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Democracy : लोकतंत्र में न्याय, अधिकार और विश्वसनीयता पर सवाल

Democracy: Questions on justice, rights and credibility in a democracy

Democracy

आलोक मेहता। Democracy : दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाने वाले भारत में इस समय सचमुच विभिन्न दिशाओं से सम्पूर्ण व्यवस्था पर तीर और बम बरसाए जा रहे हैं। जो एक दिन न्याय व्यवस्था पर भरोसा जताता है , अगले दिन कोई निर्णय अनुकूल न होने पर उसके ही विरुद्ध आरोप लगा देता है। अदालत और सर्वोच्च न्यायाधीश कभी स्वयं सुधार की दुहाई देते हैं और कभी अति सक्रियता से कार्यपालिका के निर्णयों को उलट रहे हैं। संघीय ढांचे में अधिकारों की आवाज उठाने वाली राज्य सरकारें केंद्र सरकार से ही नहीं राज्यपालों तक से टकराने लगी हैं।

खुद सी बी आई जैसी एजेंसियों से सहयोग मांगेगी , लेकिन अपने किसी सत्ताधारी पर आंच आने पर उसके प्रवेश पर ही रोक लगा रही हैं। संसद, विधान सभा, न्यायालय में कई गंभीर मुद्दे, प्रकरण वर्षों तक लटके रहते हैं। यह प्रवृत्ति क्या लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी नहीं है। न्याय पालिका के ताजे दो निर्णयों को ही देखिये। राजीव गाँधी हत्या कांड के आरोपी को सर्वोच्च अदालत ने पहले फांसी दी , फिर उसे जीवन पर्यन्त जेल की सजा में बदला और अब राज्यपाल के अधिकार पर ही हथोड़ा चलाकर आरोपी को रिहा कर दिया।

संविधान में राज्यपाल के सरकार की सलाह मानने का प्रावधान है, लेकिन उसके निर्णय पर विचार करने, व्यापक राष्ट्रीय हितों का ध्यान रखने का अधिकार भी हैं। राज्यपालों और राष्ट्रपतियों द्वारा पिछले दशकों में कई सिफारिशों को महीनों वर्षों तक विचाराधीन रखा है। आखिऱकार आरोपी को वर्तमान न्यायाधीशों के पूर्ववर्ती वरिष्ठ जजों ने ही अपराध और कानूनों के आधार पर ही सजा दी थी। तमिलनाडु में इस समय सत्तारूढ़ दी एम् के की सरकार इस आरोपी को अपनी पार्टी का मानती रही । इसलिए उसने माफ़ी की सिफारिश कर दी।

लेकिन केंद्र के जिम्मेदार (Democracy) प्रतिनिधि के नाते देश के सबसे बड़े आतंकी हमले में पूर्व प्रधान मंत्री की हत्या के आरोपी को रिहा करने से समाज में गलत सन्देश जाने का विचार रखकर उसे लंबित रखना उचित ही था। माननीय न्यायालय ने अति सक्रियता दिखाकर आरोपी को रिहा कर दिया। लेकिन पराकाष्ठा देखिये तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और उनके सहयोगी हत्या के आरोपी का ऐसा स्वागत कर रहे हैं , जैसे कोई देशभक्त क्रन्तिकारी समाजसेवी जेल से रिहा हुआ हो। दुनिया के किस लोकतान्त्रिक देश में कोई सरकार हत्या के सजायाफ्ता आरोपी का ऐसा सम्मान करती है।

सबसे दुखद बात यह है कि तमिलनाडु की सरकार के गठबंधन में सोनिया – राहुल गाँधी की कांग्रेस शामिल है। इन्ही सोनिया गाँधी और उनके सहयोगियों ने अपने ही पूर्व प्रधान मंत्री नरसिंह राव पर राजीव हत्या कांड की जाँच और अपराधियों को सजा में देरी पर गहरी नाराजगी व्यक्त की थी, डी एम् के पर भी हत्या कांड में सहयोग के आरोप लगाए थे। यदि इस हत्या कांड के आरोपी को जेल से रिहाई में देरी पर कष्ट है, तो इस फैसले के अगले ही दिन उसी कांग्रेस के शीर्ष नेताओं के सबसे प्रिय साथी नवजोत सिंह सिद्धू को मारपीट से एक सामान्य व्यक्ति की हत्या के आरोप साबित होने पर 32 साल बाद केवल एक साल की जेल होने पर अफ़सोस नहीं होना चाहिए ?

