गया तो उसे गढ़ाने के लिए पैसा खर्च करने में भी आगे-पीछे नहीं देखेगा। यही सच्ची गौसेवा होगी, जिसका श्रेय सिर्फ और सिर्फ दूरदृष्टा मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को जाता है। जिन्होंने कभी गोवंश कल्याण को लेकर अपने विरोधी दल के ‘गेरुआधारी’ नेताओं की तरह दंभ नहीं भरा। लेकिन नरवा, गरुवा, घुरवा, बाड़ी के प्रति अपने चेहरे की गंभीरता को गोधन न्याय योजना के रूप में मूर्त रूप दे दिया। 

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