गिरीश पंकज। Dushyant Kumar Memorial Museum : एक बड़ी मनहूस खबर मिली 15 फरवरी को, और आँखें बरबस ही झलक उठीं. न जाने कितने चेहरे गमगीन हो गए। हम सबके चहेते आकाशवाणी भोपाल के पूर्व एनाउंसर और दुष्यंत कुमार स्मृति संग्रहालय के संचालक राजुरकर राज नहीं रहे. वे पिछले कुछ अरसे से अस्वस्थ चल रहे थे। इसके बावजूद वह संग्रहालय का काम देख रहे थे. एक अद्भुत संग्रहालय उन्होंने विकसित किया था, जहां अनेक साहित्यकारों की दुर्लभ सामग्री देखने को मिलती है. उनके परिसर में बड़े-बड़े आयोजन भी होते रहे. मेरा सौभाग्य रहा कि 2018 को उन्होंने मुझे भोपाल बुलाकर का आजीवन साधना सम्मान प्रदान किया था. पहले भी अनेक अवसर आते रहे, तब भी मुझे याद करते थे.जब जब मैं भोपाल गया, राजुरकर भाई से अनिवार्य रूप से मिलना होता रहा। पिछले महीने भी भोपाल जाना हुआ तब भी उनसे भेंट हुई थी.
स्वास्थ्य की दृष्टि से भले कमजोर हो गए थे लेकिन उनके मन में संग्रहालय के लिए काम करने का जबरदस्त जज्बा था। कई बार वे छेनी हथौड़ी लेकर खुद संग्रहालय के किसी काम में भिड़ जाया करते थे हम सब का दुर्भाग्य है कि ऐसा व्यक्ति अब हमारे बीच नहीं है. पता नहीं अब संग्रहालय का क्या होगा . बहरहाल, राजुरकर राज ने जो ऐतिहासिक कार्य किया उसके लिए वे हमेशा याद किए जाएंगे . वे बैतूल के पास के गांव गोधनी में जन्मे थे. गाँव वाले समझ गए थे कि यह बालक बड़ा हो कर ‘Óशब्द साधकÓÓ बनेगा. और साधको का ‘ÓआकलनÓÓ भी करेगा. और वही हुआ, राजुरकर का पूरा जीवन ‘Óशब्दशिल्पियों के आसपासÓÓ ही मंडराता रहा. ध्वनि तरंगों की दुनिया में विचरने के बाद जो थोड़ा-बहुत समय बचता, ये महानुभाव शब्दशिल्पियों को ही समर्पित कर देते. आकाशवाणी में भी इन्होने अनेक कमाल दिखाए. अपनी अनोखी प्रस्तुतियों के कारण श्रोताओं का एक ऐसा वर्ग भी था, जो भोपाल आता, तो वह कोशिश करता कि राजुरकर राज से भी मिल ज़रूर मिल लिया जाए.
जो काम बड़ी-बड़ी सरकारें नहीं कर पाती, राजुरकर राज अकेले कर दिखाया.भोपाल में इनसे अनेक आत्माएं आतंकित रहती थीं, कि आखिर ये बन्दा चाहता क्या है? इसका हिडन एजेंडा क्या है? जलने की आदत के शिकार कुछ लोग आपस में चर्चा करते कि ‘पार्टनर, इसकी पालिटिक्स क्या है?Óलेकिन सच तो यह है, कि ‘राजÓ का कोई ‘राजÓ नहीं हिडन एजेडा नहीं था, .जो कुछ , वह विशुद्ध रूप से लोक मंगल ही था. ये महानुभाव चाहते थे, कि जितने भी महान किस्म के साहित्यकार हुए हैं, उनकी हस्तलिखित पांडुलिपियाँ इनके दुष्यंत स्मृति संग्रहालय में संजो कर रखी जाये. इनके संग्रहालय में अब अनेक दुर्लभ समंग्री संचित हो चुकी है. जिन्हें देखने बड़े-बड़े नामवर लोग पधार चुके है और सबने जी भर कर शुभकामनाएँ भी दी. भोपाल में अनेक दर्शनीय स्थल हैं, मगर जो लोग साहित्य में रुचि रखते हैं, उनके लिये अब दुष्यंत स्मृति संग्रहालय भी दर्शनीय हो चुका है. ये राजुरकर का प्रयास ही था कि भोपाल की दो सडकों का नाम लेखकों के नाम हो चुका है. ‘Óशरदजोशी मार्गÓÓ और ‘Óदुष्यंतकुमार मार्गÓÓ.