यह सजा तो वर्षों पहले होती तो पंजाब और समाज में कोई अच्छा सन्देश तो जाता। सड़क पर अपने साथियों के साथ मिलकर एक व्यक्ति को मार देना क्या जघन्य अपराध नहीं है। असल में सड़क पर ऐसी घटना या दुर्घटनाओं पर नियम कानून और वकीलों की सहायता से आरोपी पहले ही बहुत कम और देरी से फैसले होते हैं । यदि सिद्धू या लालू यादव जैसे लोग गंभीर प्रामाणिक आरोपों और निचली अदालतों के फैसलों के बाद ऊंची अदालत में मामले लटकाकर वर्षों तक सत्ता का आनंद लेते रहेंगे , तो लोगों को किसी भी अपराध करने में डर नहीं लगेगा।

धन और सत्ता के बल पर कानून का मजाक बनाना भी तो अपराध है । लालू यादव के चारा कांड का भ्ष्र्टाचार हमने 1990 में सबसे पहले उजागर किया। लेकिन वह पंद्रह वर्षों तक राज्य या केंद्र में सत्ता में रहे । कुछ मामलों में अदालत से जेल भी हुई , जमानत पर छूटने के बाद बाहर आकर ऐसा स्वागत जयकार करवाया , जैसे महान कार्यों का पुरस्कार लेकर घर लौटे हैं। यही नहीं कांग्रेस और वह या उनकी पार्टियां एक दूसरे के विरुद्ध कभी लड़ती और कभी गले मिलती रही। बेचारी जनता ही नहीं कार्यकत्र्ता भी इस लुकाछिपी के खेल को बेबस झेल रही है।

दूसरी तरफ हाल ही में राजद्रोह के मामले में सर्वोच्च अदालत ने कड़ा रुख दिखाया और विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा केवल सार्वजनिक टिप्पणी पर अनावश्यक रूप से राजद्रोह के मुकदमे दर्ज करने पर रोक लगा दी । लेकिन अब भी ब्रिटिश राज के ऐसे काले कानूनों को अदालत या सरकार – संसद ने रद्द नहीं किया है। लोकतंत्र में किसी सरकार और पार्टी पर आरोप या आलोचना स्वाभाविक है। हाँ भारत देश के ही विरुद्ध गतिविधि, माओवादी या आतंकवादी कार्य पर राष्ट्रद्रोह के लिए संशोधित कड़े कानून होने जरुरी हैं। इसी तरह आपराधिक मानहानि की क़ानूनी धाराएं बदलने की मांग अदालत और संसद में होती रही है। वर्तमान मोदी सरकार ने सात सौ से अधिक पुराने निरर्थक कानून ख़त्म किए हैं। लेकिन जरुरत इस बात की है कि ब्रिटिश राज के कई कानून संसद और अदालतों द्वारा सर्वानुमति से बदल दिए जाने चाहिए।

इसी तरह संघीय ढांचे के नाम पर राज्य सरकारों, केंद्र, राज्यपाल आदि के बीच निरंतर टकराव का भी बहुत नुकसान जनता को उठाना पड़ रहा है । शिक्षा ,स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं के लिए भी राज्यों द्वारा प्रतिरोध लोकतंत्र की जड़ों पर आघात है । महाराष्ट्र में गंभीर भ्रष्टाचार के आरोपी जेल में रहते हुए मंत्री पड़ पर बैठे रहें , यह कानून का मखौल ही है। भ्रष्टाचार के मामलों में करोड़ों रुपयों और संपत्ति मिलने के बाद भी केंद्रीय जांच एजेंसियों पर राजनीतिक पूर्वाग्रह की बात कहकर आँखों में धूल झोंकी जा रही है।

संविधान (Democracy) निर्माता आज़ादी के आंदोलन से निकले हुए और समाज के प्रति बहुत समर्पित थे। उन्होंने कानून बनाते समय यह कल्पना नहीं की होगी कि पचास सत्तर साल बाद किस तरह के लोग सत्ता या प्रतिपक्ष में होंगे और अर्थ व्यवस्था कितनी बड़ी हो जाएगी। लेकिन वर्तमान व्यवस्था में काबिल लोगों की कमी नहीं हैं। कार्य पालिका और न्याय पालिका संम्पूर्ण समाज के हित में एक समयावधि तय कर नियम कानून बदल सकती हैं।

(लेखक आई टी वी नेटवर्क इण्डिया न्यूज़ और दैनिक आज समाज के संपादकीय निदेशक हैं)

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