राजीव खंडेलवाल। Electronic Media : 24 फरवरी को रूस व यूक्रेन के बीच प्रारंभ हुए युद्ध को 1 वर्ष पूर्ण हो गया है। यद्यपि विश्व में इससे भी अधिक लम्बे समय तक युद्ध चले हैं। उदाहरणार्थ ईरान-इराक का 8 साल चला युद्ध, इजराइल-फिलिस्तीन के बीच का युद्ध। लेकिन यह युद्ध उन युद्धों से थोड़ा अलग हटकर है। प्रथम दिन जब रूस ने यूक्रेन पर हमला किया, तब लगभग समस्त मीडिया का यही आकलन था कि रूस दो तीन दिनों में यूक्रेन पर फतह पा लेगा और यूक्रेन रशिया का एक भाग हो जायेगा। लेकिन ऐसा हो न सका।
यूक्रेन के कुछ भागों, प्रदेशों में कब्जा करने के बावजूद रूस को कई जगह वापिस पीछे हटना पडा। आज 1 साल बीत जाने के बावजूद भी यूक्रेन पूरी ताकत से सहयोगी देशों खासकर नाटो देशों की सहायता से रूस से तगड़ा मुकाबला कर रहा है। जंग किसी नतीजे पर नहीं पहुंची है। न कोई अंतिम रूप से जीता है और न कोई अंतिम रूप से हारा है। युद्ध में यूक्रेन की तुलनात्मक सैन्य शक्ति कम होने के बावजूद रूस को सैनिक व सैन्य सामग्री सामान की ज्यादा हानि पहुंची है। साढ़े सात लाख करोड़ रूपये का नुकसान। आधे से ज्यादा टैंक नष्ट। लगभग 1,40,000 से अधिक रूसी सैनिकों की मृत्यु। हालांकि रूस की न्यूज वेबसाइट मॉस्को टाइम्स ने मात्र 14,709 सैनिकों के मारे जाने की पुष्टि की है। तथापि विपरीत इसके यूक्रेन का हर शहर का समस्त तंत्र ही तबाह हो गया है। वैसे वैश्विक अर्थव्यवस्था भी बुरी तरह से प्रभावित हुई है।
देश का प्राय: इलेक्ट्रानिक मीडिया एनडीटीवी व एक आध को छोड़कर रूस-यूक्रेन युद्ध की ब्रेकिंग न्यूज बनाकर लगभग लगातार दिखाते रहे हैं। यह क्रम कम से कम 200 दिनों से भी ज्यादा दिनों तक चलता रहा। इन अवधि में मीडिया लगभग दिन-प्रतिदिन हर एक दो दिन की आड़ में विश्व युद्ध की शंख घोष करता रहा जैसे कि उसका बटन उनके हाथ में ही हो, जिसको दबाकर वे विश्व युद्ध करा देगें। परन्तु उनका आकलन का यह चलता क्रम सिर्फ टीआरपी बढ़ाने के लिए था, वस्तुस्थिति से दूर था। आज तक विश्व युद्ध की बटन दबाने की क्षमता मीडिया के पास नहीं आयी। ऐसा नहीं है कि इस पूरे युद्ध काल के दौरान विश्व युद्ध की आशंका के बादल मंडराये ही नहीं। लेकिन उसे निरंतर लगातार विश्व युद्ध का संकट देकर दिन-प्रतिदिन युद्ध को विश्व युद्ध में बदलने की रिपोर्टिंग कहीं न कहीं न केवल घातक थी, बल्कि देश हित में भी नहीं थी।
मीडिया को देश हित से क्या लेना देना? मीडिया को तो प्रत्येक घटनाक्रम टीआरपी बढ़ाने का अवसर प्रदान करती है और मीडिया उसे इसी रूप में लेता है। शासन की नीतियों को अधिक बड़े वर्ग तक पहुँचाया जाये, यही तो देशहित हैै। इसके लिए ही तो टीआरपी बढ़ाई जाने का प्रयास किया जाता रहा है, ताकि अधिकतर लोगो तक चैनल की पहुंच हो सके। अत: इस ‘देश हित’ पर उंगली क्यों?
जब हम किसी व्यक्ति या संस्था या घटना का वर्षगांठ बनाते है, तो यह वही अवसर होता है जब व्यक्ति के व्यक्ति व संस्था की कार्यप्रणाली और घटना के तथ्यों का सिंहस्थ पुनरावलोकन करके उसको इतिहास में सही जगह देने का प्रयास करते है। क्या आज के प्रथम वर्षगांठ के अवसर पर मीडिया स्वयं के गिरेबान में अंदरखाने में झांकने का आत्मावलोकन करने प्रयास करेगा? इस बात का एहसास करेगा युद्ध के संबंधित रिपोर्टिंग की कहीं न कहीं तथ्यों के परे जाकर एक्सेस है। क्योंकि मीडिया को विश्वसनीयता लम्बे समय तक बनाने के लिए करना ही पड़ेगा। अन्यथा मीडिया ऐसा नहीं करेगा तो वह अपनी विश्वसनीयता खोते जायेगा, तब उसकी टीआरपी भी कम होते जायेगी।