अजय कल्याणी। Deaddiction : मानव समाज में नशे की बुरी परंपरा आदिकाल से चली आ रही है। प्राचीन काल में केवल राजघराने के लोग और नगरों के अमीर लोग शौकिया तौर पर अपने आनंद के लिये मधपान आदि का सेवन किया करते थे. इन दिनों नशा सामाजिक समस्या नहीं थी क्योंकि आम जनता नशे से कोसो दूर थी और नशे के बारे में प्राय: यही आम धारणा थी कि यह तो राजघरानो और बड़े लोगों का राजासिक शौक है।
यही वह दौर था जब हमारा देश सोने कि चिडिय़ा कहलाता था। कालांतर में जब अंग्रेजो ने पूरे भारत को गुलाम बना लिया था तो नशे की परंपरा भी शनै शनै उसी तरह विकसित हुई जिस प्रकार अंग्रेज भारतीय जनता को चाय की लत लगा गये। चाय की तरह ही मधपान को भी अंग्रेजो ने आम आदमी तक पहुचाने में किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी।
राष्ट्रपिता मोहनदास करमचंद गाँधी ने दक्षिण अफ्रीका से 1915 में भारत वापसी पर अपने राजनैतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले की सलाह से एक साल लगभग पूरे भारत का भ्रमण किया था। इसी दौरान उन्होंने तत्कालीन भारतीय समाज की स्थिति और विभिन्न समस्याओं को शिद्दत से महसूस किया था। गांधीजी ने भारतीय समाज की बदहाली के विभिन्न कारणों में नशे की लत को भी बड़ी समस्या माना था। इसी कारण उन्होंने सत्य और अहिंसा की विचारधारा का पालन करते हुए अपने सभी आंदोलनों को क्रियान्वित करते समय चलाए गए विभिन्न रचनात्मक कार्यों में नशा मुक्ति को भी प्रमुख स्थान दिया था।
भारत वापसी पर गांधीजी का पहला बड़ा आंदोलन चंपारण सत्याग्रह (1917) था. यह महात्मा गाँधी की दूरदर्शिता ही कही जा सकती है कि गाँधी जी ने चंपारण में उस समय भी कहा था कि शराब “आत्मा” और “शरीर” दोनों का नाश करती हैं। गांधीजी के इस वक्तव्य से यह साबित होता है कि वे नशे की लत को मनुष्य के लिए कितना खतरनाक मानते थे। उस समय की आज के समय में इस समस्या की तुलना करें तो यह समझा जा सकता है कि आज यह समस्या विकराल रूप धारण कर चुकी है।
गाँधी जी की यह प्रबल मान्यता थी कि नशे की हालत में उलझा भारतीय समाज न अंग्रेजी राज से आज़ादी हासिल कर सकता है और न अपना कल्याण कर सकता है। उन्होंने संभवत: भविष्य के नशे के स्वरुप को देखते हुए उस समय पूरी तरह से मधनिषेध की बात की थी। गांधीजी के दौर में संभ्रांत परिवारों में काफ़ी कम लोग नशा करते थे। उन दिनों अक्सर लोग छुपकर नशा करते थे क्योंकि संस्कारित परिवारों में शराब का सेवन बुरा माना जाता था,तब भी गाँधीजी मधनिषेध को लेकर बेहद उद्विग्न थे।
यदि इतिहास में झांका जाए तो 80 के दशक तक शराब के अलावा नशे को लेकर कोई बहुत गंभीर समस्या नहीं थी। यह वह समय था जब बिना नशे के उत्पादों के भी सरकारों के कामकाज ठीक से चलते थे परन्तु वर्तमान समय में बहुत सी सरकारों द्वारा नशे के उत्पादों की खेती की जाती हैं और नशे के विभिन्न उत्पाद अब सरकारों की आय का बड़ा जरिया बन गए हैं। हमारे वर्तमान समाज की आधुनिकता ने पश्चिमी सभ्यता को अपनाते हुए यह मान लिया है कि शराब सेवन लोगो के जीवन का अभिन्न हिस्सा है।
नशे के समर्थन में यह भी कहा जाता है कि भारत में नशावृत्ति कोई नई बात नहीं है, देवताओं के पौराणिक समय और गांधी जी के जमाने में भी लोग शराब पीते थे लेकिन सच्चाई यह है कि समय के साथ नशे की आदतें, व्यवहार और पदार्थ काफ़ी बदल गए हैं और अब वे कहीं अधिक विकृत रुप में हमारे सामने उपस्थित हैं । और सबसे बड़ा अंतर यह भी है कि अब देश के पास कोई गांधी नहीं है, जिसके एक आह्वान पर करोड़ों लोगों के नशे की लत छूट जाय।
