Dreams and markets of the great Indian middle class : महान भारतीय मध्यवर्ग के सपनों को पँख मिले दो दशकों से ज़्यादा हो चुके हैं। इस तबके के सामने निस्सीम खुला आकाश है, जिसमें वे ऊँची उड़ान भर रहे हैं। दिल में ज़्यादा से ज़्यादा ऊँचे उडऩे की ख़्वाहिशें पल रही हैं। तकऱीबन 60 करोड़ लोगों का एक विशाल उपभोक्ता समाज आकार ले चुका है। यह तादाद यूरोप की कुल 74 करोड़ की आबादी का 80 फ़ीसदी है और अमेरिका तथा रूस की सम्मिलित आबादी 50 करोड़ से 20 फ़ीसदी ज़्यादा है।
इस महाकाय उपभोक्ता समाज को लुभाने के लिए दुनियाभर के बाज़ार रोज नयी रणनीति के साथ हर तरह के माध्यमों में उतर रहे हैं।
यह समाज कैसा है? इसके नैतिक मूल्य क्या हैं? यह समाज इस महादेश को किस दिशा में ले जा रहा है? इन सवालों के मुक़म्मल जवाब अभी नहीं मिले हैं। सच कहा जाए तो यह एक बड़ा विषय है, जिस पर गहराई से अध्ययन कर काफी कुछ लिखा जा सकता है। सपने बड़े होते जा रहे हैं और उसी के हिसाब से बाज़ार भी बड़ा होता जा रहा है। बड़े-छोटे बाज़ार उपभोक्ता वस्तुओं से भरे पड़े हैं।
हमारा समाज बिना पीछे-आजू-बाजू देखे बाज़ार के साथ आगे की तरफ दौड़ रहा है। बाज़ार हमें चला रहा है या हम बाज़ार को चला रहे हैं, अथवा दोनों एक-दूसरे को चला रहे हैं ? इस प्रश्न का उत्तर हर तबका अपनी सोच के हिसाब से दे रहा है।
1975 के आसपास कुछ ही वस्तुएँ स्टेटस सिंबल थीं। स्कूटर, फ्रिज, रेडियो, रेकॉर्ड प्लेयर, बड़े स्पूल का टेप रिकॉर्डर, किताबें-पत्रिकाएँ, काले चोंगे और क्रैडल वाला टेलीफोन, जो अक्सर खऱाब रहता था, वगैरह। बड़ी हैसियत वालों यानी डॉक्टरों, बड़े कारोबारियों के पास फि़एट या एम्बेसेडर कार होती थी।
कारों में एसी नहीं थे, इसलिए गर्मियों में ऊपर खस की चटाई बांधकर हर एक घंटे पानी से तर करना पड़ता था। चूँकि मध्यवर्ग भी रेस में था, इसलिए सबसे पहले एक वेस्पा स्कूटर खऱीदने का सपना हर किसी की जेब में रहता था। उस वक़्त नये वेस्पा के लिए दो-तीन हज़ार रुपये ऑन के देने पड़ते अथवा नंबर लगाकर दो तीन साल इंतज़ार करना पड़ता था। फिर केल्विनेटर का फ्रिज आया। मर्फी और फिलिप्स के रेडियो पहले से ही थे। म्यूजिक के शौकीन लोगों के लिए एचएमवी के दो रेकॉर्ड प्लेयर उपलब्ध थे — कैलिप्सो और फिएस्टा।
ये दोनों मॉडल काफी किफ़ायती और उम्दा थे। कैलिप्सो को रेडियो से जोडऩा पड़ता था, जबकि फिएस्टा में बिल्ट-इन स्पीकर था। इन पर एलपी, ईपी, एसपी रेकॉर्ड चलाए जा सकते थे। आश्चर्य की कोई बात नहीं कि उस वक़्त छोटे नगर में कोई बिरला शख़्स ही होता था, जिसके पास रेकॉर्ड प्लेयर और लॉन्ग प्लेइंग रेकॉड्र्स होते। लोग बड़ी उत्सुकता और कौतूहल से लांग प्लेइंग रेकॉर्ड को देखते थे, जिसमें पूरे 12 गाने होते।
विदेश-यात्राएँ एक बड़ा स्वप्न हुआ करती थीं। हमारे नगर से कोई विदेश जाता तो कई दिनों तक उनकी चर्चा होती। हवाई जहाज में बैठना बड़ी बात थी। 1986 के आसपास रायपुर से दो उड़ानें थीं।
एक दिल्ली जाती थी। दूसरी भोपाल के लिए वाया जबलपुर। पहली बार हवाई सफऱ किया एक दोस्त के साथ। स्टेट ट्रांसपोर्ट की लाल बस में बैठकर रायपुर गए। वहाँ पुराने काफ़ी हाउस के सामने से टैक्सी पकड़कर माना एअरपोर्ट और जबलपुर तक हवाई जहाज में। वहाँ से धक्के खाते लाल बस में कवर्धा वापस आए और कई दिनों तक दोस्तों के सामने इतराते रहे।
आज हवाई यात्राएँ मध्यवर्ग के हर आय-स्तर के लोगों की पँहुच के अंदर हैं।
हमारी कॉलोनी का हर दूसरा आदमी फ्लाइट पकडऩे दौड़ रहा है। विदेश यात्राएँ कोई बड़ी बात नहीं रह गई हैं। किफायती टूर पैकेजों ने इन यात्राओं को आसान बना दिया है और टूर कंपनियां एक बड़ा और फलता फूलता कारोबार बन गई हैं।
उस वक़्त मँझोले तबके के दो-तीन स्तर ही नजऱ आते थे। आज हमारे कई कई स्तर हैं। परोक्ष तौर पर कार, टीवी और एंड्रॉयड फोन के जरिए हमारी हैसियत तय होती है और हर स्तर के लोगों के लिए, हर कीमत की ये सारी चीजें बाजार में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं।
सारे बैंक, सारी फाइनेंस कंपनियां हमारी एक कॉल पर बाजार को हमारी दहलीज़ पर ला खड़ा करती हैं। दिक्कत यह है कि जैसे ही हम कोई कार, कोई टीवी अथवा कोई एंड्रॉयड स्मार्टफोन खरीदते हैं, कोई नया और महँगा मॉडल बाजार में लांच कर दिया जाता है और हम फिर से एक नई दौड़ में फँस जाते हैं। बाज़ार हमें रुकने नहीं देता।
वह हर बार हमारे सामने एक नई चुनौती पेश कर देता है।
वैसे बड़ी ही आसानी से बाजार को कोसा जा सकता है, लेकिन बाजार हर कालखंड में हमारे साथ चलता रहा है। बाज़ार के लिए हम ग्रेट हैं, दोस्त हैं, उसके आराध्य हैं, बशर्ते हमारी जेबें पैसों से भरी हों। मुफ़लिस लोगों के लिए बाज़ार बेहद निर्मम है और इनके लिए बाज़ार में कोई जगह नहीं है। सच कहा जाए तो हम एक साथ अमीरी और गऱीबी के संग चल रहे हैं। अमीर होने की कोई सीमा नहीं है और हम खाते पीते लोग भी अमीरी की नजऱ में अच्छे खासे गरीब हैं।
हर साल 400 करोड़ रुपये कमाने वाला हमारा सुपर क्रिकेटर या सुपरस्टार भी कह सकता है कि वो गऱीब है, क्योंकि उसके पास अपना बड़ा जेट प्लेन, याट और कोठी नहीं है, क्योंकि उसके समकक्ष का टेनिस स्टार या हॉलीवुड एक्टर हर साल 3000 करोड़ कमा रहा है।