मैं उन सौभाग्यशाली लोगों में हूँ, जो गर्व से कह सकता है,कि राजुरकर मेरा मित्र था. वैसे भी राज को यारों का यार कहा जा सकता था. दुश्मनों का दुश्मन नहीं, क्यों कि कोई दुश्मन भी तो हो. दिल ऐसा मिला है कि भोपाल और रायपुर की दूरी पल भर में ख़त्म हो जाती थी. मैं इनके अनेक कार्यक्रमों में शामिल हो चुका हूँ. पिछले दिनों जब राजुरकर को मैंने बताया कि अभी मैंने अपना व्यंग्य उपन्यास पूर्ण किया है तो उन्होंने तपाक से कहा, ‘Óआप भोपाल आइये, ‘Óपूर्वपाठÓÓ कार्यक्रम के तहत हमलोग उपन्यास के कुछ अंश को सुनना चाहेंगेÓÓ. मगर मैं ही समय नहीं निकाल सका, वर्ना अपने उपन्यास कां अंश भोपाल के अपने मित्रों को ज़रूर सुनाता. इतनी उदारता के साथ किसी को कौन बुलाता है आज के ज़माने में? यह बात मैंने इसलिये बताई कि लोग राजुरकर राज को ठीक से समझ सके. ‘हलकटÓ लोग साधन संपन्न होने के बावजूद ऐसी उदारता नहीं दिखा सकते.
राजुरकर में आत्मीयता कूट-कूट कर भरी हुई थी. सबके लिये.क्या छोटा, क्या बड़ा. सबको स्नेह. सड़क से उठ कर जो शख्स शिखर की ओर बढ़ाता है, वह बिल्कुल राजुरकर राज जैसा ही होता है. पिछले दो दशकों में हम अनेक बार मिले. कभी रायपुर में, कभी भोपाल, में कभी पचमढ़ी में, कभी दिल्ली में. भारत ही नहीं, विदेश में भी साथ-साथ घूमे-फिरे. हर जगह मैंने राज में गहरी यारी की भावना देखी. भोपाल के मित्रों के साथ-साथ शहर के बाहर के मित्रों से भी उनका वही प्रेम-भाव. कई बार सोचता हूँ कि इस आदमी की किसी कमी को पकडूं, मगर ससुरी हाथ ही नहीं आती. होगी तो ज़रूर, क्योंकि आदमी है, तो कुछ न कुछ बुराई भी ज़रूर होगी, पर मुझे तो दिखाई पड़े. हमेशा अच्छी ही अच्छाई नजऱ आती.
जब भी भोपाल में राज के घर जाना हुआ, मजाल है कि खाली पेट लौटना हुआ हो. घर नहीं जा सके तो होटल में ले जा कर खिलाया. अपने मित्रों की सेवा के लिये अपनी कार का भरपूर दोहन किया राज ने. एक बार हम लोग पचमढ़ी से भोपाल राज की कार से ही लौटे थे. ये महानुभाव अपनी कार ले कर पहुँच गए थे ‘एनबीटीÓ की एक कार्यशाला में. एक नहीं ऐसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं,जब राज ने अपनी मनुष्यता का परिचय दिया . और सबसे बड़ी बात तो यही है कि वे ‘Óशब्दशिल्पियों के आसपासÓÓ के माध्यम से पूरी साहित्यिक बिरादरी के सुख-दु:ख का लेखाजोखा पेश करते रहते थे. निश्छल भाव से. कोई स्वार्थ नहीं. परमार्थ की भावना से ही यह काम किया जा रहा है. यही कारण है कि ‘Óशब्दशिल्पियों के आसपासÓÓ साहित्यकारों की एक आदत -सी बन गई थी, इंतज़ार रहता था कि नया अंक आये तो पता चले कि कहाँ क्या घटित हो रहा है, इसके दुबारा प्रकाशन की वे तैयारी कर रहे थे. ‘Óशब्द साधकÓÓ तो कमाल का काम था, जिसमे देश भर के पंद्रह हजार से ज्यादा साहित्यकारों के बारें में जानकारी संगृहीत थी.
राजुरकर राज की अनेक उपलब्धियां रहीं. इनको मै दुहराना नहीं चाहता. घर-परिवार की चिंता के साथ-साथ समाज के लेखको और सामान्य लोगों के बारे में भीयह शख्स सोचता रहा. कि राजुरकर राज एक व्यक्ति नहीं संस्था थे. वे अन्तिमसांस तक शब्दशिल्पियों की सेवा में ही रत रहे. उनको शत शत नमन!