गांधीजी के समय नशा (Deaddiction) सिर्फ मद्यपान या तंबाकू सेवन तक सीमित नशे का कारोबार आज अवैध कच्ची दारू और वैध देसी दारू के ठेकों से लेकर फाइव स्टार बार के रूप में पैर पसार चुका है। स्कूल कॉलेज और कॉलोनियों के आसपास भी यह सर्व सुलभ है। पहले यह लत ज्यादातर पुरुषों को थी अब महिलाओं और तरूणों की भी खासी संख्या क्लबों और पब आदि से शराब पीते मिल जाती है। गांधीजी ने आज की विभिन्न मादक दवाओं, मादक पदार्थ और सिंथेटिक नशीली दवाओं के बारे में कल्पना भी नहीं की होगी।
प्रतिस्पर्धा की अंधी दौड़ में एक तरफ अधिकांश माँ-बाप अपने बच्चो को अच्छे संस्कार, सभ्यता व उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिये सभी सुविधा प्रदान करते हैं, ताकि उनका कैरियर बन सके और समाज में वे प्रतिष्ठापूर्ण जीवन जी सके, लेकिन दूसरी तरफ सत्ता के सरंक्षण में पलते विविध नशे के व्यापारी तरूणों को नशे के गर्त में खींचने के विविध जतन करते हैं। जब परिजनों को पता चलता है कि उनके बच्चे नशे की गिरफ्त में है, तो सारा परिवार अवसाद में घिर जाता है, बच्चो के लिए जो सपने उन्होने संजोए थे,अचानक टूट जाते हैं।
माता –पिता को यह पता ही नही चल पाता कि उनसे कहां गलती हुई। यहां तक कि बच्चे भी नही जान पाते कि वे इस दलदल में कैसे और कब फस गये। नशे के कारण संबंधित व्यक्ति और उसके परिवार को शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक, व आर्थिक आघात तो लगता ही है, साथ ही कई मामलों में यह लत सड़क दुर्घटनाओं, मारपीट व आत्महत्याओं की वजह भी बन जाती है। यह हमारे समाज के लिए गंभीर चिंता का विषय है कि नशे से उपजी इन घटनाओ में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। परिजनों के नशेकी लत के कारण घरों के बुजुर्गो और महिलाओं को जान का खतरा भी बना रहता है।
हम सभी जानते हैं कि नशा नाश की जड़ है, इसके बावजूद समाज में यह अपनी जड़ भीतर तक जमाता जा रहा है। देश का भविष्य जिन युवाओं के हाथ में है, वे खुद नशे की जंजीर से बंधकर अपना व देश का भविष्य अंधकारमय करते जा रहे हैं। यदि 80 के दशक के बाद के हालातों पर दृष्टि डालें तो यह तथ्य उभरते हैं कि पाकिस्तान से सटे राज्यों (पंजाब, राजस्थान, गुजरात, कश्मीर) के युवाओं को पाकिस्तान के रास्ते ड्रग माफिया नशे के औजार पहुंचा रहा है।
आधुनिक जीवन में नशा किसी के लिये महंगे होटल में बैठकर मनोरंजन करने का स्टेटस सिम्बल है, तो किसी के लिए तनाव कम करने का जरिया। कोई नशे के गोरखधंधे की काली कमाई में रातोंरात मालामाल होने के लिए लालायित है, तो कोई इसे शारीरिक थकान मिटाने का साधन मानता है। खुशी का अवसर हो या गम का, नशे का सेवन जरूरी रिवाज की तरह हो गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार नशे की लत एक मानसिक बीमारी है और इसका इलाज संभव है।
जब कोई व्यक्ति नशे से पीडि़त होता है तो हम उसे असामाजिक, चरित्रहीन, अपराधी, गैरजिम्मेदार, अय्याश समझते हैं। इसी व्यसन के कारण ही ऐसा व्यक्ति, शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक व आर्थिक समस्याओं से घिरता जाता हैं। विगत वर्ष जब पूरी दुनिया कोरोना जैसी महामारी से जूझ रही थी और पूरी जनता लॉक डाउन में अपने अपने घरो में कैद थी उस समय बॉलीवुड के एक लोकप्रिय अभिनेता सुशांत राजपूत की आत्महत्या ने पूरे देश में सनसनी फैला दी थी।
इस प्रकरण के तार फिल्म उद्योग जगत की बड़ी बड़ी हस्तियों के नशे के अवैध (Deaddiction) व्यापार और नशेबाजी की लत से जुड़े। ऐसे छिटपुट समाचार पहले भी आते रहे हैं। यह भी एक प्रमुख कारण है कि आज का युवा अपने पसंदीदा अभिनेता/अभिनेत्रियों को रोल मॉडल मानते हुए उनकी हुबहू नक़ल कर अपने संस्कारो को भूल रहे हैं और गलत रास्ते की ओर चले जाते हैं.